चंडीगढ़ की रचना सिंह का कैनेडियन अम्बर



मेरे पड़ोसी गांव लंगेरी का दर्शन सिंह कनाडा की परायी धरती पर ऐसी उपलब्धियां प्राप्त करके आया था कि कैनेडियन शब्द उसकी मुख्य पहचान बन गया। पूरा क्षेत्र उसे दर्शन सिंह कैनेडियन के तौर पर जानने लगा और बचपन में मैंने उसे साइकिल पर सवार होकर गांव-गांव तथा घर-घर वामपंथी विचारों का संदेश देते देखा था, विशेषकर अपने पैतृक गांव सूनी के दौरे समय। 
अब दर्शन सिंह कैनेडियन के पदचिन्हों पर चलते हुए हमारी अपनी बच्ची रचना सिंह ने ब्रिटिश कोलम्बिया के एजुकेशन एवं चाइल्ड केयर (शिक्षा एवं जच्चा-बच्चा विकास) मंत्रालय की कमान संभाल ली है। इससे पहले वहां की संसदीय सचिव होते हुए उसने जातिवाद/नस्लवाद से संबंधित मामलों से निपटने में इतनी सूझबूझ बरती कि अब उसे वहां की सरकार ने शिक्षा एवं जच्चा-बच्चा विकास का चुनौतीपूर्ण कार्य सौंप दिया है। वह जानती है कि यहां भी उसे अन्य बातों सहित जाति संबंधी मामलों से निपटना पड़ सकता है। अब उसे पहले वाला अनुभव दिशा प्रदान करेगा। 
रचना सिंह की इस उपलब्धि ने जगराओं के समीपवर्ती छोटे से पैतृक गांव भम्मीपुर का ही नाम रौशन नहीं किया, अपितु पंजाब एवं हरियाणा की साझी राजधानी चंडीगढ़ को भी रौशन किया है। याद रहे कि वह पंजाबी साहित्य के प्रगतिशील महारथी स्वर्गीय तेरा सिंह चन्न की नातिन है और प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका ‘सिरजना’ के मालिक संस्थापक रघबीर सिंह सिरजना की बेटी है। उसकी माता सुलेखा चंडीगढ़ तथा आस-पास के कालेजों में पंजाबी अध्यापिका रह चुकी हैं। रचना का मामा दिलदार भी अपनी अंतर-जाति धारणा के लिए जाना जाता है। उसने दिल्ली निवासी मुस्लिम परिवार की बेटी सुल्ताना से विवाह किया है, जो पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ में अध्यापिका है। 
इस परिवार के साथ मेरी साझ दिल्ली रहते हुए हुई थी जो चंडीगढ़ आने से और प्रगाढ़ हो गई है। जब चंडीगढ़ आने के बाद मुझे दिल्ली का वियोग खा रहा था तो मुझे ढाढस देने वाला भी यही परिवार था। फिर जब मैं पंजाबी ट्रिब्यून की सम्पादकीय तथा पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग से सेवामुक्त हुआ तो देश सेवक समाचार पत्र की सम्पादकीय के लिए साथी हरकृष्ण सिंह सुरजीत को मेरा नाम बताने वालों में भी रचना का पिता रघबीर सिंह ही प्रमुख था।  
यह स्वाभाविक है कि रचना सिंह को वामपंथी धारणा अपने ननिहाल एवं दादका परिवार से मिली जिसने उसके मन की चालक शक्ति को तेज़ किया है। कनाडा जाने से पहले वह मेरी पत्नी के साथ नशा छुडाओ केन्द्र की सलाहकार रही है। उसने ड्राइविंग किसी स्कूल से नहीं सीखी थी, अपितु मुझे ही अपना गुरु धारण किया था। मैं उसके मन की चेतना एवं चालक भावना से तब से अवगत हूं। वह बीसी की विधानसभा में अपना भाषण देने से पहले प्राथमिक शब्द पंजाबी में बोलने के लिए भी जानी जाती है। 
जाते-जाते यह भी बता दूं कि बीसी की मल्टी लेंगुएज सर्विसिस (बहु भाषी सेवाएं) की डायरैक्टर भी मेरे मित्र अजीत लंगेरी की बेटी माशा सिमरत कौर है, जो अपने विभाग में पंजाबी भाग पर पहरा दे रही है। रचना तथा माशा मेरी भतीजियों के समान हैं। दोनों का मुख्य कार्यालय विक्टोरिया है। एक-दूसरी को सहयोग भी देती रहेंगी और अपने प्रथम महारथी दर्शन सिंह कैनेडियन को श्रद्धांजलि भी। मुझे गर्व है कि माशा तथा रचना की प्रत्येक सफलता पर मुबारकबाद मेरे हिस्से आती है। उनके माता-पिता के समान। 
मेरे हिस्से का संतोख सिंह धीर
मैं खुश हूं कि पंजाबी साहित्य अकादमी लुधियाना अपनी त्रैमासिक पत्रिका ‘आलोचना’ का ताज़ा अंक पंजाबी के निपुण कहानीकार संतोख सिंह धीर की जन्म शताब्दी को समर्पित होगा। धीर का पैतृक गांव डडहेड़ी मेरे ननिहाल गांव के बहुत निकट है। मैंने उसे पहली बार गोबिन्दगढ़ में किसी कवि दरबार में कविता सुनाते सीधी ‘उंगली’ का इस्तेमाल करते हुए देखा था। फिर मैंने उसकी एक कहानी ‘प्रीतलड़ी’ पत्रिका में पढ़ी जो किसी सरहद पर लड़ रहे सैनिक की पत्नी द्वारा अपने पति को लिखे पत्र के तौर पर थी। सत्य पूछते हो तो वह कहानी पढ़ कर ही मेरे मन में कहानियां लिखने का ख्याल आया। यह सोच कर कि मेरे ननिहाल का कम पढ़ा व्यक्ति कहानी लिख सकता है तो मैं भी उससे कम नहीं। 
धीर की उपलब्धि ने मेरी उस धारणा पर पोंचा फेर दिया है। मैं अब तक धीर की ‘कोई इक्क सवार’ तथा ‘सवेर होण तक’ जैसी कहानी नहीं लिख सका, परन्तु मुझे यह बात कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं कि मुझे कथा-कहानी के मार्ग की जानकारी धीर के कथा जगत से मिली है।  संतोख सिंह धीर का शब्द चयन, वाक्य निर्माण तथा दृष्टि का कोई जवाब नहीं था। ‘आलोचना’ का उद्यम उन्हें मुबारक!
अंतिका
—एक लोक बोली—
हद्द मैं चले सो औलिया, अनहद चले सो पीर
हद्द, अनहद दोनों चले, सो है असल फकीर।