‘लाहौर’ और ‘अमृतसर’ जो कभी अलग हो गए !


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लाहौर के ‘अनारकली बाज़ार’ में ही ‘पंजाब नैशनल बैंक (1894)’ की शुरूआत इसके पहले दफ्तर के खुलने के साथ हुई। साल 1946-47 के मध्य और भी बैंक अपनी 97 ब्रांचों के साथ इस शहर में चलते थे और 80 बीमा कम्पनियां भी यहां मौजूद थी। पंजाब की राजधानी होने के कारण उत्तरी भारत के बड़े राजनीति और आर्थिक केन्द्र के तौर पर भी इसकी अलग पहचान थी। यहां के समझदार शहरी लोग शिक्षा, कला और फैशन के इस केन्द्र में रहते होने के कारण विकसित, अमीर और सुधरे हुए शहरी सभ्याचार के मालिक भी थे। यूरोपियनों द्वारा लाहौर को एक नया नाम ‘पूर्व का पैरिस’ भी मिला। पंजाबी में यह मुहावरा अब भी प्रच्चलित है कि, ‘जीहने लाहौर नहीं वेखिया, उह जम्मीया ई नहीं’। इस प्रकार विभाजन से पहले सांझे पंजाब का दिल शहर ‘लाहौर’, पंजाबी बोली और संस्कृति का केन्द्र बना।
विभाजन से एक साल पहले तक चाहे अमृतसर ने लाहौर जितना विकास नहीं किया, परन्तु फिर भी इसकी अपनी पहचान थी जो उस समय लाहौर के बाद पंजाब का दूसरा बड़ा शहर था। यह पंजाब की औद्योगिक और व्यापारिक राजधानी थी। चौथे सिख गुरु साहिब श्री गुरु रामदास जी द्वारा बसाये गये इस शहर की पहली पहचान ‘गुरु की नगरी’ के तौर पर है। सिख जगत का धार्मिक अस्थान श्री हरिमंदिर साहिब इस शहर में ही सुशोभित है। गुरु साहिब जी ने जब यह पवित्र शहर बसाया था तो अलग-अलग व्यवसाय के साथ जुड़े कारीगर और व्यापारी भी यहां बड़ी संख्या में बसाये गये थे। चौथे और पांचवें गुरु साहिब (श्री गुरु अर्जुन देव जी) के समय ‘गुरु बाज़ार’ जैसा व्यापारिक केन्द्र यहां अस्तित्व में आया और यह माना जाता है कि इस बाज़ार से ही इस शहर के व्यपारिक केन्द्र बनने की शुरूआत हुई। सिख मिसलों के समय के दौरान अहमद शाह अब्दाली के हमलों के साथ बर्बाद हुआ यह शहर एक बार फिर से बसना शुरू हुआ। श्री दरबार साहिब के नव निर्माण की सेवा सरदार जस्सा सिंह आलूवालिया के नेतृत्व में हुई और इसके आस-पास अलग-अलग मिसलों और उनके सरदारों व अन्य सरदारों द्वारा बुंगियां और कटड़ों का निर्माण हुआ। ईस्वी साल 1805 में अमृतसर महाराजा रणजीत सिंह के अधीन हुआ तो उन्होंने यहां और नए कटड़ों का निर्माण करवाया। हरेक कटड़े का अपना बाज़ार और मंडी होती थी। इसी समय के दौरान उनके अधीन इलाके और इसके बाहर से भी अमीर व्यापारी और कारोबारियों ने अमृतसर की तरफ रूख किया। 
1830 ईस्वी के दौरान कश्मीर में भयानक सुखे की वज़ह से पड़े अकाल के कारण रोज़गार की तलाश में कई मुस्लिम कश्मीरी कर्मियों ने अमृतसर का रुख किया, जो बाद में यहां पक्के तौर पर रहने लगे और पंजाब के विभाजन होने तक यहीं पर रहे। शहर की दीवार के साथ-साथ और कटड़ा कर्म सिंह, कटड़ा गर्भा सिंह, कटड़ा खजाना, कटड़ा हकीमां, कूचा काज़ीयां, कूचा रागियां, कूचा रबाबियां और शेख बाज़ार में बस गये। इनके यहां रहने से ‘शाल उद्योग’ बड़े स्तर पर शुरू हुआ और 1947 ईस्वी तक यहां शाल बनाने और उनके व्यापार वाली लगभग दो हजार दुकानें बन चुकी थीं। यहां बहुत ही सुंदर और भारी पश्मीनें की शालें विदेशों में जाती थीं। अमृतसर शहर में उस समय कई प्रसिद्ध हिन्दू खत्री, अरोड़े, वाणियां, कश्मीरी और अफगान व्यापारी भी बहुत प्रसिद्ध हुए थे। कईयों के नाम पर बहुत मशहूर कटड़े और हवेलियां यहां बनीं हैं। इसी समय में ही लक्कड़ और पत्थर पर खुदाई वाले, हाथी दांत से चीज़ें बनाने और धातु के काम वाले बहुत कारीगर यहां मौजूद थे। 
भारत के अन्य हिस्सों से मध्य एशिया तक रेशम के कपड़े और मेवों का व्यापार अमृतसर के ज़रिये होने लगा। 1830 ईस्वी के निकट एक फ्रांसीसी यात्री जैकोयमौं अमृतसर आया। उसके अनुमान मुताबिक उस समय शहर की जनसंख्या एक लाख से भी ज्यादा थी। दीपावली, अमावस्या और संक्रांति के मौके पर जहां श्रद्धालु गुरुधामों के दर्शन के लिए आते थे वहीं व्यापारी भी बड़ी गिणती में पहुंचते थे। अमृतसर के बारे में एक ट्रैक्ट में हयूगल नाम के किसी यूरोपियन का ज़िक्र भी मिलता है जिसके कथन के अनुसार पूरे उत्तरी भारत में यदि कोई अमीर शहर था तो वह श्री अमृतसर था। इतिहासकार गणेश दास अनुसार अमृतसर से बड़ा कोई और शहर पूरे ‘सिख राज’ वाले पंजाब में नहीं था। 
अंग्रेजों ने पंजाब पर कब्जे के बाद जब ‘लाहौर’ को विकसित करना शुरू किया तो कई अमीर कारोबारियों, व्यापारियों और अन्य अमीरों ने यहां पर रहने को प्राथमिकता दी। अमृतसर के भी कई शहर लाहौर में बस गये परन्तु उनके छोटे बड़े व्यापार और कारखाने अमृतसर में ही चलते रहे। इनमें काम करने वाले कारीगर जोकि ज्यादातर मुस्लिम थे, ‘अमृतसर’ में ही स्थापित रहे। इसलिए व्यापार के तौर पर ‘अमृतसर’ मुख्य आकर्षण का केन्द्र ही रहा। अंगे्रजों ने साल 1862 में रेल के रास्ते से ही इसको लाहौर और साल 1870 में दिल्ली के साथ जोड़ा तो इसके उद्योग और तजारत को और बढ़ने का मौका मिला। अंग्रेजों ने 1852 ईस्वी में पहला मिशनरी स्कूल बाज़ार कसेरियां में खोला और सेंट पाऊल चर्च (1853) का निर्माण करवाया। अमृतसर को टाऊन हाल (1862, अब पार्टीशन म्यूज़ियम), हाल बाज़ार (1875), सर्कट हाऊस (1863), डी.सी. दफ्तर (1876), लड़कियों की शिक्षा के लिए एलेग्ज़ैंडर स्कूल (1878), गवर्नमैंट मैडीकल कालेज (1920), विक्टोरिया जुबली अस्पताल (1891) की शानदार इमारतें अंग्रेजों की ही देन हैं। ब्रिटिश शासन के दौरान ही कुछ सिख विद्वानों ने सिखों और पंजाबियों को उच्च शिक्षा प्रदान करने के लिए सोचा। सिख रियासतों के राजाओं, अमीर सिख परिवारों और अन्य सिखों की मदद के साथ 1892 ईस्वी में ‘खालसा कालेज’ की शुरूआत हुई। इसकी शानदार इमारत का डिजाइन भाई राम सिंह द्वारा बनाया गया था। 1881-1921 के सालों के मध्य शहर की जनसंख्या में कोई खास बढौतरी नहीं हुई। कुछ इतिहासकारों के मुताबिक इसका कारण इन सालों के दौरान फैलने वाली महामारी थी परन्तु 1921-1941 के दौरान शहर की जनसंख्या में बहुत ज्यादा बढ़ौतरी हुई।
लाहौर और अमृतसर के कारोबारियों और व्यापारियों के दोनों शहरों में ही कारोबार और व्यापार छोटे बड़े स्तर पर चलते थे क्योंकि दोनों शहरों के बीच कोई खास दूरी नहीं थी। इसके लिए आम लोगों का भी इन दोनों शहरों में आम आना जाना था। रोज़ाना हर घंटे बाद दोनों शहरों के बीच रेलगाड़ी के अलावा कुछ-कुछ समय के बाद बसों की भी अच्छी सुविधा होती थी। अमृतसरी और लाहौरियों की आपस में रिश्तेदारी भी बहुत होती थी। दोनों शहरों की एक सी पंजाबी बोली और संस्कृति थी। दोनों शहरों के रंग ढंग एक जैसे थे। उस जमाने के जिन लोगों ने यह दोनों शहर देखे थे, उनके मुताबिक दोनों शहरों में से किसी एक शहर में पहुंचने पर यह महसूस नहीं होता था कि आप दूसरे शहर में आ गये हो। इसलिए इन दोनों शहरों को जुड़वा शहर भी कहा जाता था। एक शहर पंजाब का दिल और दूसरा शहर धड़कन थी। परन्तु आगे आने वाले समय को कुछ और ही मंजूर था और पंजाब के विभाजन के कारण दोनों शहर की सांझ अलग हो गई। 1947 के कत्लेआम के साथ बड़े शहर होने के कारण दोनों शहरों का नुकसान भी बहुत हुआ। जब दिल्ली, कराची और नये आज़ाद हुए दोनों देशों के अन्य हिस्सों में नई मिली आज़ादी के जश्न मनाये जा रहे थे तभी पूरे पंजाब सहित ‘लाहौर’ और ‘अमृतसर’ लूटे और जलाए जा रहे थे। (क्रमश:)  -मो. 98159-59476