अस्थायी बहुमत बनाम स्थायी बहुसंख्यकवाद

आजकल स्वयं को हिंदू हितों का प्रवक्ता कहने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। इनमें से एक किस्म उन लोगों की है, जो क़ाफी ऩफीस अंदाज़ में विचार-विमर्श की भाषा का इस्तेमाल करके अपनी बात कहते हैं। इसी तरह के बुद्धिजीवी हैं, जे. साई दीपक। दीपक ने ‘डिकोलोनियलियटी’ विमर्श का इस्तेमाल करते हुए भारत पर ब्रिटिश प्रभावों के बारे में एक पुस्तक भी लिखी है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। लेकिन चौकन्ना रहने की बात यह है कि कहीं हम पश्चिम द्वारा थमाये गये तऱीकों और तर्कों के आधार पर अपना ‘डिकोलोनाइज़ेशन’ करने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं? ़खासकर जब अंग्रेज़ी भाषा में यह विमर्श चलाया जाता है तो इस चक्कर में फंसने के अंदेशे और ज्यादा पैदा हो जाते हैं। ऐसी सूरत में हमें अलिस्टेयर पेनीकुक की वह पुस्तक याद आती है, जिसमें उन्होंने अंग्रेज़ी को ‘कोलोनियल’ विमर्शों की भाषा के वाहक की तरह चिह्नित किया है। संभवत: साई दीपक ऐसे गिनती के बुद्धिजीवियों में से एक हैं, जो मानते हैं कि भारत का उपनिवेशन एक बार नहीं बल्कि दो बार किया गया। एक बार हमलावर मुसलमानों द्वारा और दूसरी बार अंग्रेज़ों द्वारा, जो कि ईसाई थे। इस तरह की बात एस.एन. बालगंगाधर जैसे स्थापित बुद्धिजीवी द्वारा भी की जा रही है। हालांकि यह बात इन बुद्धिजीवियों ने मान ली है कि मुसलमानों के शासन का प्रभाव और अंग्रेज़ों के शासन के प्रभाव में बहुत बड़ा अंतर था। मुस्लिम शासन भारतीय समाज में बड़े पैमाने का सांस्कृतिक परिवर्तन करने में नाकाम रहा, जबकि ब्रिटिश शासन ने भारतीय समाज और उसकी संस्कृति को बुनियादी तौर पर बदलने की मुहिम चलाई। क़ाफी हद तक वे इसमें कामयाब भी रहे। मेरे विचार से इस थोपे गये परिवर्तन के दो मुख्य औज़ार थे। पहला औज़ार था अंग्रेज़ी भाषा का और दूसरा पश्चिमी सामाजिक सिद्धांत का। इन दोनों ने भारत के बौद्धिक मानस पर तकरीबन स्थायी रूप से कब्ज़ा कर रखा है। इसका एक प्रमाण हाल ही में जे. साई दीपक द्वारा लिखे गए एक लेख में भी देखा जा सकता है।  
 इंडियन एक्सप्रेस में छपे एक लेख में साई दीपक ने दावा किया है कि हिंदुओं पर बहुसंख्यकवादी होने का आरोप लगाना लोकतंत्र की संविधान सम्मति की परिभाषा का ही बुनियादी उल्लंघन है। इस लेख में साई दीपक ने स्वयं को हिंदुओं के ‘सिविलाइज़ेशनल’ हितों के प्रवक्ता की तरह पेश किया है। उन्होंने मनोविज्ञान के एक ़खास शब्द ‘गैसलाइट’ का इस्तेमाल करते हुए समझाने की कोशिश की है कि बहुसंख्यकवादी होने का लांछन दरअसल एक हथकंडा है। इसके ज़रिये हिंदुओं को ‘गैसलाइट’ किया जाता है, यानी उन्हें एक सभ्यता के रूप में अपनी स्मृति, बोध और यथार्थ पर ही संदेह करने की तरफ धकेला जाता है। अंग्रेज़ी में लिखे गए इस लेख में कई तरह के तर्क हैं, लेकिन मेरा वास्ता यहां केवल दो बातों से है। इनमें पहली है बहुसंख्यकवाद की धारणा के संदर्भ में संविधान और लोकतंत्र की परिभाषा। और दूसरी है ‘सिविलाइज़ेशन’ की धारणा, जिसे साई दीपक विशेष रूप से पसंद करते हैं। मेरा विचार है कि ‘मैजोरिटेरियनिज़म’, ‘मेजोरिटेरियन विल’ और ‘सिविलाइज़ेशन’ जैसे अंग्रेज़ी शब्दों का जो मतलब साई दीपक ने निकाला है, उनका अर्थ कुछ और भी हो सकता है। अगर वे किसी भारतीय भाषा में इनका अर्थ-निरूपण करते तो उनकी समस्या न केवल सुलझ जाती, बल्कि वे लोकतंत्र के संविधान में लिखे मतलब और उसकी व्यावहारिकता के बीच अंतर्विरोध को भी समझ जाते। इसी तरह उन्हें प्राचीन काल से चले आ रहे भारतीय समाज पर 18वीं शताब्दी के यूरोप में विकसित किये गये ‘सिविलाइज़ेशन’ के विचार को लागू करने की सीमा भी दिख जाती।  
मसलन, लोकतंत्र और संविधान के संबंध को समझने के लिए अंग्रेज़ी के विपरीत हिंदी हमें दो शब्द देती है। अर्थात, संविधान हमारे सामने शासन चलाने के जिस उसूल को पेश करता है, वह बहुमत का सिद्धांत है, बहुसंख्यकवाद का नहीं। लोकतंत्र में बहुमत हमेशा अस्थायी होता है और उसे अस्थायी ही होना चाहिए। वह कभी भी अल्पमत में बदल सकता है और अल्पमत कभी भी बहुमत बन सकता है। इसके विपरीत बहुसंख्यकवाद स्थायी बहुमत की धारणा है। जाति, धर्म, समुदाय, भाषा और जातियता के आधार पर नेताओं, पार्टियों और विचारधाराओं द्वारा स्थायी बहुमत की कल्पना की जाती है। उसे साकार करने के लिए तरह-तरह के आंदोलन किये जाते हैं, नारेबाज़ी होती है और टकरावों को जन्म दिया जाता है। यह केवल भारत में ही नहीं होता, बल्कि सारी दुनिया के लोकतंत्रों में यह प्रक्रिया चलती है। 
दरअसल, हर लोकतंत्र में लाज़िमी तौर पर एक बहुसंख्यकवादी आवेग होता है। यह मानना एक ़गलत़फहमी है कि यह आवेग कभी ़खत्म किया जा सकता है। यह तो लोकतांत्रिक स्वभाव के नेताओं और पार्टियों का काम है कि वे इस बहुसंख्यकवादी आवेग को दुष्ट न बनने दें और सौम्य बनाये रखें। मेरा मानना है कि 80 के दशक तक भारतीय लोकतंत्र में इस आवेग को दुष्टता की तरफ झुकने से रोकने में सफलता मिलती रही। लेकिन उसके बाद यह आवेग धीरे-धीरे अनियंत्रित होता चला गया। अगर बहुसंख्यकवाद के आईने में देखा जाए तो भारतीय राजनीति उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के ज़माने से ही तरह-तरह के बहुसंख्यकवादों की प्रतियोगिता रही है। इस लिहाज़ से केवल हिंदू बहुसंख्यकवाद की आलोचना करना उचित नहीं है। पंजाब में सिखों के, कश्मीर घाटी में मुसलमानों के और उत्तर-पूर्व में ईसाइयों के बहुसंख्यकवाद को नज़रअंदाज़ करने से हिंदू बहुसंख्यकवाद को अपना ‘विज़िटमहुड’ ही पुष्ट करने का म़ौका मिलता है। इस मुकाम पर समाज-वैज्ञानिक राजेंद्र वोरा की वह रचना भी याद करने योग्य है जिसके तहत उन्होंने बहुजन थीसिस को ‘कास्ट मेजोरिटेरियनिज़म’ के रूप में व्याख्या किया था। कहना न होगा कि बहुजन थीसिस के मर्म में पिछड़ी और दलित जातियों को ‘धर्मपरिवर्तित’ मुसलमानों से जोड़ कर एक स्थायी बहुमत बनाने का प्रस्ताव ही है। 
इसी तरह हमें यह भी सोचना चाहिए कि भारत को एक ‘एंशिएंट सिविलाइज़ेशन’ कहना कहां तक सही है। भारत प्राचीन तो निश्चित रूप से है, लेकिन क्या वह यूरोप द्वारा थमाये गये अर्थों में सिविलाइज़ेशन है? 19वीं शताब्दी में स्थिति यह थी कि हिंदी में सभ्यता (जो आज सिविलाइज़ेशन का अनुवाद माना जाता है) का अर्थ कुछ और था। तब सभ्य उन्हें कहा जाता था, जो सभा में भाग लेते थे। युरोकेंद्रीयता के छिपे-खुले आग्रहों के प्रति सतर्क होकर सोचने वाले बहुत से विद्वानों का मानना है कि पश्चिमी सभ्यता के बौद्धिक आविष्कार के बाद ही उसके रुतबे के तले हम सब अपने-अपने समाजों के इतिहास को सभ्यता के रूप में देखने लगे। इस रुतबे के कारण ही हमने अपनी वैचारिक श्रेणियां ईज़ाद करनी बंद कर दीं। अपने को सभ्य या सभ्यतामूलक कहने से हमें अपनी श्रेष्ठता का बोध होने लगा। पश्चिम को इससे सुविधा यह मिली कि उसने आधुनिक और पारम्परिक सभ्यता की दो श्रेणियां बना कर ़गैर-यूरोपीय दुनिया को परम्परा के खाने में डाल दिया। उसका दावा यह बना कि उसने तो अपनी प्राचीन ग्रीको-रोमन सभ्यता का आधुनिकीकरण कर लिया, लेकिन ब़ाकी दुनिया अपनी प्राचीनता का आधुनिकीकरण करने की होड़ में सदा के लिए फंसने के लिए अभिशप्त हो गई। 


लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।