पतली पड़ रही है ओज़ोन की परत

पृथ्वी के वायुमंडल की निचली परत ‘ट्रोपोस्फीयर’ है, जो 10 किलोमीटर की ऊंचाई तक निश्चित की गई है। 9 किलोमीटर ऊंची माऊंट एवरैस्ट की चोटी से एक किलोमीटर ऊपर। उससे आगे वायुमंडल की दूसरी परत ‘स्ट्रेटोस्फीयर’ शुरू हो जाती है। धरती से 10 किलोमीटर से 50 किलोमीटर की दूरी तक, यह परत फैली हुई है। स्ट्रेटोस्फीयर का निचला भाग व्यापारिक हवाई यातायात के लिए इस्तेमाल किया जाता है। स्ट्रेटोस्फीयर के बीच 15 किलोमीटर से 30 किलोमीटर के बीच का भाग तेज़ गंध और नीले रंग वाली घनी ओज़ोन गैस से भरा पड़ा है। 
ओज़ोन गैस की यह पट्टी, पृथ्वी के वायुमंडल में बहुत ही अहम भूमिका निभाती आ रही है। पृथ्वी की सतह पर सूर्य से आने वाली पराबैंगनी विकिरणों को स्वयं में सोख लेने का गुण, इस ओज़ोन परत में मौजूद होता है। जब बिना शोधित पराबैंगनी विकिरणें पृथ्वी पर पहुंचती हैं तो मनुष्यों का बड़ा नुक्सान करती हैं। चमड़ी के कैंसर का कारण बनती, मोतियाबिंद पैदा करती, फसलों के झाड़ को नुक्सान पहुंचाती, जल जीवों की जान को मुसीबत में डालती हैं, ये पराबैंगनी विकिरणें। स्ट्रेटोस्फीयर में ओज़ोन के अणु बनते भी जाते हैं और टूटते भी रहते हैं। वैसे ओज़ोन की परत में ओज़ोन की कुल मात्रा उतनी ही बनी रहती है, चाहे कुछ मौसमी और भूगौलिक बदलाव ओज़ोन की परत को प्रभावित अवश्य करते रहे हैं। 
ओज़ोन की परत पतली पड़ रही है
हमें पहली बार, उस समय ओज़ोन की परत के पतन की चिन्ता हुई, जब वर्ष 1979 के वर्ष जापानी और अंग्रेज़ खोजकारों ने यह ऐलान किया कि हमारी ‘सुरक्षा छतरी’ बनी ओज़ोन की परत पतली पड़ने लगी है। फिर ‘नासा’ ने वर्ष 1987 में एंटार्टिका की मुहिम के बाद रिपोर्ट पेश की। इस रिपोर्ट में ओज़ोन की परत में पड़े छेदों की पुष्टि कर दी गई थी। ओज़ोन की परत का पतला पड़ जाना, अर्थात् पराबैंगनी विकिरणों का अधिक मात्रा में धरती पर पहुंचना, धरती के अधिकतर लोगों पर पराबैंगनी विकिरणों का प्रभाव पड़ना है। 
थोड़ा अनुमान लगाएं
यदि स्ट्रेटोस्फीयर में ओज़ोन की परत होती ही नहीं तो सूर्य की शक्तिशाली पराबैंगनी विकिरणें, इस धरती को ज़िंदगी से वंचित कर देतीं। पिछली आधी सदी से हम क्लोरोफ्लोरो कार्बनों को बहुत काम की चीज़ समझते आए हैं। इन पदार्थों के गुण हैं कि यह टिकाऊ हैं, ये ज्वलनशील नहीं होते। सस्ते हैं, आसानी से पैदा हो जाते हैं। इनको हम फ्रिज़ों, घोलकों, फोम बलो प्रेरकों तथा अन्य बहुत सारे स्थानों पर इस्तेमाल करते आ रहे हैं। अन्य भी क्लोरीनयुक्त यौगिक जैसे मिथाइल क्लोराइड, कार्बन टैटराक्लोराइड, एक औद्योगिक रसायन ‘हैलोनज़’ बहुत प्रभावशाली आग बुझाने वाले पदार्थ हैं। इस भूमि को धूनी देने वाला रसायन है मिथाइल ब्रोमाइड। ये सभी जब टूटते हैं तो सुरक्षा करने वाली ओज़ोन परत को नुक्सान पहुंचाते हैं।  कहते हैं कि स्वीमिंग पूलों, औद्योगिक इकाइयों, समुद्री नमक तथा ज्वालामुखी से पैदा क्लोरीन, निचले वायुमंडल (ट्रोपोस्फीयर) में ही रह जाती है। यहां पानी के वाष्पों से मिलकर ट्रोपोस्फीयर में ही वर्षा बनकर बरसने लगती है। परन्तु क्लोरोफ्लोरो कार्बन तो पानी में घुलते ही नहीं। किसी साधन से इनको निचले वायुमंडल से बाहर भी नहीं निकाल सकते। बस जब तेज़ हवाएं चल पड़ती हैं, वह क्लोरोफ्लोरो कार्बनों को उठाकर स्ट्रेटोस्फीयर में पहुंचा देती हैं। क्लोरोफ्लोरो कार्बन टूटने का नाम नहीं लेते। सिर्फ घनी पराबैंगनी विकिरणों के टकराव से अपघटित होते हैं। इस तरह क्लोरीन के परमाणु पैदा होते हैं। क्लोरीन का एक परमाणु, एक लाख ओज़ोन के अणुओं को तोड़ने का कारण बनता है। इस तरह ओज़ोन की परत का तेज़ी से पतन होने लगता है।
विश्व की प्रतिक्रिया
जब 1970 के वर्ष में ओज़ोन परत के पतन होने के बारे में बातें चलीं तो समूचे विश्व में एक शंका और डर जैसा माहौल पैदा हो गया। डरे हुए लोगों ने क्लोरोफ्लोरो कार्बनों के इस्तेमाल पर पुन: विचार करना शुरू किया। कई देशों ने तो इसके इस्तेमाल पर पाबंदी भी लगा दी थी, परन्तु इसका उत्पादन किसी भी देश ने बंद नहीं किया था। वर्ष 1985 में वियाना कन्वैंशन में ‘ओज़ोन परत के पतन’ पर विस्तार में विचार-विमर्श हुआ। इसको रोकने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग देने हेतु अलग-अलग देश एकमत हुए। इसी संदर्भ में वर्ष 1987 में मॉंट्रीयल मसौदे पर सभी ने सहमति होने के हस्ताक्षर किए थे। इस प्रयास के कारण क्लोरोफ्लोरो कार्बनों का इस्तेमाल कम हुआ है। परन्तु वर्ष 1997 और 1998 में ओज़ोन परत में क्लोरीन की भारी मात्रा में मौजूदगी रिकार्ड की गई थी।  एक सुखद समाचार भी मिला है कि प्राकृतिक तौर पर ओज़ोन की परत का पतलापन आने वाले पचास वर्षों में स्वयं पूरा हो जाना है, क्योंकि क्लोरोफ्लोरो कार्बन, ग्रीन हाऊस गैस है। यह ओज़ोन की परत को नुक्सान भी पहुंचाती है और वैश्विक तापमान को बढ़ाने के लिए ज़िम्मेदार होती है। स्पष्ट है कि पतली ओज़ोन परत, कम पराबैंगनी विकिरणें सोखती है। इस तरह पृथ्वी के वायुमंडल में अधिक गर्मी प्रवेश कर जाती है और वायुमंडल तपने लगता है। 
हम क्या कर सकते हैं?
1995 के वर्ष से संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 16 सितम्बर के दिन को, हर वर्ष अंतर्राष्ट्रीय ओज़ोन परत सुरक्षा दिवस के तौर पर मनाना शुरू किया गया है। इस दिन को हमें सोचने का एक और अवसर मिल जाता है। हमारा सारा ध्यान ओज़ोन की परत पर केन्द्रित हो जाता है। हम देश स्तर पर और विश्व स्तर पर इसकी सांभ-संभाल के प्रयास करते हैं। इस दिन मिलकर सैमीनार, रैलियां, पोस्टरों के मुकाबले, चित्र-प्रदर्शनियां, फिल्म शो ओज़ोन परत संबंधी दस्तावेज़ी फिल्में बच्चों को दिखाई जानी चाहिएं ताकि ओज़ोन परत के प्रति लोग जागरूक हो सकें। आज हम सभी को शपथ लेनी चाहिए कि जिन वस्तुओं, पदार्थों के कारण ओज़ोन परत कमज़ोर पड़ रही है, उन वस्तुओं या पदार्थों का हम इस्तेमाल ही न करें या उनका कोई विकल्प ढूंढें। यह हम सभी की नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है।

मो. 97806-67686