कला की बुलंदियों से अंधेरे में लुप्त हुए भारत भूषण 

जब राजेश खन्ना ने बॉलीवुड के पहले ‘सुपरस्टार’ का खिताब हासिल किया तो उससे बहुत पहले हिंदी सिनेमा दिलीप कुमार की विशाल प्रभावी उपस्थिति को देख चुका था। इन आइकोनिक नामों के बीच एक अन्य एक्टर था, जिसने बहुत ख़ामोशी से 1950 के सुनहेरी युग में अपना स्थान तराश लिया था। वह थे भारत भूषण। इस सभ्य आत्मा का संबंध मेरठ से था। ‘बैजू बावरा’, ‘मिज़र्ा ़गालिब’ व ‘बरसात की एक रात’ जैसी क्लासिकल फिल्मों में दिल को स्पर्श करने वाली भूमिकाएं अदा करके उन्होंने अपना नाम घर-घर तक पहुंचा दिया था। उनकी गहरी जज़्बाती व शायराना अदाकारी ने दर्शकों के दिल से एक संबंध स्थापित कर लिया था। उनका दबदबा थोड़े समय के लिए रहा, लेकिन बहुत शानदार रहा। भारत भूषण स्टारडम के शिखर पर पहुंचे।
लेकिन शुहरत की चमक बहुत जल्द ही फीकी पड़ गई। उन्होंने फिल्म निर्माण में प्रवेश किया, एक के बाद एक खराब आर्थिक फैसले लिए और उनका पतन हो गया। धीरे-धीरे वह अपनी हर चीज़ खो बैठ, अपनी दौलत, अपना रुतबा और जीवन के ऐशोआराम, जिन्हें वह फॉर ग्रांटेड ले रहे थे। उनका विशाल बंगला, लक्ज़री कारें और उनकी पसंदीदा पुस्तकें, सभी बिक गईं। ‘शुहरत की बुलंदी भी पलभर का तमशा है।’ भारत भूषण मलाड के एक मामूली से वन-रूम फ्लैट में पहुंच गये और अंधेरे में लुप्त हो गये। उनका 1992 में निधन हो गया, वह भी ऐसे जैसे उन्हें कोई जानता ही न हो। उनकी मय्यत में इतने कम लोग थे कि उन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता था।
उनकी मौत के लगभग दो दशक बाद भारतीय सिनेमा की एक अन्य प्रभावी शख्सियत अमिताभ बच्चन ने एक दिल को हिला देने वाला पल याद किया। एक सुबह जब वह सांता क्रूज़ की सड़कों पर ड्राइव करते हुए शूटिंग के लिए जा रहे थे, तो उन्होंने बस स्टॉप पर कतार में एक बुज़ुर्ग व्यक्ति को खामोश खड़ा हुआ देखा। वह भारत भूषण थे। एक ज़माने में भारत की प्रिय म्यूजिकल्स के रोमांटिक हीरो, अब भीड़ में एक चेहरा थे, जिसे कोई पहचान नहीं रहा था। न कैमरे थे, न प्रशंसक। बस एक तन्हा व्यक्ति था, जिसका सारा वैभव जा चुका था, जो कभी उसके व्यक्तित्व का हिस्सा था।
दिल को स्पर्श करने वाले अपने 2008 के ब्लॉग में अमिताभ ने उस भावनात्मक पल के बारे में लिखा जो हमेशा के लिए उनकी यादों में बसकर रह गया। अमिताभ ने स्वीकार किया कि वह निश्चितरूप से शिद्दत के साथ रुकना चाहते थे ताकि भारत भूषण को लिफ्ट दे सकें, लेकिन संकोच उन पर हावी हो गया। उन्हें डर था कि कहीं वह शर्मिंदा न हो जाएं और वह पल उनके लिए राहत की जगह अधिक कष्टदायक हो सकता था। इसलिए उन्होंने अपनी कार को आगे बढ़ा दिया, लेकिन वह तस्वीर उनकी आत्मा पर नक्श हो गई। अमिताभ ने लिखा, ‘उस पल ने मुझे हिला दिया। उन्होंने एक समय में लाखों लोगों को मंत्रमुग्ध किया था और अब अजनबियों में अजनबी थे। यह हादसा तो हममें से किसी के साथ भी हो सकता है।’ यह सब लिखते हुए अमिताभ को गुरुदत्त की फिल्म ‘कागज़ के फूल’ याद आ गई, जो ढलती ख्याति की छाया के अकेलेपन को प्रदर्शित करती है। अमिताभ के दिल में ‘वक्त ने किया क्या हसीं सितम’ गूंज रहा था और उन्हें याद आ रहा था कि वक्त किसी को भी बख्शता नहीं है।
पत्रकार अली पीटर जॉन ने बाद में भारत भूषण के त्रासदीपूर्ण पतन के बारे में लिखा, यह बताते हुए कि जिस भूमिका- बैजू बावरा ने उन्हें ख्याति के शिखर पर पहुंचाया वह भी दिलीप कुमार के लिए लिखी गई थी। जीवन ने भारत भूषण को अवसर दिए थे, लेकिन क्रूर व कभी माफ न करने वाली किस्मत ने आखिरकार उनसे सब कुछ छीन लिया। भारत भूषण ने 30 से अधिक फिल्मों में अदाकारी की और वह अनेक असाधारण व कालजयी फिल्मों का हिस्सा रहे, जैसे ‘बैजू बावरा’ (1952), ‘आनंद मठ’ (1952), ‘मिज़र्ा ़गालिब’ (1954) और ‘मुड़ मुड़ के न देख’ (1960) आदि। इस सफलता से वह अपने दौर के सबसे रईस एक्टर बन गये थे; उनकी शानोशौकत के कोई बराबर भी नहीं था। लेकिन उनका जीवन इस तथ्य का भी आईना है कि रईसी और शुहरत अस्थायी होती हैं कि उनके स्तर का स्टार भी बाद में दो जून की रोटी के लिए फिल्मों में छोटी छोटी भूमिकाएं बल्कि एक्स्ट्रा का काम करने के लिए मज़बूर हो गया था, जैसा कि ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ में, जिसमें वह रोटी चुराकर भागते हैं। तब अमिताभ ने उनकी दुर्दशा को महसूस नहीं किया, जबकि वह उस फिल्म का हिस्सा थे।
भारत भूषण गुप्ता का जन्म 14 जून 1920 में मेरठ में हुआ था, लेकिन उनकी परवरिश अलीगढ़ में हुई। उनके पिता रायबहादुर मोतीलाल गुप्ता वकील थे और उम्मीद की जा रही थी कि वह भी वकालत का पेशा ही अपनाएंगे। लेकिन अलीगढ़ से अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद वह बॉम्बे (अब मुंबई) आ गये, एक्टर बनने के लिए। उनकी पहली फिल्म 1941 में ‘चित्रलेखा’ आयी थी और इसके बाद कमर्शियल सफलता के लिए उन्हें दस साल का लम्बा संघर्ष करना पड़ा। विजय भट की पैसों को लेकर दिलीप कुमार से बात न बन सकी और उन्होंने अपनी फिल्म ‘बैजू बावरा’ में मीना कुमारी के साथ भारत भूषण को ले लिया। यह फिल्म भारत भूषण को एक दशक की ज़बरदस्त प्रोफेशनल सफलता की ओर ले गयी, जिस दौरान उन्होंने ‘श्री चैतन्य महाप्रभु’ (1954), जिसके लिए उन्हें 1955 में फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया और ‘बरसात की रात’ (1960), जिसके लिए वह आज तक पहचाने जाते हैं, जैसी हिट फिल्में दीं। 
वह अपनी फिल्मों में बदकिस्मत शायर या संगीतकार की भूमिका करने के लिए अधिक विख्यात थे। ‘बैजू बावरा’ में वह संगीतकार थे जो अपने पिता की मौत का बदला लेने के लिए तानसेन को ‘संगीत युद्ध’ की चुनौती देते हैं और राग मालकौंस में ‘मन तड़पत’ से स्वामी हरिदास को प्रभावित करते हैं और राग भैरवी में ‘तू गंगा की मौज’ से मीना कुमारी से रोमांस करते हैं। उन्होंने ‘ओ दुनिया के रखवाले’ से चरित्र के दर्द को पर्दे पर बाखूबी व्यक्त किया है। ‘बरसात की रात’ में भारत भूषण शायर की भूमिका में थे और यह फिल्म दो कारणों से उनके लिए विशेष थी। एक, हिंदी फिल्मों की आज तक की सर्वश्रेष्ठ कव्वाली ‘न तो कारवां की तलाश है’ उन पर फिल्मायी गयी थी और इसी फिल्म के सेट पर उनकी मुलाकात अपनी दूसरी पत्नी रत्ना से पहली बार हुई थी। दोनों की बेटी अपराजिता भी एक्टर है, जिसने 1986 के चर्चित टीवी शो ‘रामायण’ में मंदोदरी की भूमिका निभायी थी।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

#कला की बुलंदियों से अंधेरे में लुप्त हुए भारत भूषण