देश को बड़ी गहरी पीड़ा दे गए थे मुहम्मद अली जिन्ना

लाखों निर्दोष लोगों की हत्या, करोड़ों बसे बसाए घर उजड़े, इधर शरणार्थी उधर मौहाजिर, भारत का बंटवारा हो गया। आज से 70 वर्ष पूर्व दिए गए ज़ख्मों की पीड़ा को जागृत करने का प्रयास अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इस सारे किए धरे की ज़िम्मेदार मुहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर ही कही जा सकती है। घृणा का जिन्न किसी न किसी रूप में बोतल से बाहर आ ही जाता है। होना तो चाहिए था कि हिन्दू-मुस्लिम में संबंधों को मधुर बनाने की कोशिश होती, समय तो है खाई पाटने का परंतु ऐसा होता दिखाई न दिया। मुहम्मद अली जिन्ना कुछ लोगों के लिए नायक हो सकता है, परन्तु बहुसंख्यक लोग उसे एक खलनायक ही मानते हैं। नफरत के लिए कुछ लोग इधर-उधर से बहाने तलाश ही लेते हैं। यूं कह लीजिए कि हर कोई खरीदार है इस बाज़ार का। बात कहां से शुरू हुई और कहां तक जा पहुंची थोड़ी सी इस पर भी चर्चा करें तो कई बातें इतिहास के पन्नों से बाहर झांकने लगती हैं। हम उस काले दौर के काले पन्नों को पलटना नहीं चाहते क्योंकि पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा भी था कि मित्र बदले जा सकते हैं, पड़ोसी नहीं। इसलिए हमसाए द्वारा की गई सभी ज्यादतियों को भूल कर मोहब्बत का रास्ता अपनाना चाहिए। पूर्व उप-प्रधानमंत्री लाल कृष्ण अडवानी ने एक बार कराची की यात्रा के समय मुहम्मद अली की मज़ार पर जाकर हाज़िरी दी परन्तु जब जिन्ना को जनप्रिय नेता कहा तो सारी बात बिगड़ गई, जिसकी कीमत आज तक अडवानी जी चुका रहे हैं। अलीगढ़ के सांसद सतीश गौतम ने ए.एम.यू. के कुलपति तारिक मंसूर को पत्र लिखा और उनसे पूछा कि वह बताएं कि उन्होंने विश्वविद्यालय में भारतीय समाज में घृणा की दीवार खड़ी करने वाले राजनेता की तस्वीर क्यों लगा रखी है? जिन्ना की तस्वीर भारतीय विश्वविद्यालय में किस मजबूरी से सजा-संवार कर लगाई गई है। तारिक मंसूर साहिब का अभी तक कोई उत्तर तो मिला नहीं, जबकि यूनिवर्सिटी के मुस्लिम युवा शिक्षार्थियों ने यह कह दिया कि यह तस्वीर सन् 1938 से लगी हुई है, तब देश भी एक था, उसके टुकड़े नहीं हुए थे परन्तु जब देश में खाक और खून का खेल खेला गया तब जिन्ना भारतीय जनता के लिए घृणा का पात्र बना इसकी तस्वीर से पुराने ज़ख्मों पर पुन: नाखून मारने जैसी बात हो गई है। आज अलीगढ़ में तनावपूर्ण माहौल बना हुआ है और इन चिंगारियों को शोला बनाने वाले जो घी डालने का काम कर रहे हैं, उनमें सुधींद्र कुलकर्णी जैसे लोग आगे नज़र आते हैं। हमें मणिशंकर अय्यर जैसे लोगों से कोई शिकायत नहीं, वे तो नफरत और पथ भ्रष्ट राजनीति के पुतले ही कहे जाते हैं। मणिशंकर अय्यर ने इन दिनों लाहौर जाकर जिन्ना की प्रशंसा में ऐसे कसीदे पढ़े कि पूछिये मत वैसे तो समाजवादी पार्टी के एक सांसद ने भी अपनी जुबान से जिन्ना को राष्ट्रीय हीरो बनाने का कुप्रयास किया है। सन् 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई। अंग्रेज़ इस बात पर प्रसन्न हुए कि ‘बांटों और राज करो’ वाली नीति का पहला पग  भारतीय समाज में रख दिया गया। सन् 1857 की आज़ादी के लिए लड़ी गई पहली जंग में हिन्दू और मुस्लिम एक साथ कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेज़ों के खिलाफ खड़े हुए थे। बहादुर शाह जफर और तांत्या टोपे सभी अंग्रेज़ों को भारत से निकालने के लिए सिर-धड़ की बाज़ी लगा रहे थे। आज़ाद हिन्द फौज में भी ढिल्लों, सहगल, शाह नवाज़ अंग्रेज़ों से आज़ादी लेने के लिए मरने -मारने पर तुले थे। अश्फाक उल्लाह और चंद्र शेखर आज़ाद सभी ‘सरफरोशी की तमन्ना’ के लिए एक साथ सर से कफन बांधे अंग्रेज़ों से लोहा ले रहे थे। यह बात अंग्रेज़ों को परेशान कर रही थी। सन् 1916 में जब कांग्रेस और मुस्लिम लीग एक समझौते के अधीन स्वतंत्रता संग्राम में उतरने का मन बनाए थे, तब उनकी नज़र इंग्लैंड से बैरिस्टर बनकर आए मुहम्मद अली जिन्ना पर पड़ी। 
महात्मा गांधी सन् 1915 में भारत में आए तब कांग्रेस में निराशा के स्थान पर आशा की किरण फूटी और सन् 1916 में मुहम्मद अली जिन्ना कांग्रेस में शामिल हो गए। मुहम्मद अली जिन्ना जिनके बारे में इतिहासकार लिखते हैं कि उनको इस्लाम का रत्ती भर भी ज्ञान नहीं था वह चेन स्मोकर तो थे ही, मदिरापान का शौक रखते थे। उन्होंने अपने जीवन में न कभी नमाज़ पढ़ी, न रोजे रखे और न ही हज किया। वह आधे मुस्लिम और आधे पारसी थे। मज़े की बात तो यह है कि उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एक बार भी जेल यात्रा नहीं की। वाक्पटुता के कारण वह कांग्रेस के नेताओं के समीप रहे और अंग्रेज़ सरकार ने उनके लिए नरम रुख अपनाए रखा। वह कहा करते थे कि हिन्दू और मुस्लिम दो भिन्न संस्कृतियां हैं। यह तेल और पानी का मिलाप नहीं हो सकता। वह शिया परिवार में जन्मे पले-बड़े हुए परन्तु सुन्नी कहलाने में अपनी राजनीति को सहज आगे बढ़ाना उन्हें अच्छा लगता था। इनकी पहली बीवी के इंतकाल के बाद 42 वर्ष की आयु में 18 वर्षीय पारसी लड़की रतन बाई से निकाह कर लिया। जबकि उनकी बहन फातिमा जिन्ना अंतिम श्वास तक कुंवारी रही। अंग्रेज़ों ने चुनाव के लिए जो खाका खींचा था उसके अनुसार हिन्दू सीटों पर हिन्दू और मुस्लिम सीटों पर मुसलमानों को चुनाव लड़ने का आदेश दिया। मुस्लिम सीटों पर ज्यादातर मुस्लिम लीग के उम्मीदवार विजयी रहे। इस बात से मुस्लिम लीग उत्साहित होकर मुहम्मद अली जिन्ना जो सन् 1940 से मुस्लिम लीग के रहनुमा बन चुके थे, अंग्रेज़ों ने उनकी बात माननी शुरू कर दी और उन्होंने मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग रख दी। 14 अगस्त, 1947 को पाकिस्तान वजूद में आ गया। उसके पहले गवर्नर जनरल मुहम्मद अली जिन्ना को बनाया गया, जिन्हें मुस्लिम लीग कायदे-आज़म और बाबा-ए-कौम कहकर सम्मान देती थी। दूसरी तरफ कट्टरवादी मुस्लिम युवक इनकी हत्या करने के लिए कई प्रयास करते रहे। पाकिस्तान के वज़ीर-ए-आज़म लियाकत अली खां  की जब हत्या हो गई तब से मुहम्मद अली जिन्ना ने अवामी माहौल से दूरी बना ली। वे इतना डरे हुए थे कि किसी भी जनसभा और जनतक कार्यक्रम में जाना भी छोड़ गए थे। कट्टरवादी मुस्लिम इन्हें इस्लाम का गद्दार कहने लगे थे। ऐसे व्यक्ति की तस्वीर भारतीय समाज के लिए आदर्श कैसे हो सकती है? हम समझते हैं कि तस्वीर तो महज़ एक बहाना है। भारतीय समाज उस सोच पर चिंतित है, जो इस तस्वीर के बहाने मुस्लिम युवकों में धीरे-धीरे दाखिल हो रही है। उस मानसिकता पर गम्भीरता से चिन्तन करने की आवश्यकता है। देश की एकता और अखंडता के साथ सर्व धर्म सम्भाव को बनाए रखने के लिए जिन्ना की विचारधारा से मुस्लिम युवा शक्ति को बचाने की ज़रूरत है। तस्वीर के रहने अथवा उतरने से कोई अंतर नहीं पड़ता, अपितु ध्यान देना होगा उस कट्टरवादी सोच पर जो भारतीय समाज में घृणा को फलने-फूलने से रोके।