विकास और सुरक्षा के नाम पर होता विनाश

दुनिया को तबाह करने वाले एटमी हथियारों की दौड़ खत्म नहीं हुई। तत्कालीन सोवियत संघ ने वर्ष 1949 में अपने पहले परमाणु बम का परीक्षण किया। इसके जवाब में एक कदम आगे बढ़ कर वर्ष 1952 में अमरीका ने अपने पहले हाइड्रोजन बम का परीक्षण कर डाला। 
ये बम तो परमाणु बम से कई गुना ज्यादा विनाशकारी है। शीतयुद्ध के दौरान परमाणु युद्ध की आशंका सियासी कारणों से उत्पन्न हुई। यह हमारे अस्तित्व के लिए अच्छी बात है कि परमाणु हथियार संपन्न तत्कालीन सोवियत संघ और अमरीका ने कभी इसका इस्तेमाल नहीं किया लेकिन अब सम-सामयिक विश्व में उत्तर कोरिया और पाकिस्तान जैसे कुछ परमाणु शक्ति सम्पन्न देश हैं जिनके बारे में आशंकाएं हमेशा रहती हैं। उत्तर कोरिया के तानाशाह और पाकिस्तान की अस्थिर राजनीति इन आशंकाआें को हवा देती रहती है। इस सबके बीच सीरिया के बारे में भी आशंका है कि उसने भी परमाणु क्षमता हासिल करने के लिए जुगाड़ लगाना शुरू कर दिया है। ग्रीन पीस इंटरनैशनल के अनुसार वर्ष 1986 में चेर्नोबिल हादसे और वर्ष 2004 में बेलारूस में परमाणु संयंत्र में हुए हादसे से लगभग दो लाख लोगों की मौत हुई थी। वर्तमान में भी लाखों लोग विकिरण के कारण असाध्य रोग झेल रहे हैं। वर्ष 2011 में जापान के फुकुशिमा परमाणु संयंत्र में हुई दुर्घटना के कारण लगभग 1.60 लाख लोग विस्थापित हुए थे। कहा जाता है कि फुकुशिमा के आसपास का क्षेत्र अगले दो दशक तक मानवीय बसावट के लिए अनुकूल नहीं रहेगा। ज्ञात हो कि फुकुशिमा से लगभग छह माह तक विकिरण रिसाव होता रहा था। स्टीफन हॉकिंग ने वर्ष 2007 में लियोनार्डो डिकैप्रियो की डॉक्यूमैंट्री में चिंता जताई थी कि ‘हम नहीं जानते कि ग्लोबल वॉर्मिंग कब खत्म होगी।’ उन्होंने कहा था कि यदि समय रहते सुधार के उपाय नहीं किए गए तो वो दिन दूर नहीं जब धरती शुक्र ग्रह के समान हो जाएगी जहां तापमान 250 डिग्री सैल्सियस हो जाता है और एसिड की बारिश होती है। संकेत साफ है, औद्योगिक क्रांति के बाद से धरती का औसत तापमान 0.8 डिग्री सैल्सियस तक बढ़ गया है। हमने विकास के लिए कोयले और पैट्रोलियम का जमकर उपयोग किया है। इससे कार्बन डाईऑक्साइड और ग्रीन हाउस प्रभाव पैदा करने वाली कई गैसों का उत्सर्जन हुआ। इससे धरती का प्राकृतिक संतुलन गिर गया है। ओज़ोन परत को नुक्सान पहुंचा। सबसे पहले हमारी कृषि इससे प्रभावित हुई है। मौसम चक्र में आए बदलाव से खेतों की पैदावार प्रभावित हुई है। विश्व के विभिन्न हिस्साें में ग्लोबल वार्मिंग का असर पड़ रहा है। स्टीफन हॉकिंग की आशंकाओं पर ध्यान देने की ज़रूरत है। जैनेटिक इंजीनियरिंग को निजी कंपनियों के बोर्ड रूम में बैठ कर सात-आठ व्यक्ति निर्धारित कर रहे हैं। इस पर समाज का कोई नियंत्रण नहीं है। यही कारण है कि उससे वायरस बनेगा या कुछ और चीज निकलेगी, किसी को कुछ भी मालूम नहीं है। दुनिया में कई वायरस फैल रहे हैं। उनमें अनेक वायरस जैनेटिकली इंजीनियर्ड हैं। जैनेटिक इंजीनियरिंग का प्रयोग मानव पर होने लगा है। इसकी सूचनाएं भी बहुत कम लोगों तक पहुंच पा रही हैं।  जैनिटकली इंजीनियर्ड फसलों पर भी कोई चर्चा नहीं हो रही है। सरकारें भी जैनेटिकल मोडिफाइड फसलों को लाने के लिए पिछले दरवाजे का इस्तेमाल कर रही हैं। इन पर पहले समाज में स्वच्छ खुली बहस हो, चर्चा हो, उसके बाद जनता यह निर्णय करे कि उसके लिए क्या सही है और क्या गलत है लेकिन दुर्भाग्य से यह सब चीजें जनता के हाथ से निकल चुकी हैं। अब कॉर्पोरेट के हाथ में आ गई हैं। इस पर जी-20 और जी-8 जैसे समूह संज्ञान लें। दुनिया को इस रास्ते से बचाने के लिए देखें कि क्या हमारे अनुकूल है और क्या नहीं। फ्रांस के डॉ. सिरालिनी की एक रिपोर्ट आई जिसमें बताया कि जैनेटिकली मोडिफाइड फूड जानवरों को लंबे समय तक खिलाया जाए तो इसका क्या असर होता है। इस रिपोर्ट को दूसरे दिन ही वैबसाइट से हटा लिया गया। इसका मतलब है कि कुछ छुपाया जा रहा है। अपनी पहले की रिपोर्ट में इन्होंने बताया कि चूहों को दो साल तक जैनेटिकली मोडिफाइड फूड खिलाया जाए तो उनके शरीर पर इतने भयंकर ट्यूमर हो जाते हैं कि उनको देख कर भी डर लगता है। चूहे के दो साल मानव के 70-80 साल के बराबर माने जाते हैं। चूहों पर 90 दिन का प्रयोग किया जाता है। जो कि मानव के 20 साल के बराबर माना जाता है। इस पर मांग की जा रही है कि इन पर पूरे दो साल का प्रयोग हो जिससे पता चल सके कि मानव के पूरे जीवन में क्या होगा।