पंजाब में धर्म परिवर्तन का मामला सिख पंथ की प्रतिक्रिया क्या हो ?

पंजाब में तथा सिख धर्म में धर्म परिवर्तन की लहर पिछले कुछ दशकों से ही जारी है। पहले यह डेरावाद के रूप में चलती रही। समय की सरकारें भी वोटों की राजनीति पर चलते हुए इन डेरों को संरक्षण देती रहीं। अब कुछ ईसाई संगठनों द्वारा भी धर्म परिवर्तन की लहर तेज़ की गई है। परन्तु विगत लम्बी अवधि से ही सिख नेतृत्व द्वारा इन लहरों का मौखिक विरोध या फिर कुछ संगठनों द्वारा हथियारबंद टकराव वाला विरोध  तो किया गया परन्तु इस संबंध में कुछ नहीं सोचा गया कि आखिर सिख, खास तौर पर ़गरीब तथा दलित सिख क्यों इन डेरों के अनुयायी या ईसाई बनने की तरफ आकर्षित हो रहा है? इसे कैसे रोका जा सकता है?
अब ताज़ा घटना जिसमें एक चर्च में हुई मूर्तियों की तोड़-फोड़ तथा पादरी की कार जलाने की घटना ने यह प्रश्न प्रमुख तौर पर सामने ला दिया है। हालांकि अभी यह बिल्कुल पता नहीं कि यह तोड़-फोड़ वास्तव में किसने की है? उनका वास्तविक उद्देश्य क्या है? पंजाब सरकार को इस मामले की गहराई तक ज़रूर जाना चाहिए परन्तु सोशल मीडिया पर चल रहा प्रचार तथा कुछ नेताओं की बयानबाज़ी इसे सिख-ईसाई झगड़े के रूप में दिखाने का प्रभाव बना रही है जो किसी भी तरह से सिखों के पक्ष में नहीं, न राष्ट्रीय स्तर पर तथा न अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ही। यह सिख धर्म के सिद्धांतों के अनुसार भी नहीं क्योंकि सिख सिद्धांत तो न अत्याचार करने की इजाज़त देता है तथा न ही अत्याचार सहन करने की। गुरु तेग बहादुर साहिब का फरमान है :
‘‘भै काहू कउ देत नहि नहि भै मानत आन।।’’
(अंग : 1427)
सिखी विचारधारा पहले गुरु साहिब श्री गुरु नानक साहिब के समय से ही विचार-विमर्श पर संवाद रचाने की विचारधारा है।
यहां ईसाइयों की जालन्धर डाव्योसिस के प्रमुख बिशप अगनैलो रूफीनो ग्रासीयस की ताज़ा इंटरव्यू का ज़िक्र ज़रूरी है, जिसमें वह कहते हैं कि छोटे गिरिजाघर (पंजाब में) सभी ओर बन गये हैं। वे किसी के प्रति अपनी गतिविधियों के लिए उत्तरदायी नहीं हैं। मुख्य धारा के चर्च तथा पादरी उत्तरदायी हैं। यह नियम मुक्त समूह या व्यक्ति पर लागू नहीं होता। यहां तक कि कैथोलिक ईसाई भी इनमें शामिल हो रहे हैं, जो हमारे लिए भी चिन्ता की बात है। उन्होंने कहा कि मुख्य ज़रूरत एकजुट होने की है। कैथोलिकों के मामले में हर बपतिसमा रिकार्ड में दर्ज किया जाता है परन्तु आज़ाद चर्चों में ऐसा नहीं होता। उन्होंने प्रशंसा भी की कि सिखों ने अत्याचारों का सामना किया तथा वे अत्याचारों का सामना करने वाले अन्यों के लिए भी बोले। उन्होंने यह भी माना कि मुख्य ईसाई समूहों के अलावा अन्य अलग छोटे समूह हैं जो विगत लम्बी अवधि से तेज़ी के साथ बढ़े हैं तथा धर्म परिवर्तन में आक्रामक हैं, जो समस्याएं पैदा करते हैं। नि:सन्देह बिशप धर्म परिवर्तन को मानव अधिकार मानते हैं परन्तु वे यह भी मानते हैं कि मुझे (किसी को) कोई अधिकार नहीं है कि मैं किसी अन्य का धर्म परिवर्तन करूं। वह किसी का धर्म जब्री या धोखे से परिवर्तन करवाने की निंदा भी करते हैं। वह हिन्दुओं द्वारा ईसाई धर्म के बेहद प्रसार के आरोपों के उत्तर में कहते हैं कि ये दावे गलत हैं। ईसाई तो भारत में 2.5 प्रतिशत से कम होकर 2.3 प्रतिशत पर आ गये हैं।  इसलिए इस साक्षत्कार को देख कर यह कहा जा सकता है कि ईसाई प्रमुखों के साथ बातचीत एवं तर्कों का मार्ग अभी खुला है।
क्यों कर रहे हैं सिख धर्म परिवर्तन?
यह विचारणीय बात है कि आखिर सिख जो अन्य धर्मों के ज़ब्री परिवर्तन के विरोध में जान तक न्यौछावर कर देते हैं, जो पाकिस्तान बनने के दौरान अपने धर्म की आज़ादी कायम रखने हेतु लाखों जानें न्यौछावर करके तथा लाखों-अरबों रुपये की सम्पत्ति छोड़ कर भारत आये थे, आज स्वयं ही अपना धर्म परिवर्तन क्यों कर रहे हैं? यह सिर्फ सिखों के ईसाई बनने की बात नहीं है। इससे पूर्व डेरावाद ने भी सिखी का बहुत नुकसान किया है। डेरावाद को तत्कालीन अकाली तथा कांग्रेस की सरकारों का संरक्षण मिलता रहा है परन्तु सिख नेतृत्व सिखों की हर नई पीढ़ी को सिख सिद्धांत, इतिहास समझाने में और अधिक असफल ही नहीं होता रहा, अपितु वह सिखों के सामाजिक, आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने तथा अन्य ज़रूरतों का ध्यान रखने में भी विफल रहा है। प्रत्येक गांव में जाटों तथा उच्च जातियों के अलग गुरुद्वारे तथा श्मशानघाट बनाये जाना सिख नेतृत्व की सबसे पहली एवं बड़ी असफलता मानी जा सकती है। हमने ़गरीब सिखों के जीवन उत्थान हेतु कभी किसी योजना पर कार्य करना तो दूर, सोचा तक भी नहीं। हमने कौम के ज़रूरतमंद लोगों के लिए नि:शुल्क शिक्षा, नि:शुल्क उपचार जैसी सुविधाओं पर पैसा खर्च करने के स्थान पर बड़े-बड़े संगमरमर के संस्थानों का निर्माण करने को प्राथमिकता दी। बड़े-बड़े समारोहों पर करोड़ों रुपये खर्च किये। हमारे खालसा स्कूलों तथा शिरोमणि कमेटी के संस्थानों में ज्यादातर कार्यकर्ता स्वयं ही सिखी जीवन प्रणाली से बहुत दूर हैं। ज्यादातर खालसा स्कूलों में तो शिक्षा का स्तर भी इतना गिर गया है कि  सम्पन्न लोग वहां बच्चे को दाखिल करवाने हेतु भी तैयार नहीं। जबकि डेरे तथा ‘नव ईसाईवाद’ के प्रचारक लोगों को इस तरफ आर्थिक सहायता दे रहे हैं तथा दूसरी ओर उनके सभी दुखों से मुक्ति का सच्चा-झूठा प्रचार भी कर रहे हैं तथा ऊंच-नीच से भी बचाव कर रहे हैं।
अब सिख क्या करें?
पहली बात तो यह है कि सिखी सिद्धांत अत्याचार का मुकाबला अत्याचार से करने की इजाज़त ही नहीं देता। गुरु साहिबान के समय एवं बाद में भी सिखों ने किसी बेगुनाह पर अत्याचार नहीं किया। यहां तक कि पवित्र श्री हरिमंदिर साहिब को ध्वस्त करने वालों को तो अवसर मिलने पर सज़ा दी गई परन्तु बंदा सिंह बहादुर, महाराजा रणजीत सिंह, सिख मिसलों तथा अन्य सिख राजाओं के शासन में किसी मस्जिद को जबरन गिराए जाने का कोई उदाहरण नहीं मिलता। इस स्थिति में हम नहीं समझते कि चर्च में यह तोड़फोड़ किसी सिख संगठन ने ही की होगी। इसकी पूरी जांच होना आवश्यक है कि इसके पीछे कौन-सी देसी या विदेशी ताकतों का हाथ है और इनका क्या राजनीतिक, धार्मिक या कोई अन्य  उद्देश्य है? यहां यह ज़िक्र भी ज़रूरी है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ लम्बे समय से पंजाब में ईसाई धर्म परिर्वतन का विरोध करता आ रहा है तथा उसने कई बार सिखों को इससे अवगत होने के लिए भी कहा है, परन्तु कुछ लोग इसे अल्पसंख्यकों में दरार डालने के प्रयास के रूप में देख रहे हैं। परन्तु सिखों की मूलभूत ज़रूरत तो अपना घर संवारने की ही है, जिसमें ‘गरीब का मुंह गुरु की गोलक’ के सिद्धांत के साथ-साथ संस्थाओं के भ्रष्टाचार को समाप्त करके सिखों का पुन: सिख संगठनों में विश्वास बहाल करना सबसे ज़रूरी है। इसके साथ-साथ ही गैर सिखों की मुसीबत के समय सहायता करने के गुण को जारी रखने के साथ-साथ ़गरीब एवं ज़रूरतमंद सिखों की मदद को भी महत्व दिया जाना चाहिए। सम्पन्न सिखों में यह प्र्रचार किया जाए कि वे अपने दसवंद से अपने आस-पास रहते या अपने ़गरीब सिख रिश्तेदारों का जीवन स्तर ऊंचा उठाएं और रोज़गार कमाने में मदद करें। सिख संस्थानों में साबत सूरत सिख (सिर्फ अमृतधारी नहीं) को नौकरियों में प्राथमिकता देने की भी ज़रूरत है और सबसे ज़रूरी है कि हमारे स्कूलों तथा अस्पतालों की हालत सुधारी जाए तथा संख्या भी बढ़ाई जाए, जहां सिख सिद्धांत, इतिहास तथा अन्य पत्रिकाएं मुफ्त वितरित की जाएं तथा आज के युग के प्रचार माध्यमों से प्रचार भी किया जाए। सिखों में पैदा हो चुकी ऊंच-नीच की भावना को खत्म करने के लिए सार्थक यत्न किये जाएं। 
ये बज़्म-ए-शब है यहां इल्म-ओ-आगही कम है,
कई चऱाग जले फिर भी रौशनी कम है।
(नामी अंसारी) 
(अर्थात : यह रात की मह़िफल है जहां ज्ञान कम है। बहुत से दीये जल रहे हैं परन्तु फिर भी रौशनी मद्धम है)
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