बहुत ज्यादा बदल गया है क्रिकेट

पिछले तीन दशक के दौरान क्रिकेट निश्चित रूप से बहुत बदल गई है। हम अपने बचपन में यह कल्पना भी नहीं कर पाते थे कि टैस्ट मैच के पांचवें दिन, जब पिच टूट-फूट के कारण गेंदबाजों, विशेषकर स्पिनरों, के लिए सबसे मददगार साबित होती है, तब कोई टीम 300 रन से अधिक का लक्ष्य चेज कर पायेगी, लेकिन हाल की भारत-ऑस्ट्रेलिया सीरीज़ में भारत के युवा खिलाड़ियों ने यह कारनामा भी कर दिखाया। इसी तरह एक दिवसीय मैच में 300 रन बनाना व चेज करना अपवाद प्रतीत होते थे, लेकिन अब तो यह रूटीन सा होता जा रहा है। भारत बनाम इंग्लैंड की ताज़ा सीरीज़ इस तथ्य का नवनीतम उदहारण है। भारत ने 336 का लक्ष्य दिया और इंग्लैंड ने लगभग 6 ओवर शेष रहते इसे पार कर दिया। टी-20 के 20 ओवरों में भी 200 रन से अधिक बनाना आम सी बात हो गई है। छोटे फार्मेट में अब तो किसी भी स्कोर को निश्चितता के साथ ‘सुरक्षित’ नहीं कहा जा सकता। दक्षिण अफ्रीका ने तो 50 ओवर के मैच में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ 438 रन चेज करके मैच जीत लिया था। इस परिवर्तन के अनेक कारण हैं-पिच सपाट, मैदान छोटे, बल्ले व गेंद की क्वालिटी इतनी बेहतर कि एज लेकर भी गेंद सीमा पार हो जाये, चौकों-छक्कों से दर्शकों को लुभाने के लिए लगभग सभी नियम बल्लेबाजों के पक्ष में, और बल्लेबाज को निडर बनाने के लिए हेलमेट आदि तमाम सुरक्षा कवच। अब तो तेज गेंदबाज एक ओवर में एक ही बाउंसर फेंक सकता है, गेंद जरा लेग स्टंप के बाहर हो जाये तो वाइड, नो-बॉल करने पर अगली गेंद पर फ्री-हिट, आउट होने में कोई शक हो तो उसका लाभ भी बल्लेबाज को मिले। इसलिए यह तुलना करना बेकार है कि जो एल गार्नर को खेलने वाले सुनील गावस्कर बेहतर बल्लेबाज थे या पैट कमिंस का सामना करने वाले विराट कोहली? बात सिर्फ  इतनी सी है कि क्रिकेट इतना बदल गया है कि हम अपने बचपन के हीरो गुंडप्पा विश्वनाथ की तुलना आज के युवाओं की धड़कन रोहित शर्मा से नहीं कर सकते हैं। पिछले तीन या चार दशक में जितना अधिक क्रिकेट बदला है, उतना मैं नहीं समझता कि कोई और खेल बदला हो। टीवी कमेंटरी तो खैर बहुत बाद में आयी है, लेकिन ‘आंखों देखा हाल’ का जो समा रेडियो पर अनंत शीतलवाड़, पिअर्सन सुरीता, सुरेश सरैया, टोनी कोजिएर, हेनरी ब्लोफेल्ड और रिची बेनो अपनी मंत्रमुग्ध करने वाली आवाज़ से बांधते थे, वह आज भी उन लोगों के दिलो-दिमाग में ताज़ा और कानों में गूंज रहा है, जिन्होंने उन्हें सुना था। मुझे अच्छी तरह से याद है कि उन दिनों अगर कोई भारतीय बल्लेबाज क्वार्टर सेंचरी (25 रन) भी मारता था तो उसकी तारीफ  माइलस्टोन के रूप में की जाती थी और सलीम दुर्रानी या टाइगर पटौदी का छक्का पर तो इतना हर्षोल्लास होता व तालियां बजतीं कि स्टेडियम की गूंज रेडियो से होते हुए मोहल्ले भर में सुनायी देती।  चाय की दुकान पर रेडियो कमेंटरी सुनने के लिए भीड़ जमा रहती और अगर दफ्तर में रेडियो लाने को बॉस मना कर देता तो कर्मचारी पेट दर्द या सास के मरने का बहाना मारकर छुट्टी ले लेते। छक्का लगना इतना दुर्लभ था कि जो खिलाड़ी छक्का मारने में सक्षम थे जैसे सलीम दुर्रानी तो उन्हें टीम से ड्राप करना चयनकर्ताओं के लिए आसान नहीं होता था क्योंकि ‘नो दुर्रानी, नो मैच’ के पोस्टर शहर भर में लग जाते थे, जैसा कि कानपुर में एक टेस्ट से पहले लगे थे। फिर इस किस्म की कहानियां भी सुनायी जाती थीं कि ‘एक बार सलीम दुर्रानी 6 रन पर आउट हो गये और तुम्हें मालूम है, वह भी छक्का ही था’। आज तो एक ही मैच में 20-25 छक्के लगना आम सी बात हो गई है। मुझे उस खुशी का एहसास आज तक है जो एकनाथ सोलकर के छक्के से हुई थी जो उन्होंने 1974 की गर्मियों में इंग्लैंड में मारा था, हालांकि पूरी भारतीय टीम मात्र 42 रन पर सिमट गई थी। उस समय की सफेद पतलून व कमीज़, पिच का स्वभाव या स्टंप का प्रकार, जूते, पैड, ग्लव्ज, बल्ले व गेंद, आज के क्रिकेटर को तो शायद आदिम युग की चीजें लगें। फिजिकल फिटनेस का भी आज की तरह महत्व नहीं था। आप उस भारतीय बल्लेबाज की कल्पना कीजिये जिसके पास आधुनिक बल्लेबाज जैसा प्रोटेक्टिव गियर नहीं था, जिसकी ट्रेनिंग स्पिन व सपाट विकेट पर हुई हो और उसे पर्थ की तेज पिच पर लिली व थॉमसन का या ब्रिजटाउन में एंडी रोबर्ट्स व गार्नर का सामना करना पड़ जाये। 1970 के दशक में कैरी पैकर सीरीज़ ने क्रिकेट को कमर्शियल कर दिया, हालांकि उसे अधिकतर खेल प्रेमियों ने शक से देखा व आलोचना की थी लेकिन फिर टी-20 व आईपीएल के आगमन से क्रिकेट का शक्ति केंद्र भारत बन गया और बोर्ड ऑफ  कंट्रोल फॉर क्रिकेट इन इंडिया (बीसीसीआई) विश्व का सबसे अमीर खेल संघ बन गया। रंगीन कपड़े, लोगो व ब्रांड, डे-नाईट मैच, प्रायोजक व पैसे, टेक्नोलॉजी, कैमरा, डीआरएस, ट्रेनर व खेल मनोचिकित्सक, खेल का लोकतांत्रिक होना, गांव व देहात से युवा क्रिकेटरों का उभरना ... से क्रिकेट इतना बदल गया है कि चार दशक पहले की क्रिकेट को पहचान पाना कठिन हो गया है।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर