नये कोट की तलाश

प्रिय मित्रो, हमें लगता है, अब इस नये ज़माने में आपको अपनी पुरानी सोच का परित्याग करना पड़ेगा। जो कल अच्छा था वह अब समय बीतने के  साथ बोसीदा हो गया है। अब इसे सुधारने का प्रयास करोगे, तो ऐसे लगेगा कि जैसे आप अपने उधड़े हुए कोट के बखिये मरम्मत करने की कोशिश कर रहें हैं। अब इस मरम्मत को क्या कहें? एक ओर से बखिया सीते हैं तो दूसरी ओर से उधर जाता है। क्यों न जो कोट इन सदियों जैसे बरसों से हम पर लदा है और हमें फटीचर हो जाने का एहसास करवा रहा है, जी हां, क्यों न इसे उठा कर ेएक ओर फेंक दिया जाए और इसकी जगह एक बिल्कुल नया कोट पहन लिया जाए।  माशा अल्लाह। बात देश के अस्सी प्रतिशत लोगों की  गरीबी या उनकी बढ़ती महंगाई की मार या उन पर लदे बेकारी के बढ़ते बोझ को घटाने की हो रही थी, और आप फटे पुराने कोट की उधड़न सीने की जगह नये कोट की तलाश में चल दिये।  अजी हम कहां चले हैं? यह बेनूर आंखें और बेसहारा कदम ही नई ज़िन्दगी की तलाश में भटक कर हमें बताते हैं कि अरे, पुराने फटे कोटों की उधड़न को रो रहे हो, अपनी मैली कमीज़ और फटी बनियान की फिक्र करो। कहीं वह भी नदारद न हो जाये। क्योंकि इसकी मौजूदा हालत में तो इसे कोई गिरवी रख कर भी आपको एक जून पेट भरने का वसीला देने से रहा। 
बहुत बरस पहले जब इस देश में आज़ादी के चिराग जले थे, तब देश के मसीहाओं ने फैसला किया था कि सरकारी उद्यम और निवेश, और लाला लोगों का निजी व्यापार-धंधा आपस में गलवहियां डाल कर चलेगा। जीवन की भीख मांगते पिछड़े लोगों का खाली ओसारा सरकारी क्षेत्र अपने लाभ की परवाह किये बगैर जनकल्याण से भरेगा। ऊंची अटारियों वाला निजी क्षेत्र बढ़ते लाभ की पताका फहराने की धुन में देश को प्रगति की ऐसी दौड़ देगा कि ये अटारियां चाहे और कितनी ऊंची हो जाएं, इनकी खिड़कियों से गिरता दाव सौगात बन वंचितों के नंगे कंधों पर नया कोट बन कर लद सकेगा। 
जनाब फिर साल दर साल पंचवर्षीय योजना बन कर गुज़रते गये। निजी क्षेत्र की अटारियां रूप बदल कर बहुमंज़िले मॉल-प्लाज़ा बन गये। गरीब के कन्धों का वह एहसास भी खत्म हो गया कि उसके कन्धों पर कोई फटा हुआ कोट कभी रहा है। रफूगर किस उधड़ी हुई सीन को सिये? वहां तो कोई कोट ही नहीं रहा। हां, बाबूडम की रियासत ज़रूर बन गई। सरकारी उद्यम की कारगुज़ारी और उसके द्वारा फहरायी जाने वाली कल्याण पताका एक ऐसी कटी पतंग बनी, जो उनकी बस्तियों के ऊपर से गुज़रती हुई डिजिटल तरंगों में उलझ कर रह गई। क्या करें इस बीच ज़माना कयामत की चाल चल गया? आनलाइन हो गया। लेकिन उसका परिसर लकदक बस्तियों की सीमायें न लांघ पाया। 
शेष देश इतने बरसों रोटी, कपड़ा और मकान वाले अच्छे दिनों का इंतज़ार कर रहा था, वह आनलाइन हो सकने की चाहत के साथ स्मार्ट फोन बंटने की खैराती कतार में लग गया। लीजिये, ऐसी प्रगति न घर की रही न घाट की। ‘आनलाइन’ होकर डिजिटल हो जाने का नया कंगूरा क्या छूते? यहां तो ‘ऑफ लाइन’ की पटरी से भी उतर गये।  अब पटरी पर आने का प्रयास करते हैं तो महामारी के लौटने का भय उन्हें फिर से बेकाम अंधेरों की चहारदीवारी में कैद का पैगाम देने लगता है। फिर अभी बड़े लोगों के नये चिन्तन ने एक पैगाम दे दिया। आक्सफैम के सर्वेक्षण आंकड़ों पर मत जाओ कि महामारी के सैलाब में दस प्रतिशत अरबपति तो खरबपति हो गए, और नब्बे प्रतिशत अपने पुराने तार-तार हो गए कोटों के लिए रफूगर तलाश रहे हैं। लेकिन इनको मंदी लग गयी है। जब उनके लिए नये कपड़े ही नहीं बिकेंगे, तो रफूगर चौराहों पर जमा भिखारी ब्रिगेड में शामिल होकर अपने लिए रोटी तलाशने का नया धंधा न अपना लें तो क्या करें?
छोड़ो, पुरानी सोच को बदलो। अब देश के सरकारी क्षेत्र को जो बाबूडम का पर्याय बन गया है, ‘टाटा बाय-बाय’ कह कर क्यों न निजी क्षेत्र के लाभधावकों को कहें कि वे अब पूरा काम सम्भाल लें। गरीब-अमीर, धनी, वंचित का अन्तर बढ़ना पुरानी बातें हैं। असल बात तो नये कोटों का पहनना है। ये पहले ऊंची अटारियों वाले पहनेंगे, तो उतरन अपने-आप वंचितों के बेपर्दा शरीर ढक लेगी।  हमें नये अर्थ-शास्त्री समझा रहे हैं। देश के लिए समाजवाद की तलाश छोड़ो, सबके लिए खुशहाली सूचकांक का घेरा बढ़ाओ। सुना तो है, ‘राजा खुश तो प्रजा भी भली चंगी।’ हम इस खुशी सूचकांक की पैमाइश क्यों हमेशा कतारों में खड़े आखिरी आदमियों से करें? मापक सूचक अट्टालिकाओं के दरवाज़े पर भी तो लगाये जा सकते हैं। भूख और बेकारी दर मापने का पुराना रोना छोड़ो। पूंजी निर्माण और निवेश वृद्धि से आर्थिक विकास दर को छलांग लगाता देखो। देश का चेहरा पूरी दूनिया में कैसे धुल पुंछ जायेगा। जीर्णशीर्ण बदन की मिट्टी तो बाद में भी झाड़ी जा सकती है।   
अभी हमने पेट्रोल, डीज़ल और ईंधन गैस की आकाश की ओर उछलती कीमतों की समस्या हल कर दी न। स्कूटी की ओर लपकते वंचित के हाथ में साइकिल पकड़ा दी, और संदेश दिया, ‘बदन हिलाओ सेहत बनाओ।’ ईंधन गैस के लिए संत्रस्त महिलाओं को उनकी बढ़ती कीमतों से परेशान होने की जगह प्रकृति की ओर लौटने का संदेश दे दिया, अर्थात् उपलों और चकमक पत्थरों की ओर। भूख मिटाने की चिन्ता में क्यों हलकान हो रहे हो, उपवास की महिमा तो हमारे शास्त्र न जाने कब से बता रहे हैं।