कैसे शुरू हुई रिश्वत लेने की परम्परा
पुराने जमाने में एक राजा था। उसके राज्य में तरह-तरह का भ्रष्टाचार चलता था। एक बार राजा का एक चिर परिचित और घनिष्ट व्यक्ति उससे मिलने आया तथा राजा से कहने लगा, ‘हुजूर, अपने राज्य में सभी गंगा नहा रहे हैं, हमें भी बहती गंगा में हाथ धोने का थोड़ा-सा अवसर प्रदान करें तो कृपा होगी। हमें भी इस बहती गंगा में नहाने का शुभ अवसर दिया जाए।’
राजा ने कहा, ‘अगर ऐसी बात है तो तुम भी बहती गंगा में हाथ धो लो और कोई ऐसा काम खोल लो, जिससे दो पैसे की आमदनी तुम्हें भी हो जाए और दो पैसे की हमें भी।’
इस तरह बात आयी गई हो गई। वह व्यक्ति बहुत चतुर था। उसने आने-जाने वाली सभी गाड़ियों पर टैक्स लगा दिया। सस्ताई का जमाना था। टैक्स एक पैसा लगाया गया था। इसलिए लोग चुपचाप टैक्स देने लगे। अब उसने कुछ समय बाद टैक्स बढ़ाकर दो पैसे कर दिया। लोग तब भी बिना किसी आना-कानी के टैक्स देते रहे किन्तु जब टैक्स बढ़ाकर चार आने कर दिया गया तो लोग चिल्लाने लगे।
अब उस व्यक्ति ने बड़ी होशियारी से काम किया। उसने बाकायदा चार आने की रसीद काटनी शुरू कर दी। इसमें से दो आने वह खुद रखता और दो आने राजा के खजाने में जमा करा देता। कुछ समय बाद उसने टैक्स की राशि बढ़ाकर आठ आने कर दी। अब तो राज्य में हो-हल्ला मच गया। उसे पकड़कर राज-दरबार में ले जाया गया। वहां उसने काटी गई सारी रसीदें सबूत के तौर पर पेश कर दी, जिनमें बड़ी ईमानदारी से आधा टैक्स भरा जाता था और आधा वह खुद खा जाता था। उसके हिसाब में जरा भी गड़बड़ी नहीं पायी गयी।
राजा उसकी ईमानदारी से बहुत खुश हुआ परन्तु उसने पूछा कि यह टैक्स हमने तो नहीं लगाया फिर भी आमदनी राज खजाने में कैसे जमा होती रही? तब तक वित्तमंत्री से भी उस व्यक्ति का सम्पर्क हो चुका था। वित्तमंत्री ने राजा को समझाया, ‘हुजूर, आदिकाल से ही राजकीय खजानों में ऐसा पैसा आता-जाता रहता है, जिसकी जानकारी राजा को नहीं होती।’
राजा वित्तमंत्री की बात से सहमत हो गया और उसने ‘कर’ की वसूली के लिए तभी से आर.टी.ओ. प्रथा का जन्म हुआ। आधुनिक समय में वाहनों से ‘कर’ वसूलने के लिए लागू इस ‘आर.टी.ओ.’ नामक प्रथा को ‘आर’ यानी रिश्वत, ‘टी’ टेक अथवा लो और ‘ओ’ यानी ओ के, कहा जाता है। आज भी आर.टी.ओ. ऑफिसों में रिश्वत लेते ही गलत से गलत काम को भी चंद मिनटों में सही साबित करने की प्रथा चली आ रही है।
(सुमन सागर)