विनाशकारी और आत्मघाती है हिमालय का शोषण

साहित्य प्रेमी, वैज्ञानिक, पर्यावरण विशेषज्ञ, सामाजिक कार्यकर्ता और राजनेता, कोई भी हों, हिमालय पर्वत श्रृंखलाएं सभी का मन मोहने और एक तरह की आत्मिक शांति प्रदान करने के लिए पर्याप्त हैं। जब भी शहर से दूर किसी स्थान पर जाने की इच्छा होती है तो सबसे पहले हिमालय की गोद में बसे पर्वतीय क्षेत्रों की बात होती है। प्रकृति की यह अनमोल धरोहर न केवल हमारे देश का प्रहरी बन हमारी रक्षा करता है बल्कि जीवन के लिए आवश्यक संसाधनों की पूर्ति करता है। हिमालय दिवस : कुछ वर्ष पूर्व उत्तराखंड सरकार ने नौ सितम्बर का दिन हिमालय दिवस मनाने के लिये घोषित किया। तब से अब तक हर साल गोष्ठियों और संकल्प पत्रों के आयोजन से अपना कर्त्तव्य पूरा कर लिया जाता है और उसके बाद जैसा कि हमारी आदत है, इसे भुला दिया जाता है और हम हिमालय का दोहन, उससे आर्थिक लाभ प्राप्त करने, व्यावसायिक गतिविधियों का संचालन करने और जितना हो सके उसके स्वरूप और सौंदर्य को बिगाड़ने में लग जाते हैं।
सारकार हो या समाज, उस पर अदालतों की टिप्पणियों का भी कोई असर नहीं पड़ता। न्यायालय चीख-चीख कर कहते हैं कि इस क्षेत्र में जितनी भी आपदाएं आती हैं, अधिकतर मनुष्य की बनाई हैं, उसी की कारगुजारी हैं, गलत नीतियों का परिणाम हैं। वैज्ञानिक और पर्यावरण के जानकार बार-बार सचेत करते हैं कि यदि इसी प्रकार प्राकृतिक नियमों की अनदेखी करते हुए वन विनाश होता रहा, जंगलों को सपाट मैदान बनाया जाता रहा, नदियों को नालों में बदला जाता रहा, इको सेंसिटिव क्षेत्रों में निर्माण कार्य होता रहा, पर्यटन के लिए सही प्रबंध किए बिना उबड़-खाबड़ तरीके से इन स्थलों पर आना जाना लगा रहा, प्रदूषण बढ़ता रहा और विकास के नाम पर शोषण होता रहा तो प्राकृतिक प्रकोप से बचना असंभव है। यह ध्यान देने की बात है कि मनुष्य की गलतियों से हिमालय पर्वत तो अपनी जगह खड़ा रहेगा लेकिन वह हमारे सभी मंसूबों पर पानी भी फेरता रहेगा।
पिछले वर्षों में लगातार इन पर्वतीय प्रदेशों में बाढ़ आती रही है। नियमों की अनदेखी कर निर्मित सड़कें, पुल, भवन और लाखों करोड़ों की लागत से बने उर्जा प्लांट इस प्रकार बहते दिखाई देते हैं जैसे कि वे मात्र खिलौने हों, इनके अस्तित्व को नकारना ही इन सब आपदाओं का मूल है।इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि विकास के लिए पर्वतीय क्षेत्रों में निर्माण ज़रूरी है लेकिन यदि उसके लिए लैंडस्केप ही बदल देंगे, वनस्पति नष्ट कर देंगे, धरती के पानी सोखने की ताकत ही खत्म कर देंगे और पहाड़ों को काटकर उन्हें बदसूरत बना देंगे तो फिर हिमालय उसका विरोध करते हुए वह सब नष्ट तो करेगा ही जो हमने उसकी अनदेखी करते हुए बनाया है। इसका अर्थ यह है कि हम हिमालय की रक्षा करने का दंभ न भरें बल्कि उसे अपने तरीके से हमारी हिफाजत करने दें।इन हिमालयी प्रदेशों में पिछले कुछ समय से कृषि और वानिकी में बहुत परिवर्तन हुआ है। 
किसान अब पारम्परिक अनाज की खेती के बजाए क्रैश क्रॉप का उत्पादन कर रहे हैं। इसके लिए उन्हें मंडी तक जल्दी पहुंचने के लिए सड़कें और आने-जाने के साधन चाहिएं। हुआ यह कि इस ज़रूरत को पूरा तो किया गया लेकिन उससे जो मलबा निकला, उसकी निकासी का इंतजाम न होने से वह नदियों में जमा हो गया। नतीजा यह हुआ कि वर्षा होते ही नदियां उफनने लगीं और बाढ़ ने पूरे इलाके को तहस नहस कर दिया। विशेषज्ञों का कहना है कि यदि सड़क निर्माण से पहले इस समस्या का निदान करने के लिए आवश्यक उपाय कर लिए जाते तो हिमालय के प्रकोप से बचा जा सकता था।