‘लाहौर’ और ‘अमृतसर’ जो कभी अलग हो गए !


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सन् 1946 में हुए प्रांतीय चुनावों के दौरान पंजाब में मुस्लिम लीग की पकड़ मजबूत हो गई और इसी साल बंगाल, बिहार और संयुक्त प्रांतों (यू.पी.) के कई शहरों व कस्बों में हिंसा और आगजनी की घटनाएं हुईं। इन घटनाओं के अलावा अगले साल जनवरी से मार्च के शुरू होने तक कुछ राजनीतिक घटनाक्रम लाहौर में हुए। आने वाले समय के दौरान पंजाब के लिए इस पूरे घटनाक्रम का परिणाम बहुत भयानक निकला। मार्च शुरू होते ही रावलपिंडी डिवीज़न में दंगों की शुरूआत हो गई और साथ ही ‘लाहौर’ और ‘अमृतसर’ भी इसकी चपेट में आने से बच न सके। मार्च से जून तक पंजाब के इन दोनों बड़े शहरों में लूटपाट, आगजनी, चाकूबाजी और देसी बम चलने की घटनाओं की खबरें रोज़ाना समाचारों में छपने लगी। दोनों शहरों में कर्फ्यू लगाये जाने के बावजूद भी सबकुछ जारी रहा। शुरूआती हिंसा के इस दौर में लाहौर में हजारों दुकानें और मकान जला दिये गये। लाहौर में 22 जून (रविवार), 1947 वाली सुबह को शाहआलमी दरवाजे और रिहायशी इलाके में आग लगा दी गई। शहर का यह हिस्सा हिन्दू बहुसंख्या कारोबारी और रिहायशी इलाका था जो पूरी तरह से बर्बाद हो गया था। 
इस घटना के बाद हिन्दू व सिखों ने बड़े स्तर पर लाहौर से पूर्वी पंजाब की तरफ पलायन शुरू कर दिया। लाहौर की लगभग 7 लाख शहरी जनसंख्या में से तीन लाख हिन्दू जनसंख्या थी। अगस्त के दूसरे सप्ताह तक इनमें से सिर्फ दस हजार हिन्दू सिख ही शहर में रह गये थे और अंतिम सप्ताह तक यह गिनती 1000 ही रह गई जो लाहौर छोड़ गये, वह इस आशा में शहर छोड़ गये थे कि माहौल ठीक होने के बाद वह वापिस आ जाएंगे। जो अगस्त तक भी यहां रहे, वह इस आशा से रुके रहे कि ‘लाहौर’ भारत को दिया जाएगा क्योंकि शहर की अर्थव्यवस्था में हिन्दू सिख भाईचारे का पूरा दबदबा था। लाहौर की 70 से 80 प्रतिशत दुकानें, फैक्टरियां- कारखाने व अन्य कारोबार के मालिक हिन्दू व सिख थे। शहर की आधी से ज्यादा निजी जायदाद के मालिक भी हिन्दू सिख थे। दूसरी तरफ अमृतसर की तकरीबन चार लाख जनसंख्या में से दो लाख मुसलमान थे। मार्च की शुरूआत से अगस्त के मध्य तक शहर में हुए कत्लेआम और दंगों के कारण कटड़ा जैमल सिंह, कटड़ा महा सिंह और हाल बाज़ार पूरी तरह तबाह हो गये थे। कई मुसलमानों ने अमृतसर छोड़ दिया और बाकी बड़ी संख्या में शरीफपुरा मोहल्ले में इकट्ठे हुए। यह यहां इस आशा में अगस्त तक बैठे रहे कि अमृतसर पाकिस्तान का हिस्सा बनेगा। इस तरह अप्रैल से अगस्त तक लाहौर में हिन्दू सिख रिहायशी मोहल्ले व बाज़ार और अमृतसर में मुसलमानों के घर और दुकानें बड़े स्तर पर लूटे और जलाये गये।
14 और 15 अगस्त, 1947 को ‘पाकिस्तान’ और ‘भारत’ की आज़ादी का ऐलान तो हो गया परन्तु दोनों देशों की सीमा का अभी ऐलान नहीं किया गया था। ‘लाहौर’ और ‘अमृतसर’ शहरों में दोनों देशों के नारों के अलावा और धार्मिक नारे भी लगते रहे, कत्लेआम, आगजनी और पलायन जारी रहा। 17 अगस्त 1947 को आखिर वह दिन आया जब इन दोनों शहरों की किस्मत का फैसला भी हो गया। लाहौर पाकिस्तान को दे दिया गया और अमृतसर भारत के हिस्से में आया। लाहौर में बाकी बचे हिन्दू व सिखों ने लाहौर और मुसलमानों ने अमृतसर छोड़ दिया।
 ‘लाहौर’ ने अपने अमीर तहज़ीब याफता शहरी हिन्दू-सिख और अमृतसर ने अपने बेहतरीन शहरी मुसलमान कारीगर हमेशा के लिए गंवा लिए। दोनों शहरों के मध्य खींची गई लकीर ने दोनों शहर अलग कर दिये। विभाजन के बाद लाहौर ने तो अमृतसर से आने वाले तकरीबन सभी मुसलमानों को संभाल लिया परन्तु अमृतसर पूरे लाहौरियों को संभाल न सका क्योंकि लाहौर से यह छोटा शहर था और शरणार्थियों से पूरी तरह भर गया था। इस प्रकार लाहौर छोड़ने वाले शहरी लाहौरिये कम संख्या में ही अमृतसर और पंजाब के अन्य शहरों में बसाये गये। लाहौर जैसा कोई और बड़ा और विकसित शहर पूर्वी पंजाब में न होने की सूरत में लाहौर से आये शहरी बड़ी संख्या में दिल्ली और भारत के अन्य शहरों में चले गये। लाहौर आज पाकिस्तान का दूसरा बड़ा शहर है और अमृतसर अब के भारत पंजाब का दूसरा बड़ा शहर है। लाहौर ने बहुत तरक्की की परन्तु अमृतसर ने पहले सैंतालीस के विभाजन के समय वह कारीगर गंवाये जिनकी कमी कभी भी पूरी नहीं हो सकी। उसके बाद भारत -पाक युद्ध के दौरान यहां उद्योग और कारोबार को फिर तबाही का सामना करना पड़ा। 80 के दशक के दौर में जब पंजाब के हालात खराब हुए तो तब भी इस शहर ने अपनी जनसंख्या बहुत गंवा दी। परिणाम यह हुआ कि सन् 1991 में अमृतसर की जनसंख्या दस लाख से भी कम थी जबकि लाहौर 70 लाख की जनसंख्या तक पहुंच गया।
अक्सर ही दिमाग में यह सवाल आता है कि यदि यह दोनों शहर कभी अलग न होते, तो यह किस तरह के होते? शायद आज दोनों शहर बहुत ज्यादा बढ़कर एक दूसरे से मिलकर सौ किलोमीटर से भी ज्यादा के दायरे में फैल गये होते और भारतीय उप-महाद्वीप के बड़े महानगरों की गिनती में आते। दोनों शहरों के मध्य गुरबख्श सिंह प्रीतलड़ी का बसाया ‘प्रीत नगर’ दोनों शहरों में से किसी एक का उप नगर बन गया होता, जैसे कि उनको इनकी आशा थी। लाहौर का पंजाबी फिल्म उद्योग जो विभाजन के समय तबाह हो गया था, शायद आज शिखर पर होता। दोनों शहरों में पहले की तरह ही आम आना जाना होता तो आज के लाहौरियों और अमृतसर की आपस में गहरी दोस्ती और रिश्तेदारियां होतीं। बड़ी बात यह है कि दोनों शहर इक्ट्ठे होते तो आज चंडीगढ़ का कोई अस्तित्व न होता। परन्तु ऐसा हो न सका, समय को कुछ और ही मंजूर था। क्या भविष्य में इन दोनों शहरों का आपस में मिलना मुमकिन है या नहीं? इसका जवाब भी आने वाला समय ही बतायेगा। (समाप्त)
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