पहाड़ी किसानों के लिए अच्छे दिनों की गारंटी है आड़ू का पेड़
आड़ू एक मध्यम आकार का मीठा और रसीला तथा खुशबूदार फल है। इसका छिलका रोंएदार होता है। आड़ू का उपयोग मुख्यत: ताजे फल के रूप में, जैम और जूस के रूप में तथा केक बनाने में भी होता है। हालांकि भारत में आड़ू की खेती सीमित होती है, यह मुख्यत: हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड और पूर्वोत्तर के पहाड़ी क्षेत्रों में। लेकिन हाल के सालों में आड़ू की कुछ किस्में ऐसी विकसित की गई हैं, जो पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में उगायी जाने लगी हैं। इनका स्वाद और फल का आकार भी दूसरे आड़ुओं जितना ही होता है। किसानों के लिए आड़ू का पेड़ फायदे की गारंटी है, अगर सही ढंग से कोई किसान एक एकड़ में आड़ू की बागवानी करता है तो सारे खर्च निकालने के बाद भी उसे 1.5 से 1.8 लाख रुपये का वार्षिक फायदा होना गारंटी है।
आड़ू यानी अंग्रेजी में जिसे पीच कहते हैं और जिसका वैज्ञानिक नाम प्रूनस पर्सिका है, यह वैसे तो चीन इसका मूल निवासी है। मगर चीन से यह फारस, फारस से यूरोप और इन दोनों जगहों से लगभग 15वीं, 16वीं शताब्दी में भारत पहुंचा है। भारत के पहाड़ी क्षेत्र इसे विशेष तौर पर भाये और कई सादियों तक पहाड़ी क्षेत्रों का एक विशेष फल बनकर रह गया। लेकिन अब इसके जीन को डेवलप करके कई मैदानी क्षेत्रों में भी आकर्षक और स्वादिष्ट आड़ू उगाये जा रहे हैं। आड़ू को समशीतोष्ण जलवायु चाहिए होती है। यह आमतौर पर 1000 से 2500 मीटर ऊंचाई तक पहाड़ियों में बहुत अच्छी तरह से फलता-फूलता है, क्योंकि इसे 7 डिग्री सेंटीग्रेड से कम तापमान की ज़रूरत होती है। साथ ही इसे कम से कम 300 से 1000 घंटे ठंडे तापमान के चाहिए होते हैं, जोकि इसके फलने-फूलने के लिए ज़रूरी होते हैं। लेकिन याद रखिए, ये सब ज़रूरतें या मांगें आड़ू के पारंपरिक किस्मों के लिए हैं। अब जो आड़ू की किस्में वैज्ञानिक ढंग से अलग-अलग मौसमों और मिट्टी के अनुकूल विकसित की गई हैं, उन पर यह नियम लागू नहीं होता।
पारंपरिक रूप से आड़ू के पेड़ के लिए रेतीली और दोमट मिट्टी अच्छी होती है, जिसमें जल का निकास अच्छा हो। इसके लिए पीएच 6.0 से 7.5 तक उपयुक्त रहता है। एक एकड़ में आड़ू के 250 से 300 पौधे तक लगाये जा सके हैं। आड़ू के दो पौधों के बीच 6/4 मीटर की दूरी होनी चाहिए। आड़ू के पौधों के रोपण का सही समय दिसंबर से फरवरी का महीना होता है। आड़ू के पेड़ की जहां तक देखभाल की बात है, तो इसे नियमित सिंचाई और उर्वरकों की ज़रूरत होती है। प्रमुख खाद के रूप में इसे गोबर की खाद, नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश चाहिए होती हैं। इसमें लीफकर्ल और ब्राउन रॉट जैसी बीमारी लगने का खतरा रहता है। आड़ू का एक पेड़ औसतन 25 से 30 किलोग्राम फल देता है और बाज़ार में गिरी से गिरी हालत में 40 रुपये से 60 रुपये किलो के बीच आड़ू बिक जाता है। ये दर किसानों को बेंचने की है, आम उपभोक्ता को तो आड़ू शायद ही कभी 100 रुपये प्रतिकिलो से नीचे मिलता हो। बहरहाल एक एकड़ में आड़ू की लगभग 6 से 7 हजार किलो उपज होती है और अगर 40 रुपये की रेट से ही इनकी कुल बिक्री मूल्य को जानें तो 2,40,000 से 3,00,000 रुपये तक होती है, जिसमें 80 हजार से एक लाख रुपये तक हर तरह की लागत होती है, जिसमें खाद, मजूदरी, सिंचाई आदि सबकुछ आ जाता है। इस तरह एक एकड़ से कम से कम एक किसान को 1.8 या 2.0 लाख रुपये की इंकम हो जाती है। जहां तक भारत में आड़ू की खेती के लिए प्रमुख किस्मों की बात है तो अर्ली वैरायटीज के लिए फ्लोरिडा रेड और अर्कासविटी तथा मिड सीजन के लिए शान-ए-पंजाब व सुंदर नगर तथा लेट वैरायटीज के लिए पार्वती, शारदा इनमें सबसे कम चिल आवर वाले किस्म फ्लोरिडा प्रिंस और शान-ए-पंजाब किसानों के लिए सबसे अच्छी किस्म हैं। आड़ू को सूखे फल के रूप में भी बेचा जाता है। इससे जैम, मुरब्बा और डिब्बाबंद रूप में भी बेचा जाता है। अगर आड़ू उपजाने वाले किसानों को कोल्ड स्टोरेज की सुविधाएं मिल जाएं तो इससे घाटा बहुत कम हो जाता है। आईसीएआर यानी भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और राज्य कृषि विश्वविद्यालय आड़ू की उन्नत खेती पर प्रशिक्षण देते हैं। इसी तरह राष्ट्रीय बागवानी मिशन के तहत किसानों को पौधे, सिंचाई और पैकेजिंग आदि में सब्सिडी दी जाती है। भारत के कुछ राज्यों में कृषि हाट, ई-नाम, किसान मंडियों के माध्यम से इसकी बिक्री को बढ़ावा मिलता है। आड़ू जब से मैदानी क्षेत्रों के लिए विकसित हुआ है, तब से पंजाब और हरियाणा के सैकड़ों किसान इसकी सफल खेती करके अपनी आर्थिक बेहतरी कर चुके हैं।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर