पंजाब को समर्पित थी डा. साधु सिंह हमदर्द की पत्रकारिता

पजाब, पंजाबी और पंजाबियत के आलम्बरदार तथा दैनिक ‘अजीत’ के संस्थापक सम्पादक डा. साधु सिंह हमदर्द जी का आज 102वां जन्म दिवस है, इस संदर्भ में उनकी शख्सीयत तथा पत्रकारिता पर रौशनी डाल रहे हैं—प्रो. प्यारा सिंह भोगल। पत्रकारिता चाहे पंजाब में अंग्रेज़ी भाषा तथा उर्दू भाषा में भी की गई बाद में हिन्दी भाषा में भी परन्तु पंजाब के साथ बहुत निकटतम रिश्ता पंजाबी पत्रकारिता का ही रहा। पंजाब के संकटों और साथ-साथ पंजाब के विकास की गति का जो झलकारा पंजाबी अखबार देते रहे वह अंग्रेज़ी, उर्दू तथा हिन्दी अखबार नहीं देते थे। पंजाबी पत्रकार तथा पंजाबी पत्रकारिता जिस किस्म के मामलों से जूझते रहे, पंजाब के विकास के लिए जैसे कलम से लड़ाई लड़ते रहे, इसका विवरण डा. साधु सिंह हमदर्द के जीवन वृतांत पर पुन: दृष्टि डालते हुए पढ़ा जा सकता है। पंजाब में जन्म लेने वालों को नित्य-संघर्ष, यह कथन डा. साधुसिंह हमदर्द की पत्रकारिता पर सही लागू होता है। जब वह दैनिक पत्रकारिता के मैदान में आए, तो ब्रिटिश शासक दूसरे विश्व युद्ध में उलझे हुए थे। जर्मनी, इटली तथा जापान ने समूचे विश्व में फैले हुए ब्रिटिश साम्राज्य को कंपकंपी छेड़ी हुई थी। भारत के दक्षिण पूर्व एशिया में जापान ने अंग्रेज़ों के सबसे बड़े सैन्य अड्डे सिंगापुर को जीत लिया था। बड़े ब्रिटिश जनरल अपनी ही सेना के भारतीय सिपाहियों तथा अधिकारियों को अपने हाल पर छोड़कर सिंगापुर, मलाया और थाईलैंड से भाग आए थे। डरी हुई ब्रिटिश सरकार भारतीय नेताओं का सहयोग प्राप्त करने का प्रयास कर रही थी, परन्तु महात्मा गांधी और कांग्रेस ने 8 अगस्त, 1942 को ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’ का प्रस्ताव पास कर दिया था। उधर सिंगापुर में अपना मुख्यालय स्थापित करके जनरल मोहन सिंह ने ‘आज़ाद हिन्द फौज’ कायम कर ली थी। स्वभाविक ही इस समय ब्रिटिश शासक कांग्रेस को छोड़कर मुस्लिम लीग तथा मुस्लिम सम्प्रदाय को प्रसन्न करने के मूड़ में थे। पंजाब में सिख समुदाय ने चाहे सेनाओं में बहुत उत्साह से सैन्य भर्ती दी थी तो भी डर यह पैदा हो गया था कि अंग्रेज़ दूसरे विश्व युद्ध के बाद पाकिस्तान बना देंगे और इस पाकिस्तान में सारा पंजाब धकेल देंगे।इस डर भरे माहौल में डा. साधु सिंह हमदर्द ने उर्दू ‘अजीत’ लाहौर में अखबार-नवीसी शुरू की थी। यह अखबार-नवीसी सिर्फ रोज़गार कमाने का साधन नहीं थी बल्कि पंजाब की ‘नीयति’ बचाने के लिए कलम युद्ध लड़ने का कठिन कार्य भी था। हमदर्द जी ने स्वयं पहल करके ‘आज़ाद पंजाब’ का विचार उभारा।  ‘आज़ाद पंजाब’ नाम की पुस्तक लिखी। ‘आज़ाद पंजाब’ योजना के अनुसार जेहलम से पश्चिम का और अम्बाला से पूर्व का क्षेत्र पंजाब में से निकालकर पांचों दरियाओं का ऐसा पंजाब पुनर्गठित करवाना था, जिसमें हिन्दू और मुस्लिम समुदाय 40-40 प्रतिशत हों तथा सिख समुदाय 20 प्रतिशत हो। इस तरह पाकिस्तान की योजना पूरी नहीं होती थी और पंजाब के तीनों समुदायों की साझी संतुलित सरकार बन सकने की उम्मीद पैदा होती थी। 
1945 में अंग्रेज़ विश्वयुद्ध तो जीत गए परन्तु भारत को अपने साम्राज्य में दबाकर रखने की शक्ति हार गए। अब वह भारत के टुकड़े करने और पाकिस्तान बनाने के लिए पहले से भी अधिक तैयार हो गए थे। 1946 के पंजाब विधानसभा के चुनावों में जीते मुस्लिम सदस्य पाकिस्तान के गठन के पक्ष में थे। अब सिख समुदाय के लिए और डा. साधु सिंह हमदर्द के लिए पहले से भी बड़ा भय-दायक संकट पैदा हो गया। हमदर्द साहिब ने ज्ञानी करतार सिंह के साथ मिलकर यह योजना बनाई कि पाकिस्तान में से अधिक से अधिक पंजाब बाहर निकलवाया जाए। ‘अजीत’ लाहौर के कार्यालय में ‘प्रताप’, ‘मिलाप’ और ‘प्रभात’ (तीनों उर्दू अखबारों) के मुख्य सम्पादक बुलाए गए। उनको इस बात के लिए कायल किया गया कि सिखों और हिन्दुओं का साझा फायदा इस बात में है कि बन रहे पाकिस्तान से पंजाब का अधिक से अधिक क्षेत्र बाहर निकलवाया जाए। उपरोक्त सभी अखबार-नवीस हमदर्द साहिब के प्रस्ताव से सहमत हो गए। इन दिनों में पंजाब विधानसभा लाहौर के हिन्दू-सिख सदस्यों का एक जनसमूह भी विधानसभा भवन में किया गया, जिसमें मिल-जुल कर चलने का फैसला किया गया। ‘अजीत’ के सम्पादकीय लेखों में डा. साधु सिंह हमदर्द इन सकारात्मक सलाहों की तायद तो करते ही थे, गलत बातों की कड़ी आलोचना भी करते थे। वह बतौर मिशनरी पत्रकार कार्य करते थे। अगस्त, 1947 को दो देश और दो पंजाब अस्तित्व में आ गए। जनसंख्या का बहुत दुखद तबादला हुआ। न भारत का बंटवारा होना चाहिए था और न पंजाब का। गुरुनानक देव जी ने, गुरु ग्रंथ साहिब ने और पंजाब के सूफी कवियों ने पंजाबियों को तथा अन्य भारतीयों को ‘अनेकता में एकता’ का सबक पढ़ाया था। बुल्लेशाह पुकार-पुकार कर कहते रहे, हे अलग-अलग मज़हबों को मानने वाले लोगो! रब्ब का नूर हर इन्सान के दिल में है। मुसलमान, हिन्दू और सिख सभी एक ही रब्ब की ज्योति का प्रकाश है। वास्तव में गुरु साहिबान, सूफी कवि तथा हिन्दू भगत हमारी साझा सभ्याचारक विरासत थे। गुरु ग्रंथ साहिब पंजाबियों का महान धार्मिक और सभ्याचारक ग्रंथ है। इसी सभ्याचारक एकता के संकल्प को समझ कर महाराजा रणजीत सिंह ने पंजाबियों को एक ‘कौम’ बनाने का प्रयास किया था। परन्तु रणजीत सिंह ‘कौम’ का निर्माण पक्का करने से पहले आंखें मूंद गए। उनके वारिस नालायक निकले। अंग्रेज़ लोग पंजाबियों की एकता चाहते ही नहीं थे। उन्होंने पंजाबी लोगों को लड़ाया। पंजाबी स्वयं भी लड़ने के लिए उतावले साबित हुए। परिणाम यह हुआ कि 14 अगस्त, 1947 को पंजाब के दो टुकड़े हो गए। 40 लाख हिन्दू-सिख पश्चिमी पंजाब छोड़कर पूर्वी पंजाब में आए। 40 लाख मुसलमान पूर्वी पंजाब छोड़कर पश्चिमी पंजाब गए। इन दिनों में 10 लाख पंजाबी सिख, हिन्दू और मुसलमान मारे गए। इस भीषण दुखांत से सबक सीखने की ज़रूरत थी, परन्तु सबक नहीं सीखा गया। लाहौर में डा. साधु सिंह हमदर्द और ज्ञानी करतार सिंह के प्रयासों से जो हिन्दू-सिख एकता कायम की गई, वह इधर आकर तोड़ दी गई। नए पूर्वी पंजाब की सरकारी भाषा क्या हो? स्कूलों की शिक्षा का माध्यम क्या हो? स्पष्ट नज़र आ रहा था कि समूह पंजाबियों की मातृ-भाषा पंजाबी है। डा. साधु सिंह हमदर्द पंजाबी भाषा की वकालत करते थे। लाहौर से जालन्धर आकर प्रकाशित शुरू हुए अखबार पूरे पंजाब की भाषा हिन्दी बनाना चाहते थे। हमें स्वयं याद है, उन दिनों में गैर-पंजाबी अखबार हिन्दी को भाषा और पंजाबी को सिर्फ बोली साबित करने के लिए कितना जोर लगाते थे। उनका मतलब था कि पंजाबी हिन्दी के बराबर एक ‘भाषा’ भी नहीं। यह तो हिन्दी की एक उप-भाषा है। इसी विवाद को मिटाने के लिए ज्ञानी करतार सिंह ने जो उन दिनों में पंजाब के मंत्री थे, भीमसेन सच्चर को मुख्यमंत्री बनवाकर ‘सच्चर फार्मूला’ बनवाया था। हमदर्द साहिब लगातार पंजाब, पंजाबी तथा पंजाबियत के लिए संघर्ष करते रहे। पंजाबी सूबा बनाये जाने की मांग उभरी, तो एक बार फिर यह साम्प्रदायिक सफबंदी तीखी हुई। हमदर्द साहिब ‘अजीत’ में पंजाबियों की सांझ और मातृ भाषा पंजाबी के आधार पर पंजाबी सूबे के गठन की मांग करते थे। पंजाब में पंजाबियत उभारने की बात करते थे। बज़्मे-अदब की मह़िफलों और केन्द्रीय पंजाबी लेखक सभा के इकट्ठ अपने कार्यालय में करते थे। अलग-अलग भाषाओं के लेखक मिल-जुलकर बैठते। पंजाब में साहित्यिक और सांस्कृतिक चेतना उभारने का प्रयास करते, परन्तु साम्प्रदायिक अंश, साम्प्रदायिक ज़हर फैलाते रहे। फिर भी पंजाब और पंजाबी भाषा के विरोधी प्रत्येक चरण पर हारते गए। उन्होंने पंजाबी भाषा का विरोध किया। पंजाबी सूबे का विरोध किया। गुरु नानक यूनिवर्सिटी तथा पंजाबी यूनिवर्सिटी बनाये जाने का विरोध किया। उनके विरोध के बावजूद यह संस्थाएं बनीं। डा. साधु सिंह हमदर्द के विचार जीते। उनके विरोधी पत्रकार हारे। परन्तु पंजाब में सबसे बड़ा दुखांत 1978 के बाद उभरी हिंसा था, इसी हिंसा के परिणामस्वरूप जून 1984 का आपरेशन ब्लू स्टार हुआ और नवम्बर, 1984 के सिख विरोधी दंगे हुए। यह दोनों घटनाएं उन पंजाबियों के लिए बहुत बड़ा धक्का थीं, जो अनेकता में एकता चाहते थे और जो पंजाबियों की एकता तथा भारत की एकता चाहते थे। पंजाब, पंजाबी तथा पंजाबियत के मुद्दयी रहे डा. साधु सिंह हमदर्द के लिए ये घटनाएं दिल तोड़ने वाली  थीं। हमदर्द साहिब 1984-85 में बहुत पीड़ित रहे। इसी पीड़ा का बोझ झेलते-झेलते वह दुनिया से चल बसे, परन्तु उनका सारी उम्र का किया कार्य गर्व करने के योग्य है।