अपना-अपना नज़रिया

बहुत समय पहले की बात है। कुछ मित्रों ने सलाह बनाई कि वो हाथी देखने जायेंगे लेकिन भाग्य की विडंबना यह थी कि वो सभी देखने की शक्ति से महरूम थे। परन्तु उन्होंने कहा कि वो अपने-अपने अनुभव के आधार पर अपनी एक राय बना लेंगे और सभी ने इस बात पर सहमति जता दी। जब वे हाथी देखने लगे तब एक बड़ी ही विचित्र घटना घटित हुई, जिसने हाथी की टांगों को स्पर्श किया वो कहने लगा कि यह तो किसी बड़े स्तम्भ की तरह है वहीं दूसरे ने हाथी की सूंड को छुआ वो कहने लगा कि ये तो लम्बी रस्सी की तरह है।  वहीं तीसरे ने हाथी के कान को हाथ लगाया और वे कहने लगा कि तुम दोनों झूठ बोल रहे हो ये तो किसी बड़े पंखें की तरह है। जब वो सभी अपनी-अपनी बात पर अड़ने लगे तो उनमें झगड़ा होने लगा। एक व्यक्ति बहुत देर से उनकी इन सभी गतिविधियों को देख रहा था। स्थिति को बिगड़ता देख वो उन सबके बीच आ गया और बताने लगा कि आप सभी अपनी जगह ठीक हैं। आप सब में कोई भी गलत नहीं हैं और सारी बात उन्हें समझाई। ये सुनकर वे हंसने लगे कि कितनी छोटी  लेकिन महत्वपूर्ण बात है कि हम दूसरे के नज़रिये को समझे बिना ही खुद को ठीक या सही बताने पर जोर देने लगे। जिसकी वजह से हम सबके बीच लड़ाई तक की नौबत आ गयी। ऐसा ही असल जिंदगी में होता है जब हम सामने वाले की बात को सुने बिना अपनी बात पर अडिग रहते हैं और कई बार इस वजह से हमें अपने कई करीबी लोगों की नाराज़गी का सामना भी करना पड़ता है।  दो शब्द हमारी जिंदगी और हमारे रिश्तों को बिल्कुल बदल सकते हैं। अब समझदारी इसमें है कि आप कौन से शब्द को अपनी जिंदगी में शामिल करते हैं। वो है ही और भी जब हम कहते हैं मैं ही ठीक हूं इसमें विश्वास कम और अहंकार की भावना ज्यादा है पर जब हम कहते हैं कि मैं भी ठीक हूं तब बोध होता है कि आप दूसरे इन्सान की सोच विचारों और समझ को समान महत्व देते हैं। जब दो लोग एक जैसे नहीं हो सकते। तो उनके नज़रियों का भिन्न होना स्वाभाविक है। ही और भी इन दो शब्दों में बहुत थोड़ा-सा अंतर है लेकिन ये हमारी जिंदगी में बहुत असर डालते हैं। अब चुनाव आपको करना है।

- वृंदा गांधी