भ्रम और यथार्थ में घिरी है हमारी चिकित्सा व्यवस्था


असमानता, बेरोज़गारी के दायरे से बाहर निकलना एक नागरिक की अनिवार्य ज़रूरत तो है ही, शिक्षा और स्वास्थ्य का क्षेत्र भी एक स्वतंत्र, विकासशील देश में कम महत्त्वपूर्ण हिस्सा नहीं है। एक बीमार आदमी के लिए रोगमुक्त होना, जीवन की पहली प्राथमिकता होगी। इसलिए ईश्वर के बाद एक डाक्टर को समाज में उच्चासन दिया जाता है। किसी भी देश में स्वास्थ्य सेवा प्रणाली का पहला काम बिना किसी भेदभाव के अपने नागरिकों की स्वास्थ्य चिंता है और होनी चाहिए। दया राम वर्मा की किताब, चिकित्सा की अनकही दास्तां, बताती है कि अधिक विकसित व्यवस्था में चिकित्सक सिर्फ रोग होने पर देखभाल करने तक सीमित नहीं होता, वह स्वास्थ्य का रखवाला होता है। मरीज़ों की सेवा के हर अवसर से चिकित्सक भौतिक लाभ हासिल कर लेते हैं। वे सेवा अच्छी करें या बुरी, पैसा ज़रूर कमा लेते हैं। मरीज़ को बाद में ही पता चल पाता है कि उसका इलाज सही हुआ या गलत। यही वजह है कि चिकित्सा में भ्रम और यथार्थ, तार्किकता और अतार्किकता, विज्ञान और आध्यात्मिकता का जितना घालमेल होता है और दोनों पहलू खुद को दूसरे से जितना श्रेष्ठ दिखाते हैं, उतना किसी दूसरे क्षेत्र में नहीं होता। थाने स्वास्थ्य एक ऐसा क्षेत्र साबित हो रहा है, जिसमें मुनाफाखोरी तो है परन्तु सवाल यह है कि जीवन से सबसे ज़रूरी स्वास्थ्य सुविधा का उपयोग केवल मुनाफाखोरी के लिए क्यों हो रहा है?
आज की भागदौड़ भरी दुनिया में ऊपर उठने, कम समय में ज्यादा कुछ पाने की दौड़ में सांस लेने, आराम करने की सुविधा को भी छीनने का प्रयत्न किया है। ऐसे में बीमार होना। (शारीरिक और मानसिक दोनों स्तरों पर) मनुष्य की नियति (डेस्टिनी) बन चुका है। इस चूहा दौड़ ने 90 प्रतिशत लोगों को बीमार होने की अनिवार्यत: प्रदान की है।
नगरों में बड़े-बड़े प्राइवेट अस्पताल खुले हैं परन्तु अब दौड़ उन अस्पतालों की तरफ है जिनके पास पांच सितारा होटल जैसी सुविधाएं हैं और जो पैसे वालों को बेहतरीन उपचार गारंटी दे रहे हैं। देखा-देखी मध्य वर्ग का आदमी हैसियत नहीं होते हुए भी कज़र् उठाकर भी उधर की तरफ भागता है और ज्यादा बीमार हो जाता है। दया वर्मा के अनुसार, ‘इलाज उन उपभोक्ता सामानों की तरह नहीं हो सकता जिन्हें दूर किसी औद्योगिक केन्द्र से पहुंचाया जाए। इलाज बीमार के पास उपलब्ध हो तो उसका लाभ उठाया जा सकता है, खास कर जब बीमारी गम्भीर है। भारत जैसे देशों में कहते हैं, जहां आम लोगों के लिए स्वास्थ्य सेवाएं सहज उपलब्ध न हो-उनका हाल बुरा हो और अत्याधुनिक, मुनाफाखोर अस्पताल बड़े-बड़े शहरों में ही केन्द्रित हों, वहां वंचित आबादी के पास चारा नहीं होता। वैद्य के पास जाना हर हाल में आधुनिक चिकित्सा से सस्ता पड़ता है। उन्होंने चिकित्सा की दास्तान भी सुनाई। एक चिकित्सा विज्ञान की शुरुआत अध्यात्मवाद के रूप में थी और इसकी प्रसव पीड़ा अभी समाप्त नहीं हो पाई है। इस स्थिति के कारण तर्क-परक उपचार पर जिस तरह की सीमाएं हैं उनके चलते चिकित्सा में उचित अनुचित दोनों का अस्तित्व अभी कायम है।
अब जब हर क्षेत्र में राजनीति का बोलबाला है, क्या विज्ञान या फिर चिकित्सा का क्षेत्र ही अराजनीतिक हो सकता है? कहते हैं विज्ञान न तो पूरी तरह अराजनीतिक हो सकता है और न ही उसे होना चाहिए। विज्ञान तटस्थ नहीं हो सकता। उसका सामाजिक प्रभाव अमल के दौरान ही खुलता है। 1959 में जब प्रो. ईयान डोनल्ड ने प्रसूति विज्ञान में अल्ट्रासाऊंड के प्रयोग की शुरुआत की जिससे गर्भावस्था की सम्पूर्ण देखभाल हो सके परन्तु क्या पता था कि इसका सबसे अधिक प्रयोग लिंग पहचानने के लिए होगा और खास कर हमारे ही मुल्क में। जहां लाखों लड़कियां जन्म से पहले मृत्यु के घाट उतार दी गई।