‘मानस’ और गुरु-शिष्य परम्परा

रामचरित मानस को मुख्यत: धर्मग्रंथ के रूप में देखा जाता है पर जब हम इसके अलग-अलग पहलुओं पर नजर डालते हैं तो हमें पता चलता है कि ‘मानस’ एक समाजशास्त्र भी है और एक अद्भुत काव्यग्रंथ भी। मानस में तुलसीदास एक तटस्थ द्रष्टा और विचारक के रूप में उभरकर आते हैं। उनकी प्रतिबद्धता जितनी भगवान राम के प्रति रही, उतनी ही जनता के प्रति भी रही। समन्वय करना उनका साध्य नहीं, साधन मात्र था। ‘मानस’ में भगवान राम को उन्होंने परिस्थितियों के अनुसार ढाला है और सभी प्रकार के मानवीय संबंधों से गुजरते दिखाया है। भगवान राम आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श सेवक, आदर्श स्वामी, आदर्श मित्र व आदर्श शत्रु यानी सब कुछ आदर्शात्मक है। मानव-जीवन के व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक जितने भी संबंध हो सकते हैं, राम उन सबके बीच गुजरते हुए चलते हैं। हर कठिनाई को बड़ी सरलता से स्वीकार करके उसका समाधान निकालते हुए आगे बढ़ते चले जाते हैं। नियति अपने सभी दांव-पेंच चलाती है लेकिन भगवान राम सभी का समाधान खोज, सभी को साथ लेकर चलने वाले दिखाई पड़ते हैं। भगवान राम इस चराचर जगत के हर जीव-जंतु ही नहीं बल्कि सृष्टि के जड़ से लेकर पात तक सभी से मिलते, बोलते या फिर उन्हें जानते हुए चले हैं। ‘मानस’ में हमें सामाजिक जीवन में रहने-सहने के गुण बताने का भी समन्वय साफ दिखाई पड़ता है। गुरु-शिष्य परम्परा केवल मित्रता व दोस्ती जैसे शब्दों के बीच बंधकर रह गई है। ‘मानस’ में लिखा है, कि:- प्रात:काल उठि के रघुनाथा। मातु-पिता गुरु नावाहि माथा अर्थात् भगवान राम प्रात: काल उठते ही अपने माता-पिता और गुरु को मस्तक नवाते हैं और आज्ञा लेकर अन्य काम करते हैं। इतना ही नहीं, मानस में गुरु ज्ञान व उसकी बड़ाई करते हुए लिखा है कि गुरु जी ज्ञान के समुद्र हैं, इस बात को सारा जगत जानता है जिनके लिए विश्व हथेली पर रखे हुए बेर के समान है, ‘गुरु विवेक सागर जगु जाना। जिन्हहि बिस्व कर बदर समाना।’ ‘मानस’ में भगवान राम गुरु आज्ञा व भक्ति दोनों को अच्छी तरह जानने व मानने वाले हैं। गुरु, माता और पिता के वचनों के अनुसार ही वह चलने वाले हैं। मानस में भगवान राम चित्रकूट के घर पर भरत को समझाते हुए कहते हैं, ‘जे गुरुपद अंबुज अनुरागी, ते लोकहुं बेदहुं बड़भागीं, अर्थात जो लोग गुरु के चरण कमलों के अनुरागी हैं, वे बड़भागी होते हैं। भगवान राम गुरु वचनों को ही सर्वस्व सार्थक मानकर उनके बताए रास्ते पर चलकर आगे बढ़ने में अपनी भलाई समझते रहे हैं। जनकपुर को देखने के लिए भी भगवान राम पहले गुरु जी से आज्ञा लेते हैं, ‘परम विनीत सकुचि मुसुकाई, बोले, गुरु अनुसासन पाई।। नाथ लखनु, परू देखन चहही, प्रभु संकोच डर प्रगट न कहही।।’मानस में शिष्य परम्परा, प्रेरणा व कर्त्तव्यपालन ही नहीं बल्कि गुरु की मर्यादा व उसके कार्यों के बारे भी लिखा है। 

—डा. नीरज भारद्वाज