इंतज़ार और अभी,...और अभी

आज क्रांति कर देने और देश में बदलाव ले आने की बातें इतनी घिसी पिटी हो गई हैं कि अगवानी करने वाले नारे भोथरे होकर शर्मिंदा हो गए। ‘इन्कलाब ज़िन्दाबाद’ एक बहुत पुराना, सान चढ़ा, खरा नारा है, अब आसमान की ओर हाथ हिला-हिला कर चिल्लाओ, तो स्वर ज़िन्दाबाद नहीं ‘ज़िन्दाबाघ’ निकलता है। वक्त बीत जाता है, नारे वहीं खड़े मिलते हैं कि जैसे सड़कों के बाहर पड़े कूड़े के डम्प, आपके आवागमन को सरपट बना देने वाली अधूरी सड़कें या अधर में ही छोड़ दिए गये अधबने पुल। लगता है कि, इन्कलाब का ज़िन्दाबाद कह कर उसका दम भरने वाले लोगों को कोई ज़िन्दाबाघ निगल गया है। सदियों से फैले हुए गरीबी, बेकारी और भुखमरी के अंधेरों में उसकी हिंस्र आंखें डरावनी चमक दिखाती हैं और ईमानदारी का जय-जयकार करते हुए हर कदम, हर पल भ्रष्टाचार की तश्तरी आपकी टूटी हुई मेज़ पर सजा देती है। 
बदलाव क्या होता है और कैसे आता है? हमने कई बार नैतिकता के अलम्बरदारों को अपना बड़ा बूढ़ा समझ पूछा है। लेकिन जिससे भी पूछा, उसने जब अपनी अलम्बरदारी का लबादा उतार कर अपना असली रूप दिखाया, तो लगा लक्कड़बग्घे अपनी छीलती हुई मुस्कराहट के साथ हमें वही रास्ता दिखा रहे हैं।  वह दुलरा कर हमें सत्य, सन्मार्ग, चरित्र और महानता की कन्दीलों के सामने खड़ा कर देते हैं और स्वयं अपने द्वारा बनाई चोर गलियों का राह पकड़ सफलता के किसी पहाड़ को अपनी जेब में डाल लेते हैं। त्याग और बलिदान का उपदेश झाड़ने लगते हैं। 
इन उपदेशों को झेलते हुए इस देश की भारी भीड़ को पौन सदी हो गई। आज भी बदलाव के सपनों को साकार करने कि लिए वे लोग उन मतदान केन्द्रों के बाहर जुटते हैं, जो दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र से सबसे पुराने लोकतंत्र तक फैला है। कोरोना के भय और प्रकोप में जुटते हैं, मौत के सायों को मुंह चिढ़ा कर जुटते हैं। मार्गदर्शकों ने उन्हें समझाया था कि लोकतंत्र में मतपत्र ही तुम्हारा सबसे बड़ा हथियार है। अब मत पेटियों की जगह ई.वी.एम. मशीनें आ गई हैं, वोट पर्ची की जगह ई.वी.एम. पर अंकित नाम या चुनाव चिन्ह पर तुम्हारी अंगुली आ गई। तुमने तो उम्मीदवार का नाम और चुनाव चिन्ह सही चुना, अंगुली भी सही टिकाई, फिर क्यों बाज़ी हारा उम्मीदवार तुम्हारे वोट को फर्जी करार देता है? यही पराजित उद्गार हर स्थान से उभरता है, चाहे वह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हो या सबसे पुराना लोकतंत्र। 
तुम चाहे उन्हें अपने भाषणों से जंगल के युवराजों की भेड़-बकरियां कहते रहे लेकिन बदलाव की इच्छा रखने वालों ने तो सही जगह अंगुली रखी। परिणामों ने पांसा पलट दिया। बाज़ी उलट दी। वोटरों ने तो जंगल नकारे, अपने मेहनत के निरंतर शोषण के, बढ़ती भूख की टीस के, महामारी का डर दिखा कर मौत बेचते हुए व्यापारियों के। उन्होंने गद्दियों पर कब्जावर नेताओं को ‘आया राम से गया राम’ बना दिया।  लोकतंत्र में वोटर की समझ तो काम कर गई। कुर्सी को पैतृक विरासत समझ पोषण करने वाले लोग विदा के अंधेरों में गुम हो गए। अब क्या उम्मीद करें कि महामारी में संक्रमण के बढ़ते-घटते आंकड़े चुनाव युद्ध में शतरंज के पांसे नहीं बनेंगे? ‘हमारी गद्दी लाओ, देश बचाओ’ की भावुक अपील से पहले करोड़ लोगों के भूखे पेट अपनी रोज़ी और रोज़गार पा सकेंगे। जंगल के युवराजों का डर दिखाने वाले मसीहा भ्रष्टाचार और नौकरशाही के जंगल तंत्र को विदा दे सकेंगे।  लेकिन जो इन प्राचीरों से उतर कर आया वह ‘राम’ नहीं ‘श्याम’ था, आया राम नहीं, गया राम था। कुर्सी पर जमने के लिए अपेक्षित निर्णय में बहुमत के लिए उन्हें अपने धुरविरोधियों से भी गठजोड़ करना पड़ा तो क्या हानि? प्रश्न तो सत्ता बदलाव का है, उसे हो जाने दो। क्रांति के नारे को फिर हवाओं में से पकड़ लेंगे। 
वे हवाएं जो महिला सशक्तिकरण के नाम पर दुष्कर्मियों का मीडिया ट्रायल करती हैं। फिर मात्र दो प्रतिशत अपराधियों को दण्ड दे शेष को तारीख दर तारीख के अदालती अंधे कुएं में लटका देती हैं। वे हवाएं जो अपने घोर भ्रष्टाचारियों को पाक दामन बता विरोधियों के लिए गड़े मुर्दे उखाड़ उनका मुंह काला कर देती है। वे हवाएं जो आपकी भूख पर धीरज और इंतज़ार का पैबन्द लगा, अमीरों के गोदाम अन्न, धन से भर देती है। फिर हमें अतिरिक्त कमाई का सपना दे इस आर्थिक प्रगति की दर के बढ़ने की संभावना करार दे देती हैं। मरे हुए लोगों के लिए शोक प्रस्ताव पारित करती है, लेकिन महामारी के प्रकोप के बावजूद उनकी मौत के आंकड़े घटने की निरंतर इत्तला देती हैं। लेकिन आप राहत की सांस न ले लें, इसलिए आपको मुंह ढके रहने का उपदेश मिलता है। इस चेतावनी के साथ कि मौत की लहर विदा नहीं। कभी भी लौट कर आ सकती है। फिलहाल तो उसके विदा होने की प्रतीक्षा कीजिए, सामाजिक क्रांति या बदलाव तो बाद में होता रहेगा।