कथावाचक और कस्टमर
आज जिसका सबसे बिजी शेड्यूल चल रहा है अगर सही मायने में कहा जाए तो कथावाचकों का ही कहा जाएगा। आज इनकी पौ बारह है। वगैर पूंजी का पूंजीपति। इनका काम है कथावाचन करना और अपने भक्त रूपी कस्टमर को वाचन से संतुष्ट कर उनसे दक्षिणा में बढ़िया माल मत्ता खींचना। यह ऐसा कारोबार है जिस पर एक वर्ग का ही युगो-युगों से अधिकार है, और इनको भरपूर दान दक्षिणा मिले उससे इनका भरपूर प्यार है। कथावाचक बनने के लिए अलग से पढ़ाई-लिखाई या डिग्री की ज़रूरत नहीं होती है। थोड़ी सी कथा और थोड़ी सी मिमिक्री करना आ गया फिर तो आप मैदान मार ही लेंगे। क्योंकि कथा के नाम पर बकवास ही सुनने को मिलती है। वहां अधिकांशत: अनर्गल प्रलाप ही होता है। बस इनकी गाड़ी एक बार पकड़ ली रफ्तार फिर तो उसी ढर्रे पर चलने लगती या फलने-फूलने लगता इनका कारोबार।
आज वर्तमान दौर की बात की जाए तो अभी हमारे देश में कथावाचक घास फुनूस की तरह उग आए हैं। इनका काम आम जनमानस में भगवान का भय दिखाकर या उनके गुणों का बखान करके उनके पग चिह्नों पर चलने हेतु जनता को उल्लू बना अपने गाड़ी को आगे बढ़ाना है। अक्सर देखा गया भक्तों में डायरेक्ट कोई चमत्कार नहीं दिखता लेकिन कथा सुनाने वाले के कारोबार में दिन दुगनी रात चौगुनी तरक्की ज़रूर दिख जाता। एक कहावत है कि कमाए धोती वाला और खाए टोपी वाला। नेता हो या कथावाचक यदि देखा जाए तो दोनों भी अपने भाषण से राशन चांपने का काम करते हैं।
आज के दौर में इन कथावाचकों का परमानेंट ग्राहक या कस्टमर या यूं कहें भक्त जो कथा सुनने के लिए सशक्त भूमिका में होते हैं जो अधिकांश निम्न वर्ग से आते हैं वे मज़दूर या सर्वहारा वर्ग से होते हैं। कथावाचक का पंडाल जहां भी लगता है भले ही उद्घाटन करने वाला कोई बड़ा आदमी नेता मंत्री समाजसेवी या अधिकारी होता है। जिसको कथा कहानी से कुछ लेना देना नहीं रहता। अपना काम किया और निकल गया। लेकिन जितने दिन कथा का कार्यक्रम चलता है सुनने वाले वहीं लोग होते हैं जो मेहनत मज़दूरी करके जीवन यापन करते हैं और उसी मेहनत के कमाई से पाई-पाई जोड़ कर जो बचाते हैं उसमें से एक हिस्सा भगवान के नाम पर कथावाचक जी को देकर आते हैं। ताकि कथावाचक आपके बारे में भगवान से अर्ज लगाकर अपना फर्ज पूरा कर सके। भले ही उनका कुछ होता जाता नहीं लेकिन भगवान इन कथावाचकों को दक्षिणा के रूप में मालोमाल कर निहाल कर देते हैं।
अभी हाल में मेरे बस्ती में एक मशहूर कथावाचक आए थे। जो कथा वाचने के लिए तकरीबन दस लाख डिमांड करते हैं। जिसका आयोजन बड़े-बड़े भक्त के माध्यम से नहीं बल्कि गलत सोहबत से कमाई किए गए पैसों से कुछ आवारा गर्द लड़कों ने किया था। इस कार्यक्रम का इतना प्रचार प्रसार किया गया कि दूर-दूर से कथा श्रवण करने हेतु बुजुर्ग पुरूष महिलाएं जिनको चलने फिरने में भी काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था, ऐसे लोग दूर-दूर से आए थे। जो कमा खाकर जो बचाए उसमें से आधा दान में दे दिए। क्योंकि दान देने वाला आदमी महान होता है। भगवान उसकी खाली झोली भरकर मालोमाल कर देते हैं। यह कब मालोमाल होंगे यह तो मालूम है नहीं है हाल फिलहाल वह कंगाल ही रहेंगे। और बूंद बूंद बनता है मिलकर सागर। फिलहाल तो कथावाचक मालोमाल होकर सुख भोग रहे हैं। आज कोई भी ऐसा कथावाचक नहीं मिला जो अल्प समय में करोड़ों या अरबों नहीं कमाया हो। कथा मंच से कथावाचक प्रभाव जमाने हेतु एक सवाल हमेशा उठाते हैं, ‘क्या लेकर आए थे क्या लेकर जाओगे मुट्ठी बंद कर आए थे खाली हाथ जाओगे।’ ऐसा सभी जगहों पर इस पाठ पढ़कर अपना ठाट बरकरार रखते हैं।
मैं अपने बस्ती में जब यह स्लोगन सुना और अगले दिन जैसे ही जितना में कथा का सट्टा बुक हुआ था पैसा देने में आयोजकों के तरफ से कुछ कम देने का चूक किया तो ऐसा रूप दिखाएं कि रात में दिया गया डायलॉग का कचूमर निकल गया। कथा श्रवण क रने वाले के जीवन में कोई परिवर्तन तो नहीं हुआ है उसके दक्षिणा में दिए गए दान से लखपति से अल्प समय में ही अरबपति बन गए। भगवान के डायरेक्ट आशीर्वाद के असर से इनका जीवन बढ़िया से गुजर बसर होने लगा।
आज कथावाचक बनने के लिए थोड़ी सी ट्रेनिंग की ज़रूरत होती है। बस मार्किट में इसके लिए युगों से चला आ रहा रॉ मटेरियल भरपुर मात्रा में विद्यमान है। बस उसमें से वही कथा के बारे में पूर्ण ज्ञान को रटकर अपने कस्टमर को संतुष्ट करें अपने जीवन रूपी गाड़ी को खुशहाली पूर्वक आगे बढ़ा सकते हैं लेकिन कथा सुनने से भक्त रूपी कस्टमर के जीवन पर कोई असर नहीं दिखता है वह आज भी अभावों से ग्रस्त होकर मर रहे है।
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