किसान आखिर कैसे निकलें गहराते कृषि संकट से...?

पिछले महीने ही सम्पन्न गुजरात विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा को राज्य के कृषि आधारित क्षेत्रों- सौराष्ट्र व कच्छ, जहां कपास (कॉटन) व मूंगफ ली की अधिक खेती होती है- में चुनावी धक्का लगा, जिससे वह 99 सीटें ही प्राप्त कर सकी। दूसरे शब्दों में उसने जो किसानों व उनकी समस्याओं की अनदेखी की थी, उसका भारी नुकसान उठाना पड़ा। यह गलती वह महाराष्ट्र में दोहराना नहीं चाहती है, जहां के कृषि क्षेत्रों-विधर्भ व मराठवाड़ा से उसके पास 50 से अधिक विधायक हैं। महाराष्ट्र में लगभग 18 माह में विधानसभा चुनाव होने हैं। इसलिए महाराष्ट्र में भाजपा के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने तय किया है कि वह उन किसानों को मुआवजा देगी जिनकी कपास की फ सल पिंक बोलवार्म नामक कीड़े के कारण नष्ट हो गई है। महाराष्ट्र के 13.6 मिलियन किसानों में से लगभग 4.5 मिलियन कपास की खेती करते हैं। राज्य सरकार का कहना है कि 30,800 रूपये प्रति हेक्टेयर (गैर सिंचाई भूमि) व 37,500 रूपये प्रति हेक्टेयर (सिंचाई भूमि) के हिसाब से केवल दो हेक्टेयर भूमि वाले किसानों को मुआवजा दिया जायेगा, जिसका सर्वे अभी राहत व पुनर्वास विभाग कर रहा है। जाहिर है इससे कुछ किसानों को थोड़ी राहत अवश्य मिल सकती है, लेकिन यह किसानों की समस्याओं का समाधान नहीं है, जो देशभर में इतनी अधिक परेशानियों से जूझ रहे हैं कि न सिर्फ  गरीबी व कर्ज के दबाव में हैं बल्कि जब इन कारणों से तनाव अधिक बढ़ जाता है तो आत्महत्या तक कर बैठते हैं, जिससे उनपर आश्रित परिवारों की कठिनाइयों में वृद्धि ही होती है। वर्ष 2017 में किसानों के अनेक राष्ट्रव्यापी आन्दोलन हुए, जिनमें से कुछ हिंसक भी हुए और पुलिस फ ायरिंग में अनेक किसान मारे गये। पिछले साल नवम्बर में तमिलनाडु, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पंजाब व तेलंगाना के 184 किसान गुट नई दिल्ली में जमा हुए थे ‘प्रोटेस्ट वाक’ में हिस्सा लेने के लिए। इस प्रदर्शन ने एक बार फि र किसानों की समस्याओं व कृषि तनाव और संकट को बयान किया।कृषि क्षेत्र में अस्थिर आय है जिसका कारण खेती में शामिल विभिन्न प्रकार के खतरे हैं, जैसे उत्पादन, बाजार व दाम। एम.एस. स्वामीनाथन के नेतृत्व में राष्ट्रीय किसान आयोग ने अपनी 2006 की रिपोर्ट में कहा था कि ‘ग्रामीण क्षेत्रों में कुछ बहुत ही गंभीर और भयंकर गलत हो रहा है’। हाल के दिनों में कृषि विकास दर अस्थिर रही है। यह 2012-13 में 1.5 प्रतिशत था जो 2013-14 में बढ़कर 5.6 प्रतिशत हो गया, लेकिन 2014-15 में गिरकर (-) 0.2 प्रतिशत हुआ और 2015-16 में 0.7 प्रतिशत था। 2016-17 के लिए चालू अनुमान 4.9 प्रतिशत है। यह ट्रेंड कृषि क्षेत्र में संकट को व्यक्त करता है।कृषि संकट का मुख्य कारण यह है कि खेती व भूमि एसेट्स पर जनसंख्या दबाव निरंतर बढ़ता जा रहा है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि भारत में खेतों का औसत आकार छोटा है- 1.15 हेक्टेयर और 1970-71 से निरंतर खेतों का साइज कम होने का ट्रेंड है। 72 प्रतिशत किसानों के पास जो खेत हैं वह 2 हेक्टेयर से भी कम के हैं। इतने छोटे खेतों में मशीनरी से बड़े पैमाने पर खेती होना संभव ही नहीं है, फ लस्वरूप मेहनत व लागत तो अधिक लगती है, लेकिन लाभ कुछ विशेष नहीं होता है। चूंकि छोटे व मध्य वर्ग के किसानों के पास बाजारीय सरप्लस कम होता है, इसलिए उनके पास मोलभाव करने की शक्ति कम होती है और दाम में कोई दखल नहीं रहता। चूंकि किसान ‘कर्ज से मुक्ति व समर्थन मूल्य’ की मांग विभिन्न मंचों से करते रहते हैं, इसलिए वह उत्पादन, मौसम व विनाश, दाम, क्रेडिट, बाजार और जो नीति में हैं, से होने वाले खतरों से संघर्ष करते रहते हैं।कीट, रोग, बीज व सिंचाई की कमी के कारण फ सल उत्पादन हमेशा खतरे में रहता है, जिससे फ सल कम होती है और मार्केटिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर के अभाव व दलालों की मुनाफाखोरी  के कारण भी किसानों का संकट बढ़ता है। इसके अलावा अधिकतर अनौपचारिक स्रोतों से उधार लिया जाता है और चूंकि किसानों के पास स्थाई लाभ व आय नहीं है, इसलिए अल्प व दीर्घकालीन ऋ ण के लिए पूंजी का अभाव रहता है। यही वजह है कि कर्ज समय पर लौटाया नहीं जाता और किसान पर ऋ ण ब्याज बढ़ता रहता है। कृषि उत्पाद बाजार समिति की अनिश्चित नीतियां व नियमन, बहुत कम सिंचाई कवरेज, सूखा, बाढ़ और बेमौसम बरसात अन्य तत्व हैं जो किसानों की परेशानियों को बढ़ा देते हैं। कभी फ सल बहुत अधिक हो जाती है तो कभी बहुत कम, इस पर व्यापारियों के अनुमान व जमाखोरी से मांग व सप्लाई में उतराव-चढ़ाव आता रहता है और नतीजतन किसानों पर अनिश्चित दाम की तलवार लटकी रहती है।साल 2016-17 का सरकारी आर्थिक सर्वे बताता है कि किसानों के लिए लचर कृषि उत्पाद बाजार समिति के कारण होने वाले दाम खतरे बहुत अधिक हैं, खासकर इसलिए कि उनका उत्पादन जल्द खराब हो जाता है, उनके उत्पादन का स्टोरेज करने की सुविधाएं कम हैं, कभी फ सल कम तो कभी बहुत अधिक हो जाती है और नुकसान की भरपाई के लिए बीमा नहीं है। पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला में कृषि विशेषज्ञ लखविंदर सिंह, जो दशकों से ग्रामीण पंजाब पर नजर रखे हुए हैं, का कहना है कि कृषि विकास धीमा होने के साथ ही कृषि उत्पाद के दामों की तुलना में कृषि उपकरणों व लागत में अधिक तेजी आयी है। अब खेती में पहले से कई गुणा अधिक पैसा लगाना पड़ता है, लेकिन वापसी उस अनुपात में नहीं होती है। आज कृषि मुनाफे का व्यवसाय नहीं है। रोजगार के किसी अन्य विकल्प के अभाव में छोटे किसानों को अधिक ब्याज पर अनौपचारिक स्रोतों से ऋ ण लेना पड़ता है, जिसने संकट को गहरा दिया है।हर आर्थिक गतिविधि की तरह कृषि क्षेत्र के अपने खतरे हैं। किसानों की आय बढ़ाने व स्थाई करने के लिए आवश्यक है कि उनके समक्ष खतरों को कम किया जाये, उनका प्रबन्धन किया जाये और यह सब उनकी समीक्षा व संबोधन से ही मुमकिन होगा। यह भी जरूरी है कि छोटे-छोटे खेतों को मिलाकर बड़ी कंपनी बनाई जाये यानी कॉर्पोरेट खेती के युग में प्रवेश किया जाये जिसमें किसान अपने खेत के अनुसार हिस्सेदार हो।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर