"कोई सूरत नज़र नहीं आती"

आज के दिन, 15 अगस्त, 1947 को विदेशी गुलामी से छुटकारा पाने की देशवासियों को हार्दिक बधाई देता हुआ कुछ आशंकाएं ज़रूरी साझी करना चाहता हूं। आशा है कि इन आशंकाओं पर मेरे देशवासी, खास करके नौजवान पीढ़ी ज़रूर ध्यान देगी। पहली बात यह है कि यह आज़ादी कोई सस्ती नहीं मिली। वर्ष 1875 से दशकों के बाद के संघर्ष में अनेक आज़ादी के परवाने शहीद हुए। मार-पीट हुई, अमानवीय यातनाएं झेलीं, कुर्कियां हुईं, तोपों के आगे से उड़ाए गए, हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ गए। जब 1947 में देश आज़ाद हुआ तो सीमा के दोनों ओर लाखों की संख्या में लोग बेघर हो गए, कई स्थानों पर रेलगाड़ियों की सभी सवारियां कत्लेआम का शिकार हो गई, महिलाओं का अपमान हुआ। आज के दिन उन शहीदों, आज़ादी के परवानों को याद करते हुए और उनको जिनका जीवन बर्बाद हो गया और दर-दर की ठोकरें खाईं, को महसूस करते हुए दिल भर आता है। इस तरह महसूस होता है कि अगर वह आज़ादी के परवाने यह कुर्बानियां न देते तो क्या हम स्वतंत्र समाज में अपनी आज़ादी को भोग सकते थे।
हम विदेशी गुलामी से आज़ाद तो हो गए लेकिन आशंका यह है कि हम इस आज़ादी को सम्भाल नहीं सके। जिस आज़ाद देश में आज़ाद समाज की आशाएं और सम्भावनाएं थी, वह पूरी नहीं हुई। हमारी गुलाम मानसिकता ने हमारा पीछा नहीं छोड़ा। हमारे माता-पिता, हजूर, गरीब निवाज़ की सोच वहीं की वहीं रही। आत्म-विश्वास और खुद्दारी ने सांस ही नहीं ली। इससे आज़ाद मानसिकता पनप ही नहीं सकी। परिणामस्वरूप शासकों के अभिमान में और अधिक वृद्धि होती गई और राजनीतिक नेता, राजाओं की मानसिकता को धारण करते गए। परिणाम यह है कि अफसर अधिकारी आम आदमी की पहुंच से बाहर हो गए। वही डर जो अंग्रेज़ों के समय था, आम आदमी उससे भी अधिक परेशान हो गया और एजेंटों-बिचोलों की श्रेणी पैदा हो गई, जिससे बेईमानी और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला। राजनीतिक लोगों ने भी बहती गंगा में हाथ धोने शुरू कर दिए और आखिर में अफसरों, शासकों पर काबू पाए गए और भ्रष्टाचार, बेईमानी, भाई-भतीजावाद पूरी तरह अपनी जड़ें पकड़ने लगा। अब हालात यह है कि ‘कोई सूरत नज़र नहीं आती, कोई उम्मीद भी नहीं आती।’ लोगों की मानसिकता यह बन गई है कि रिश्वत देकर ही काम होना चाहिए, चाहे वैध हो या अवैध, पैसों की होड़ लग गई है। भ्रष्टाचार, बेईमानी कोई मुद्दा नहीं रहा। यही एक ही कारण है कि हमें जनता को और हमारे शासकों-प्रशासकों को अपनी ज़िम्मेदारियों का सही अर्थों में एहसास ही नहीं हो रहा। हम विकसित देशों में अनुशासन और सुविधाओं की तारीफ करते हैं। उन देशों की और दौड़ते हैं। सवाल यह है कि हमारे देश में यह अनुशासन और ज़िम्मेदारी क्यों नहीं पैदा हो सकती?
इसका सबसे बड़ा कारण है कि हमारा राजनीतिक वर्ग और नेताओं ने शुरू से ही अपनी ज़िम्मेदारी को ईमानदारी से नहीं समझा, निभाना तो दूर की बात है। निजी स्वार्थ हावी हो गया है। इस पैसों की दौड़ में कोई परवाह नहीं करता कि दूसरों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, देश समाज का क्या नुक्सान हो रहा है। चीज़ों, वस्तुओं में ़खतरनाक मिलावट, चाहे लोग बीमार हों, मरे-जियें, कोई परवाह नहीं। नकली दूध, तेज़ाब, यूरिया आदि डालकर बनाए जाते हैं, खोये की बनी मिठाइयों से डर लगता है। घटिया तेल का प्रयोग करते हैं और फलों-सब्ज़ियों को कैमिकल्स वाले पानी में धोया जाता है। फलों को ़खतरनाक कैमिकल्स पाऊडर में पकाया जाता है। सुंदर दिखाई देने वाले फलों को जैसे कि आम आदि को टीके लगाए जाते हैं। इन गलत कामों में कोई हिचकिचाहट नहीं, क्योंकि जांच करने वाले अधिकारी अपना हिस्सा लेकर आंखें मूंद लेते हैं।
सड़कों पर कोई अनुशासन नहीं, ‘मैं पहले’ की मानसिकता अभी भी बनी है। फाटक बंद हो जाए तो चार-चार लाइनें दोनों ओर बन जाती हैं। कोई किसी को रास्ता नहीं देता। सभी ही अकड़ कर खड़े हो जाते हैं, एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में सभी लेट हो जाते हैं। अनुशासन और ज़िम्मेदारी नाम की कोई चीज़ ही नहीं है। इससे ज्यादा पुलिस खड़ी तमाशा देखती रहती है। मैं ईमानदारी से कहता हूं कि मैंने तीन दर्जन से अधिक देशों को देखा है। लेकिन हमारे लोगों जैसे अनुशासनहीन और ़गैर-ज़िम्मेदार लोग कहीं नहीं। हमारी आज़ादी यह हो गई है कि जहां मज़र्ी थूक दो, जहां कहीं कागज़, गंदगी फैला दो चाहे सड़क हो, नदियां-नहरें या पानी से भरा कोई भी तालाब, बस में गंदगी फैलाओं प्रदूषित करो उसको, कोई भी रोकने वाला नहीं। लाल बत्ती को बिना देखे निकल जाना तो मामूली बात है। बशर्ते पुलिस न खड़ी हो। अगर पकड़े भी जाओ तो क्या कर लेंगे, कोई चार पैसे दो या किसी राजनीति से संबंधित व्यक्ति को फोन कर दो, बस मामला निपट गया। कुछ राजनीतिक लोगों, पुलिस अफसरों/कर्मचारियों की मिलीभगत से नशीले पदार्थों का प्रकोप बढ़ रहा है। जहां तस्कर करोड़पति होते गए, वहीं नवयुवक नशों के जाल में फंस गए। इन घातक नशों में भी मिलावट होनी शुरू हो गई। नशेड़ी मरने शुरू हो गए। स्कूलों-कालेजों के विद्यार्थियों को भी इन तस्करों ने नहीं बख्शा और छोटी उम्र जवानी में ही कुछ विद्यार्थी भी नशों की मार में आ गए, साथ ही शिक्षा संस्थाओं, स्कूलों, कालेजों का व्यापारीकरण होने से और सरकारी कार्यालयों में पैसे की कमी के कारण शिक्षा का स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता गया। आज हालात यह है कि जिस भी माता-पिता का दांव लगता है अपने बच्चों को विदेश भेज रहे हैं, इसका कारण यहां शिक्षा का गिरता स्तर और आगे कोई नौकरी या काम की आशा न होने से विदेशों में पढ़ाई करने को प्राथमिकता दी जा रही है कि इसका एक कारण यह भी है कि माता-पिता अपने बच्चों को नशों से बचाने के लिए भी विदेशों में भेज रहे हैं। यह भी यकीन नहीं कि यहां कब किसी नौजवान पर पुलिस केस डाल दे।
हज़ारों-करोड़ों का पैसा भी नौजवानों के साथ बाहर जा रहा है। इस प्रकार न तो माता-पिता चाहते हैं और न ही बच्चे चाहते हैं कि वह अपनी पढ़ाई पूरी करके वापस अपने देश आएं। इससे देश को ही आर्थिक नुक्सान हो रहा है। इस बदकिस्मती का प्रकोप पंजाब में सबसे अधिक है, क्योंकि यहां सरकार की कोई प्राथमिकता नहीं की कि इस समस्या का समाधान किया जाए। सरकार ऋणों के जाल में पूरी तरह फंसी है और कोई दूरदृष्टि भी नहीं कि इस जाल में से कैसे निकला जाए, बल्कि और ऋण लेकर अधिक ऋणी हो रही है।  अगर इन ऋणों का पैसा शिक्षा या स्वास्थ्य पर खर्च हो और बुनियादी ढांचे को प्रफुल्लित करने पर खर्च न हो तो प्रांत उन्नति की ओर बढ़ सकता है। लेकिन बदकिस्मती यह है कि ऋण लेकर पैसा तबाह किया जा रहा है। वैसे जो सरकार बेबुनियादी और पूरे न हो सकने वाले वायदे करके या लोगों को मुफ्त चीनी, घी, चाय पत्ती आदि देकर वोट लेकर सत्ता में आई हो, उससे कोई आशा रखना भी किसी मूर्खता से कम नहीं। बाकी बात, हम विदेशी गुलामी से आज़ाद हुए हैं, लेकिन अपनों के गुलाम होकर रह गए हैं। सही आज़ादी अभी कोसों दूर है। भगवान भला करे।