दिखावे का प्रतिरूप बनती शादियां

शादी एक वह सामाजिक रीति है, जिसके बिना समाज की संरचना कल्पना मात्र है। मगर आज यह एक बड़ी कुरीति या दिखावे का वह मायाजाल बन चुकी है, जिसके आगे अच्छे-अच्छों का दिवाला निकल जाता है। जीवन साथी, सारी उम्र का रिश्ता पहले भी निभता था, मगर उसमें से सादगी व भोलेपन के अल्फाज़ आज फिजूल के ढकोसलों में तबदील हो चुके हैं। आज शादियां सिर्फ दिखावा बनकर रह गई हैं।
भारत में प्रति वर्ष शादी ब्याह का कारोबार 1,00,000 करोड़ रुपए से अधिक का है।  भारत में लगातार मध्यम वर्ग की उन्नति करने से हर शादी का भव्य आयोजन किया जाता है। सबसे कम खर्च वाली शादी के खर्चे की बात करें तो भी इसका खर्चा 5 से 15 लाख के बीच बैठता है। एक औसत दर्जे का भारतीय परिवार शादी में 15 से 25 लाख रुपए खर्च करता है। एक औसत दर्जे का उच्च दर्जे का परिवार एक शादी में लगभग 70 लाख रुपए खर्च करता है, वहीं भारत का उच्च वर्ग एक शादी में 8 से 10 करोड़ रुपए खर्च करता है। क्या आपको पता है कि एक औसत दर्जे का भारतीय अपनी बेटी व बेटे की शादी में अपनी संचित संपत्ती का 1.5वां भाग खर्च करता है।वहीं अगर दिग्गज भारतीय परिवारों की बात करें तो सन् 2013 में स्टील मैग्नेट के नाम से मशहूर लक्ष्मी मित्तल के भाई ने अपनी बेटी श्रृष्टि की शादी में लगभग 505 करोड़ रुपए खर्च किए थे, वहीं लक्ष्मी मित्तल ने खुद अपनी बेटी वनीषा की शादी में 400 करोड़ रुपया खर्च किया था।पहले शादी घरों में होती थी। रिश्तेदार कई दिनों तक शादी का जश्न मनाते थे। इससे आपसी रिश्तों की मिठास बढ़ती थी। आजकल मध्यवर्गीय परिवार की लड़की की शादी में तो हजार के करीब लोग आमंत्रित होते हैं। जैसे राजनीतिक दल शक्ति का प्रदर्शन सभा सम्मेलनों में बड़ी भारी भीड़ जमा करके करते हैं, उसी प्रकार परिवारों की शानो-शौकत का मापदंड शादी के अवसर पर एकत्र होने वाले अतिथियों की संख्या माना जाने लगा है। दावत में जितने अधिक पदार्थ परोसे जाते हैं, खर्चा भी उसी अनुपात में बढ़ता है। रिश्तेदार घर तक तो पहुंचते ही नहीं हैं। शादी से पहले लगने वाली हल्दी में रिश्तेदार एक-दूसरे को सिठनियां देते, शादी में तुकबाज़ी बोली जाती। आज के दौर में हल्दी पर आस-पड़ोस की औरतें ही इकट्ठा होती हैं। फिर शादी वाले दिन रिश्तेदार सिर्फ और सिर्फ पैलेस में आते हैं। कई तो ऐसे-ऐसे नमूने लगते हैं कि पूछो मत। आधुनिक परिधान पहनने में बुराई नहीं। बुराई है कि उसमें आप का वजूद कैसा लग रहा है। क्योंकि एक शायर ने खूब कहा है कि ‘खाइए मन भाऊंदा ते पहनिये जग भाऊंदा’।खैर, रिश्तेदार शादी में आए, दो-चार घंटे खाया, पिया, बातें की। एक हाथ से शगुन दिया और दूसरे से मिठाई लेकर लौट आए घर को। आज तो बस यही नाम रह गया है शादियों का। बहुत बार तो लिफाफों पर नाम देखकर पता चलता है कि कौन-कौन सा रिश्तेदार आया था।आधुनिकता के ढांचे में रंगते-रंगते हमने अपने आपको ही बेरंग कर लिया। रिश्तों में बसे प्यार को लिफाफे तक सीमित कर अपने ही कल को अपने ही हाथों बर्बाद कर रहे हैं हम। एक कहावत है कि जब तक किसी शादी में कोई बुआ, फूफा, मौसा या ननद हंगामा न करे या रूठे न तो शादी, शादी नहीं मानी जाती। मगर आज इन रिश्तों को पूछता कौन है?फिर पैलेस में बनने वाले पकवान, बर्बाद हुआ खाना और शराब का बोझ लड़की के बाप की कमर तोड़ कर रख देता है। कोई पूछे कि क्या यह बेमतलब का खर्चा करवाना हमारी सभ्य सोच को दर्शाता है। झिलमिल करते लिबास पहन कर जब हम एक के बाद एक पकवान थाली में डाल-डाल कर फैंकते जाते हैं तो दूर कहीं लड़की के पिता ही नहीं बल्कि उस जगह के बाहर खड़े भूखे-नंगे बच्चे भी बददुआ ही देते होंगे। हमने रिश्तों को ही नहीं, आज अपने आपको खोखला कर दिया है। काश! शादियों में हो रहे इस बेवजह के खर्चों पर हम सब अंकुश लगा पाएं।