क्या कांग्रेस पुन: बहुसंख्यक वर्ग की ओर झुक रही है ?

राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस अपना नवीकरण करने में लगी हुई है।  अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के पूर्णाधिवेशन में नारा दिया गया है ‘वक्त है बदलाव का’। ज़ाहिर है कि इसके दो मतलब हैं। मोदी सरकार को बदलने का आग्रह करने के साथ-साथ यह कांग्रेस में हो रहे बदलावों का भी मुहावरा बन गया है। प्रश्न यह है कि क्या कांग्रेस अपने आप में परिवर्तन करते हुए उस तबदीली को अपने अतीत की कसौटी पर कसने के लिए तैयार है? पार्टी के अध्यक्ष पद से (राजनीति से नहीं) रिटायर हो चुकी सोनिया गांधी को लगता है कि भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस को मुसलमान पार्टी के रूप में चित्रित करके राहुल गांधी को ‘जनेऊधारी हिंदू’ का अवतार ग्रहण करने के लिए मजबूर कर दिया है। इससे पहले भी 2014 में लोकसभा पराजय के फौरन बाद ए.के. एंटनी ने भी कुछ ऐसी ही बात कही थी कि कांग्रेस की छवि मुसलमान समर्थक और हिंदू विरोधी बन गई है। कांग्रेस के शीर्ष नेताओं की बातें ताज्जुब में डाल देती हैं।  असलियत यह है कि कांग्रेस पिछले पैंतीस साल से ‘सेकुलर’ हिंदू पार्टी बनने के लिए भाजपा से होड़ कर रही है। बस ़फर्क यह है कि कांग्रेस साथ में मुसलमानों के वोट भी चाहती है, और भाजपा मुसलमान वोटों के बिना ही केवल हिंदू एकता के दम पर जीतना चाहती है। कांग्रेसी राजनीति के इस कथित रूप से ‘नर्म’ हिंदू-रुझान पर कई सिक्काबंद समाज-वैज्ञानिक शोध उपलब्ध हैं जो स्पष्ट करते हैं कि अस्सी और नब्बे के दशक में जो कांग्रेस ने बोया था, आज भाजपा उसी को काट रही है। मसलन, भारत के सर्वश्रेष्ठ राजनीति-विज्ञानी रजनी कोठारी ने अपनी रचनाओं में दिखाया है कि किस तरह अस्सी के दशक में सत्ता में वापिसी करने के बाद इंदिरा गांधी ने अपनी कुछ जनसभाओं में (़खासकर असम और गढ़वाल की सभाओं में) मुसलमानों की देशभक्ति पर शक किया और हिंदू भावनाओं को सहला कर उन्हें कांग्रेस की तऱफ झुकाने की कोशिश की। स्कॉट डब्ल्यू. हिब्बार्ड ने सिलसिलेवार ढंग से साबित किया है कि अस्सी के दशक में सत्ता में अपनी वापिसी के बाद इंदिरा गांधी ने कांग्रेस की सेकुलर परम्परा के विपरीत किस तरह एक ऐसे राष्ट्रवादी विमर्श को अभिव्यक्ति देनी शुरू की जो मुस्लिम पृथकतावाद के डर और हिंदुओं की हमदर्दी जीतने पर आधारित था। असहमति की प्रत्येक आवाज़ को राष्ट्रीय एकता के लिए ़खतरे के रूप में चित्रित किया गया और दावा किया गया कि केवल कांग्रेसी अभिजन ही राष्ट्र की ह़िफाजत कर सकते हैं। बहुसंख्यवादी प्रकृति के इस विमर्श में वह सब कुछ था जो हिंदू राष्ट्रवादियों के विमर्श में पाया जाता है : राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरे का डर, राष्ट्र के रूप में भारत की हिंदू जातीयतावादी अवधारणा, अल्पसंख्यकों का राक्षसीकरण।  श्रीमती गांधी ने देश के कई मंदिरों में जा-जा कर अपनी श्रद्धालु छवि उभारी (इन दिनों वे धर्मगुरुओं और बाबाओं के बीच दिखना पसंद करती थीं और अपने भतीजे अरुण नेहरू के ज़रिये इस तरह के तत्वों से उनका नियमित सम्पर्क था)। उन्होंने अपने वक्तव्यों में कहना शुरू किया कि ‘कुछ जगहों पर’ (इसका मतलब था पंजाब और कश्मीर) ‘बहुसंख्यक समुदाय का दमन किया जा रहा है’। ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद तो श्रीमती गांधी ने खुल कर कहना शुरू कर दिया कि हिंदू धर्म पर हमला किया जा रहा है और यह आक्रमण सिखों, मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों की तऱफ से आ रहा है। 1983 में कश्मीर विधानसभा चुनावों में श्रीमती गांधी ने नैशनल कांफ्रैंस को राष्ट्र-विरोधी और पाकिस्तान समर्थक चित्रित किया। इसी वर्ष दिल्ली के स्थानीय चुनाव में श्रीमती गांधी ने पंजाब और कश्मीर की घटनाओं को प्रचार का केंद्र बनाया। यही वह समय था जब कांग्रेस कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में चुनाव हार गई। नतीजतन उसके लिए उत्तर भारत में अपनी स्थिति सुदृढ़ करना अति आवश्यक हो गया। चूंकि उन दिनों भाजपा ने नया-नया गांधीवाद का दामन थामा था और वह प्रखर हिंदूवादी नहीं दिखना चाहती थी और इसी कारण से संघ उससे बहुत ़खुश नहीं था। श्रीमती गांधी ने इसका लाभ उठा कर हिंदू समर्थन को जीतने के लिए भरपूर पहलकदमी की और इसके लिए संघ के कुछ तत्वों की मदद लेने से भी परहेज नहीं किया। इस पूरी राजनीति का परिणाम यह हुआ कि साम्प्रदायिक विमर्श (जो पहले हाशिये पर पड़ा रहता था और भाजपा को भी यह दिखाने की कोशिश करनी पड़ती थी कि वह स़िर्फ हिंदूवादी नहीं है बल्कि उसे अल्पसंख्यकों की भी चिंता है) राष्ट्रीय विमर्श के रूप में भारतीय राजनीति की मुख्यधार में आ गया, और यह काम किया उस कांग्रेस ने जो सेकुलर विमर्श की वाहक समझी जाती थी। नतीजे के तौर पर साम्प्रदायिकता अस्सी के दशक में मुखर हो कर बोलने लगी। मुरादाबाद, बिहार शऱीफ, मेरठ, अहमदाबाद, बंबई और दिल्ली में हिंदू-मुसलमान दंगे हुए। पंजाब में श्रीमती गांधी ने ज्ञानी ज़ैल सिंह और जनरैल सिंह भिंडरावाले के ज़रिये अकाली दल को निष्प्रभावी करने का दांव खेला, जिसका परिणाम पंजाब के संकट में निकला। ऑपरेशन ब्लू स्टार की नौबत आई। इंदिरा गांधी अपने ही सिख अंगरक्षकों के हाथों मारी गईं। सारे देश ने बड़े पैमाने पर सिख विरोधी निर्मम हिंसा की त्रासदी झेली। सिख आंतकवाद के रूप में भारतीय राजनीति के गर्भ गृह में आंतरिक सुरक्षा की समस्या पनपी। अपनी मां की हत्या के बाद राजीव गांधी ने 1984 में ज़बरदस्त बहुमत जीता। लेकिन यह केवल हमदर्दी की ही लहर नहीं थी। उनके चुनाव प्रचार की रणनीति में राष्ट्रीय एकता-अखंडता और सुरक्षा के जोखिम में होने के डर, हिंदू आभा वाले राष्ट्रवाद, सिखों और मुसलमानों की निष्ठा पर संदेह और किसी भी ़िकस्म की असहमति और प्रतिरोध को राष्ट्रविरोधी करार देने के घटकों की प्रमुख भूमिका थी। इस नज़ारे को देख कर इकॉनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली  ने लिखा था कि राष्ट्रवाद और देशभक्ति के दावों के रूप में बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता का खेल चल रहा है। कांग्रेस ने भाजपा के वस्त्र चुरा कर पहन लिये हैं। लेकिन, कांग्रेस और भाजपा के बीच एक ़फर्क अवश्य था। भाजपा के विपरीत कांग्रेस के पास अपने सेकुलर अतीत के कारण जब चाहे मुस्लिम कट्टरपंथ का इस्तेमाल करने का अवसर भी था। कांग्रेस का यही दोतऱफा दांव पहले शाहबानो और फिर अयोध्या के मसले पर दोनों साम्प्रदायिकताओं के बीच संतुलनकारी खेल करने की तऱफ ले गया। आगे जो हुआ वह इतिहास में ब़खूबी दर्ज है। ज़ोया हसन ने अपने अनुसंधान में प्रदर्शित किया है कि 1984 से 1989 तक का कांग्रेस शासन काल हिंदू और मुसलमान साम्प्रदायिकताओं की प्रतियोगिताओं का सीधा-सीधा उदाहरण है जिसकी वजह से भारतीय राज्य की प्रवृत्तियां बहुसंख्यकवादी होती चली गईं। इसी सिलसिले की चरम परिणति कारसेवकों के हाथों बाबरी मस्जिद ध्वंस में हुई। पी.वी. नरसिम्हा राव के नेतृत्व में चल रही तत्कालीन कांग्रेस सरकार का नज़रिया इस राष्ट्रीय दुर्घटना के प्रति क्या था, इसका राजनीतिक विश्लेषण मंजू पारिख ने सिलसिलेवार पेश किया है। वे यह भी बताती हैं कि उग्र हिंदुत्व के प्रति कमज़ोर रवैया न केवल भाजपा के साथ साठगांठ करके चलने वाली राव की अल्पमत सरकार ने अपनाया, बल्कि तत्कालीन विपक्ष का तौर-तऱीका भी बंटा हुआ था।असलियत यह है कि नब्बे के  दशक में भारतीय जनता पार्टी को हुए राजनीतिक लाभ मुख्य रूप से उन हिंदू राष्ट्रवादियों के कारण मिले थे जिन्होंने अस्सी के दशक में हुई गोलबंदियों में इंदिरा और राजीव का साथ दिया था, और जिनका समर्थन नब्बे के दशक की शुरुआत से मध्य के बीच फिर से भाजपा की तऱफ चला गया। भारतीय राजनीति का साम्प्रदायिकीकरण रातों-रात नहीं हुआ, बल्कि पूरे एक दशक के दौरान होता रहा। बहुत हद तक यह हिंदू राष्ट्रवाद का विनियोग करने की कांग्रेस की तत्परता का परिणाम था। कांग्रेस अपनी इस सह-अपराधिता को सेकुलरवाद और अल्पसंख्यक समुदाय की सुरक्षा के लिए की गई बड़ी-बड़ी बातों के पीछे छुपाती रही। लेकिन यह उसकी दक्षिणपंथी लोक-लुभावनवादी रणनीति ही थी जिस पर सेकुलर आवरण डाला गया था। यह मान्यता गुमराह करने वाली है कि भाजपा और कांग्रेस दो विपरीत विचारधाराओं पर खड़ी हैं और भाजपा ने कांग्रेस को विचारधारात्मक रूप से पराजित कर दिया है। अस्सी और नब्बे के दशकों में जो हुआ वह दरअसल उस सांस्कृतिक  प्रामाणिकता के लिए दो पार्टियों के बीच हुई प्रतियोगिता थी जो कांग्रेस और भाजपा बहुसंख्यकों की साम्प्रदायिक भावनाओं को अपनी ओर झुका कर हासिल करना चाहती थीं। सेकुलर बनाम धार्मिक का मुद्दा होने के बजाय यह राष्ट्र के नाम पर हिंदू मतदाताओं को सम्बोधित करने और उनके नेतृत्व की दावेदारी की होड़ थी।  

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