देश के लोगो सैनिकों का सम्मान करना सीखें !

मैं इक खोये हुए सूरज की, 
किरणों का पुजारी हूं,
अन्धेरे की इबादत कैसे कर लूं, 
दिल नहीं माने।
इब्राहिम साहिब, आप ही की तरह हम भी किरणों के ही पुजारी हैं। वो बात अलग है कि आजकल सूरज भी तो यदा-कदा ही दिखाई देता है, परन्तु दिखाई तो देता ही है, इस पर कोई दो राय नहीं हो सकती हैं। एक बात है जिस पर अधिकांश लोगों, विशेषकर ज्यादा पढ़े-लिखे व माडर्न युवाओं की एक ही राय है, वह है हर प्रश्न का उत्तर गूगल में है, इसलिए किसी बात को याद रखने की ज़रूरत नहीं है। यूं भी हमें कल क्या हुआ था, इस बात से कभी कोई मतलब नहीं रहता है। हमें तो बस, अपने इंटरनेटमेंट से मतलब है, उसमें व्यवधान नहीं आना चाहिए।
अब जिन कम्पनियों ने अपना करोड़ों रुपया अलग-अलग व्यापारिक गतिविधियों में लगा रखा है, जाहिर है, उन्हें अपना व्यापार बढ़ाना है। चमक-दमक, धन का आकर्षण, सम्मान, प्रतिष्ठा, युवा लड़के व लड़कियों का आपके पीछे भागना, समाज में पहचान किसे अच्छी नहीं लगती?
यह सब एक सूचना-बद्ध तरीके से किया गया व इसे बढ़ावा दिया गया। आये दिन क्रिकेट के खिलाड़ियों को समाज में इस तरह से प्रदर्शित किया जाता है कि मानो ये बहुत बड़े नायक हैं। मैच के दिनों में तो जैसे जीवन रुक सा जाता है। हर कोई यह जानने में लगा रहता है कि किस खिलाड़ी ने कितने रन बनाए और किसने कितनी विकटें लीं। अगर कोई खिलाड़ी आपके शहर में आ जाए तो उसे देखने वालों की कतारें लग जाती हैं। इससे ज्यादा अगर लिखेंगे तो आपको लगेगा कि शायद किसी विशेष कारण से हम क्रिकेट की आलोचना कर रहे हैं।
हम आपके सम्मुख वास्तु-स्थिति रख रहे हैं, निर्णय आप पर छोड़ते हैं। खेल को शारीरिक व्यायाम के दृष्टिकोण से अगर देखें, तब फुटबाल, हॉकी, कबड्डी, तैराकी, बैडमिंटन, वॉलीबाल, कुश्ती, दौड़ इत्यादि क्रिकेट से कहीं ज्यादा उपयुक्त खेलें हैं। इनकी क्या दशा, इसका खुद अन्दाज़ा लगाइये। जो देश विश्व में अग्रणी हैं, वहां पर क्रिकेट खेला ही नहीं जाता। अमरीका, रूस, जापान, जर्मनी, फ्रांस, इटली, चीन, कोरिया लगभग पूरे यूरोप में क्रिकेट नाम का कोई खेल ही नहीं। अगर इस खेल में वास्तव में ही शारीरिक व मानसिक विकास के साथ बाकी खेलों की बजाय ज्यादा सम्भावनाएं होतीं तो कोई कारण नहीं था कि ये देश व यहां के लोग क्रिकेट को अपने देश में बढ़ावा नहीं देते।
शेष को आप छोड़ दीजिए, कम से कम चीन तो इसे ज़रूर बढ़ावा देता अगर इस खेल में उन्हें कोई विशेष महत्व नज़र आता। उन्होंने पूरे विश्व में ही अच्छी-अच्छी चीज़ों की नकल करके हू-ब-हू उसी तरह की चीज़ों को कई गुणा कम रेट पर पैदा करके पूरे विश्व में तहलका मचा दिया है। उनके लिए अच्छे क्रिकेट खिलाड़ी तैयार करना बाएं हाथ का खेल होता, जिन देशों का मैंने जिक्र किया है, ये सभी देश हमारे से हर क्षेत्र में कहीं आगे हैं, परन्तु इनमें क्रिकेट नहीं खेला जाता है। किसी खेल का खेलना कभी भी गलत नहीं हो सकता, परन्तु उसके प्रति पागलों जैसा जुनून होना, किसी भी तरह से जायज़ नहीं ठहराया जा सकता। इस पागलपन को बढ़ावा देने में हमारी सरकारों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी है। अप्रत्यक्ष रूप से सरकारी संरक्षण व मान्यता तो सरकार ने दे ही रखी है, वरना ‘भारत रत्न’ जैसा बहुमूल्य पुरस्कार सचिन तेंदुलकर को नहीं दिया जाता। भारत रत्न का जिक्र इसलिए कर रहा हूं कि यह पुरस्कार भारत के किसी क्षेत्र में अत्यंत महान कार्य के लिए प्रदान किया जाता है, और वह व्यक्ति समस्त भारत वासियों के लिए एक उदाहरण होता है। इनके लिए सम्मान यहीं नहीं रुका, इन्हें राज्यसभा का सदस्य भी मनोनीत कर दिया गया। करोड़ों रुपया राज्यसभा से भी लिया। राज्यसभा में जाना इन्हें अपनी शान के खिलाफ लगता है, क्योंकि वहां के पैसे तो मिल ही जाने हैं, परन्तु अगर अपने अनुबंध की शर्तों के अनुसार विज्ञापन एजेंसियों के पास आप शूटिंग के लिए या उद्घाटन इत्यादि के लिए नहीं पहुंचते, तब आप के पैसे काट लिए जायेंगे। अब आप ठहरे व्यापारी इसलिए संसद के सदन तो चलते ही रहते हैं, आपके जाने या न जाने से कोई फर्क तो पड़ने वाला है नहीं परन्तु अगर विज्ञापन एजेंसियों के अनुबंध को नहीं निभाया तो कोरोड़ों का नुक्सान हो जायेगा।
यही तो वह असली वजह है, जिस कारण यह आवाज़ उठाई जाती हैं कि दो देशों की सीमाओं पर विवाद को खेल के साथ नहीं जोड़ना चाहिए। खिलाड़ी तो खिलाड़ी हैं, उन्हें किसी देश के आन्तरिक व बाहरी उठापटक से नहीं जोड़ना चाहिए। ज़रा सोचिए कि हाकी के इतिहास में स्वर्गीय ध्यान चंद से बड़ा खिलाड़ी शायद ही कभी पैदा हुआ हो। उन्हें जब जर्मनी में खेलते हुए हिटलर ने देखा था, तब वह इतना मंत्र-मुग्ध हो गया था कि खेल समाप्त होने पर उठकर ध्यान चंद से हिटलर ने हाथ मिलाया था और ध्यान चंद को जर्मनी में बस जाने के लिए कहा था, जिसे उन्होंने विनम्रता से नकार दिया था। हिटलर के बारे में जो कुछ भी इतिहास में उपलब्ध हो, परन्तु हिटलर ने खड़े होकर मात्र कुछ लोगों को ही सम्मानित किया था, जिनमें ध्यान चंद के अलावा हमारे माननीय नेता जी सुभाष चंद्र बोस भी थे। हमने ध्यान चंद जी को तो लगभग भुला ही दिया है, उन्हें भारत रत्न देना तो बहुत दूर की बात है, क्योंकि खेल तो खेल है, इसे सीमाओं पर हो रही गोलीबारी से नहीं जोड़ना चाहिए।
इस तरह की विचारधारा को बढ़ावा देने के लिए हमारे यहां लम्बी कतारें हैं। फिल्मी कलाकारों का कहना है कि हम तो लोगों का मनोरंजन करते हैं, इसलिए हमें इस विवाद से अलग रखिये। कवियों व शायरों का विचार है कि ये लोग तो आपसी भाईचारे को बढ़ावा देने के लिए गोष्ठियां करते हैं, इसलिए ये लगातार चलती रहनी चाहिएं। लेखकों का कहना है  कि एक-दूसरे देश के लेखकों का आपस में मिलना उन्हें एक-दूसरे के साथ विचार-विमर्श का अवसर प्रदान करते हैं, इसलिए ऐसे अदान-प्रदान बिना किसी रुकावट के चलते रहने चाहिएं। व्यापारी वर्ग भी लगभग यही सोच रखता है। अब इन सबसे अगर एक प्रश्न पूछा जाए कि ये सभी लोग अपने-अपने क्षेत्र में कोई रुकावट नहीं चाहते, तब वो सैनिक जो कंपकंपाती ठंड में, भीषण गर्मी में, आंधी-तूफान में सीमाओं पर शहीद हो रहे हैं, वो सिर्फ इसलिए कि हम अपना जीवन निर्बाध सुचारू रूप से जीते रहें। किसी शहीद परिवार जिसने अपने लाल को देश की खातिर राष्ट्र-रक्षा की बलिवेदी पर चढ़ा दिया हो, उससे पूछिये कि लाल खोने का क्या अर्थ होता है? अब पूछें किस से?  मुझे अच्छी तरह से याद है कि एक बार शरद पवार  जोकि स्वयं रक्षा मंत्री रह चुके हैं, जब सैनिकों के हताहत होने के बारे में प्रश्न पूछा गया, तो उनका उत्तर था कि सैनिक तो मरने के लिए ही फौज में जाते हैं। यह उत्तर देकर पवार चलते बने। इक्का-दुक्का अखबारों ने यह खबर छापी थी, परन्तु जनता की ओर से कोई नकारात्मक इस पर प्रतिक्रिया नहीं हुई थी।  मेरा सभी पाठकों से अनुरोध है, कि अपने देश के सैनिकों का सम्मान करें। विशेषकर शहीद सैनिकों के घर साल में एक दिन ज़रूर जाने का प्रोग्राम बनाएं, ताकि इन परिवारों को यह एहसास रहे कि उनके पुत्र रत्न के खो जाने के बाद पूरा देश उनके साथ खड़ा है और वो अकेले नहीं हैं। 
यह प्रार्थना उन लोगों के लिए है, जो आन्तरिक रूप से जिन्दा हैं, वरना बकौल अन्सारी—
मौत के डर से नाहक परेशान हैं,
आप जिन्दा कहां हैं, जो मर जायेंगे।

गांव संतोषगढ़, ज़िला ऊना, हि.प्र.
मो. 094175-47493, 82190-08252