मोदी सरकार की राह कठिन है

लोकतंत्र का रास्ता सदा एक जैसा नहीं होता। कभी ऊबड़-खाबड़ और कभी कांटों भरा होता है। परन्तु सजग जनता की सूझबूझ, जागरुकता और पहरेदारी इसे पतन की तरफ जाने देने से रोकने में काफी मददगार हो सकती है और हुई है। भारतीय अगर आपात्काल के कठोर बंधनों को तोड़कर खुले में सांस लेने की अपनी क्षमता बहाल कर सकते हैं तो किसी भी संकट का सामना कर सकते हैं। 2019 के चुनाव का बिगुल बज चुका है। सरकार और विपक्ष दोनों चुनौतियां फैंक रहे हैं। सरकार जन-कल्याण की नई-नई घोषणाएं कर रही है। विपक्ष कमियां गिनवा रहा है और उन वायदों को याद दिला रहा है जो किये तो थे परन्तु पूरे नहीं हुए। यह लोकतांत्रिक देश है। स्वतंत्र देश है। लगातार टैक्स देने वालों की जमात में इज़ाफा हुआ है। महंगाई बढ़ती चली गई है। लोगों ने उसे बर्दाश्त किया कि देश में विकास हो रहा है। परन्तु असमानता और गरीबी कम हुई नहीं। सामाजिक असंतुलन कई सवाल पूछ रहा है। कुछ दिन पहले दिल्ली में दो से आठ वर्ष तक की तीन बच्चियों की भूख से मौत हो गई। बच्चों की मां बीमार, पिता शराबी। डाक्टरों के लिए सुनिश्चित करना कठिन हो गया कि महिला किसी मानसिक बीमारी से ग्रस्त है या बौद्धिक कमजोरी की शिकार है। इसका मतलब है कि अभावग्रस्त जीवन ने उसे ऐसा बना दिया है।इस दुर्घटना से और कुछ सिद्ध हो न हो यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारा विकास, हमारी समृद्धि हमारी जन कल्याण योजनाएं किस कद्र एकांगी है। यदि सफलता का मानदंड फोर्ब्स के आंकड़े हैं तो अधिक समृद्धों की सूची में भारतीयों की संख्या बढ़ रही है। भारत के पचास लोगों की सम्पत्ति एक अरब डॉलर से अधिक है। प्रकाश के पीछे का अंधेरा यह है कि दो दशकों में तीन लाख किसान आत्महत्या कर गये। यह भाजपा की सरकार पिछला तीन दशकों में सबसे मजबूत सरकार के रूप में पैदा की जा रही है। किन्तु आज उसे अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। किसान अपनी विवशता से और युवा वर्ग बेरोज़गारी से असंतुष्ट था और अब भी है। राफेल रक्षा सौदे में कांग्रेस लगातार हमले कर रही है और सुप्रीम कोर्ट में वे लोग कोई गुल खिलने का इंतजार कर रहे हैं। सी.बी.आई. संस्था में जो घमासान मचा है वह अभूतपूर्व है। आज तक इसके भीतर का ऐसा गृह युद्ध सामने नहीं आया। भारतीय रिज़र्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने केन्द्रीय बैंक में सरकार के दखल की बात सार्वजनिक रूप से कहकर जिस विवाद को आरम्भ कर दिया था उसकी तल्खी बढ़ी है। वित्त मंत्री अरुण जेतली ने दस लाख करोड़ के बट्टे खाते के कर्ज के लिए रिजर्व बैंक को ज़िम्मेदार ठहराया है। दोनों अंग जिनका ये दोनों उच्च पदाधिकारी प्रतिनिधित्व करते हैं हमारी अर्थ-व्यवस्था के उच्च स्तरीय हिस्से हैं। जिनके बीच कोई भी विवाद अनावश्यक रूप से संदेह को जन्म देता है वह भी ऐसे वक्त में जब विपक्ष और सत्ता के बीच तीखी तलवारें खिंची है। रिजर्व बैंक वित्त मंत्रालय के बीच ऐसी लड़ाई कभी नहीं छिड़ी। अफवाहों के विस्तार की जगह तो बनेगी ही। सरकार की इच्छा है कि रिज़र्व बैंक ब्याज दरों में कटौती कर जनता को कुछ राहत दे। जबकि केन्द्रीय बैंक को इस वक्त यह कदम मुनासिब नहीं लगता। नरेन्द्र मोदी के सामने राहुल गांधी की स्वीकार्यता उतनी बन नहीं पाई। चैनलों के लोकप्रियता के आंकड़े यही दिखा रहे हैं। मंिदर विवाद अपनी जगह है। नरेन्द्र मोदी से अपेक्षायें बढ़ी हैं। अगले कुछ समय में काफी चीजें ज्यादा स्पष्ट होने वाली हैं। गठबंधन के नहीं होने से भाजपा की पोजीशन बेहतर ही होगी।