पांचवीं बार जीते पुतिन, आखिर इस लोकप्रियता के मायने क्या हैं ?

साल 2000 से रूस के राष्ट्रपति पद पर लगातार मौजूद व्लादिमीर पुतिन पांचवीं बार रिकॉर्ड मतों से जीते हैं। सोवियत संघ के विघटन के बाद बने रूस में अब तक हुए सभी चुनावों से ज्यादा इस बार उन्हें मत मिले। 15 से 17 मार्च 2024 को हुई वोटिंग में पुतिन को 88 प्रतिशत वोट मिले, जबकि उनके प्रतिद्वंदी निकोले खारितोनोव को महज 4 प्रतिशत से संतोष करना पड़ा और दो अन्य प्रतिद्वंदी व्लादिस्लाव दावानकोव और लियोनिद स्लटस्की तीसरे व चौथे नंबर पर रहे। जीतने के बाद देशवासियों को धन्यवाद देते हुए व्लादिमीर पुतिन ने दुनिया को संदेश दिया कि अब रूस पहले से भी ज्यादा ताकतवर और प्रभावशाली बनेगा। उन्होंने इस मौके पर रूस-नाटो विवाद की भी चर्चा की और कहा, ‘अगर अमरीकी नेतृत्व वाला सैन्य संगठन नाटो और रूस आमने सामने हुए तो दुनिया तीसरे विश्व युद्ध से बस एक कदम दूर होगी।’ हालांकि उन्होंने इस कथन के साथ यह उम्मीद भी जतायी कि उन्हें नहीं लगता कि ऐसा कुछ होगा। 
सवाल है, जब लगभग सारा पश्चिम पुतिन के विरोध में खड़ा था, अमरीका से लेकर जर्मनी और इंग्लैंड तक जब पुतिन को खलनायक बता रहे थे और रूस के विरुद्ध दुनिया को एकजुट होने के लिए कह रहे थे, ऐसा क्या हुआ कि तब व्लादिमीर पुतिन और भी ज्यादा मजबूती से उभरकर सामने आए हैं? अगर दो साल पहले रूस को यह गलतफहमी थी कि यूक्रेन पर हमला करने के कुछ घंटों बाद वह यूक्रेन को जीत लेंगे, तो ऐसी ही कुछ गलतफहमी अमरीका सहित तमाम पश्चिमी देशों को निजी स्तर पर भी और सामूहिक स्तर पर भी रही है। अमरीका के राष्ट्रपति जो बाइडेन और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक हाल के दिनों में एक नहीं, कई बार यह जता चुके हैं कि रूस पश्चिमी देशों के सामने भरभराकर बस ढहने ही वाला है। किसी बड़े कद के राजनेता की जितनी लानत मलानत हो सकती है, उसे बार-बार अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडेन से लेकर पश्चिम के अन्य नेता पुतिन की करते रहे हैं। 
ऐसा माहौल बनाने की कोशिश भी पिछले डेढ़ दो सालों से होती रही है कि रूस में अब किसी भी समय विद्रोह होने वाला है। पश्चिम के देश रूस पर जितने आर्थिक प्रतिबंध लगा सकते थे, उससे ज्यादा उन्होंने लगाए हैं। यूक्रेन को जितना गोलाबारूद वे दे सकते थे, उससे कई गुना ज्यादा दिया है और जितनी विश्व स्तर पर पुतिन और रूस के विरुद्ध गोलबंदी की जा सकती थी, सब करके देख लिया, लेकिन रूस को इस बार तो फिनिक्स पक्षी की तरह पश्चिम के विरुद्ध उभरकर आने के लिए राख भी नहीं होना पड़ा। हैरानी की बात यह है कि विदेशों में रूस की करीब 400 अरब डॉलर की विदेशी मुद्रा फ्रीज किए जाने और हर तरह के आर्थिक प्रतिबंध लगा देने के बावजूद रूस की अर्थव्यवस्था पश्चिमी देशों के अनुमानों के मुताबिक ढही नहीं, उल्टे अमरीका, फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी से भी कहीं ज्यादा पिछले एक साल में उसकी विकास दर रही है।
सवाल है, आखिर यह चमत्कार क्यों और कैसे हुआ है? क्या व्लादिमीर पुतिन रूस में बहुत ज्यादा लोकप्रिय हैं या रूस के लोग उनके साथ अपना सुरक्षित भविष्य देखते हैं? आखिर वे कौन से कारण रहे कि पश्चिमी देशों की तमाम भविष्यवाणियों और रूस के खोखला हो जाने के लंबे चौड़े दावों के बावजूद न तो रूस की अर्थव्यवस्था खोखली होकर ढही, और न ही पश्चिमी देशों के प्रोपेगंडा के मुताबिक पुतिन इन चुनावों में कमजोर हुए। उल्टे 2018 से करीब 12 प्रतिशत, 2012 से करीब 25 प्रतिशत, 2004 से करीब 16 प्रतिशत और 2000 से करीब 35 प्रतिशत ज्यादा वोट इस बार राष्ट्रपति पुतिन को मिले हैं। इससे साफ पता चलता है कि पश्चिमी देश जिस तरह रूस के खोखले हो जाने, पुतिन के जन विरोध से घिर जाने का दावा कर रहे थे, वैसा कुछ भी नहीं था। 
मगर सवाल है आखिर क्यों रूस की जनता ने पुतिन को इस कदर सपोर्ट किया? क्या वाकई वह पुतिन को बहुत अच्छा मानती है और उसमें भविष्य देखती है? शायद पूरी तरह यह बात सही न भी हो, लेकिन जिस तरह से पश्चिमी देश सोवियत संघ के विघटन के बाद से लगातार रूस के विरुद्ध वैश्विक स्तर पर एक षड्यंत्र को पालते पोसते रहे हैं, जिस तरह से वारसा पैक्ट के खत्म होने के बाद भी पश्चिमी देशों ने वारसा के विरुद्ध बनाये गये नाटो को न सिर्फ बरकरार रखा बल्कि दिन पर दिन उसे और ताकतवर बनाया और नाटो का भौगोलिक विस्तार भी लगातार कर रहे हैं, उसे सिर्फ रूस के राष्ट्रपति पुतिन ही अपने विरुद्ध हुआ विश्वासघात नहीं मानते बल्कि रूस के आम लोगों को भी लगता है कि यह उनके देश के विरुद्ध पश्चिमी देशों का झूठा और विद्वेष भरा रवैया है। जब वारसा पैक्ट खत्म हुआ था, तभी यह भी तय हुआ था कि नाटो अगर पूरी तरह से खत्म नहीं होगा, तो महज प्रतीक के तौर पर रह जायेगा। नाटो को जिस तरह से वारसा की मौजूदगी के दौरान रूस से किसी भी क्षण लोहा लेने की मंशा से ताकतवर बनाया गया था, अब धीरे-धीरे उस मंशा को खत्म कर दिया जायेगा, क्योंकि पश्चिम के विरुद्ध खड़ा समाजवादी सोवियत संघ अब नहीं रहा था।
लेकिन सिर्फ अमरीका ने ही नहीं बल्कि लगभग सभी नाटो देशों ने अमरीका के पीछे गोलबंद होकर हाल के सालों में रूस को बार-बार अप्रत्यक्ष रूप से चेतावनी दी है कि वह उसे नष्ट कर देगा या लगातार नाटो के विस्तार से यह संदेश देने की कोशिश की, कि पश्चिमी देश रूस को अपने ही दड़बे में घुसेड़ देंगे लेकिन अमरीका और उसके साथी देशों के मन की ऐसी बात नहीं हो सकी। 16 देशों के भरपूर सशस्त्र समर्थन के बावजूद यूक्रेन सिर्फ बीच-बीच में रूस को चुनौती देने की कोशिश भर करता दिखा है। रूस को न तो अभी तक यूक्रेन के पीछे खड़ी नाटो की ताकत खदेड़ सकी है, और न ही यूक्रेन की फौजें नाटो की छत्रछाया में रूस से अपने देश के वे हिस्से वापस ले सकी हैं, जिस पर रूस ने कब्ज़ा कर लिया है।
इससे व्लादिमीर पुतिन जहां अपने लोगों को यह संदेश देने में कामयाब हुए हैं कि उनकी मौजूदगी में रूस मजबूत है और उनके न रहने पर रूस कमजोर होगा, वहीं दूसरी तरफ  जिस तरह से अमरीका सहित सभी नाटो देशों ने यूक्रेन को मोहरा बनाकर रूस का खात्मा करने की कोशिश की है, उसमें वे सफल तो नहीं हो पाए। लेकिन पश्चिम के असली इरादों को उजागर होने से ज़रूर उनके न चाहने के बावजूद भी वे रोक नहीं सके। लब्बोलुआब यह कि रूस के लोगों ने न चाहते हुए भी पश्चिमी देशों को करार जवाब देने के लिए पुतिन का साथ दिया है। और रूस को 2010 की उसी स्थिति में लाने की कोशिश की है, जब रूस विघटन के बाद नये सिरे से अपनी पुरानी ताकत हासिल करने का मंसूबा व्यक्त किया था। कुल मिलाकर अगर गहराई से सोचें तो यह रूस की जीत कम, पश्चिमी देशों को, रूसी जनता का करारा जवाब है कि मुंह में राम, बगल में छुरी रख कर आप किसी को अधिक देर तक बेवकूफ  नहीं बना सकते।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर