एकाकी नहीं है जोशीमठ में भूमि धंसने की घटना

 

यह सही है कि उत्तराखंड के चमोली ज़िले का जोशीमठ दुखद कारणों से खबरों में है। वहां घरों, गलियों और सड़कों में दरारें पड़ने और उसके चलते उपजी दहशत में फंसे लोगों ने पूरे देश का ध्यान खींचा है। अभी तक 600 से ज्यादा घर जमीन बैठ जाने या दरारें पड़ने के कारण असुरक्षित घोषित किए जा चुके हैं और उनमें रह रहे लोगों को सुरक्षित स्थानों पर स्थानांतरित किया जा चुका है। 1976 में भी जोशीमठ में जमीन धंसने का बड़ा हादसा हुआ था। इसी तरह दो साल पहले फरवरी 2021 में यहां की धौलीगंगा नदी में हिमस्खलन के कारण बनी झील के अचानक फूटने से वहां का जलविद्युत संयंत्र बुरी तरह तबाह हो गया था। इस दुर्घटना में 35 कर्मी मारे गए थे और जोशीमठ के आस-पास के इलाके को भारी नुकसान हुआ था। वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अनुसार 2009 से 2012 के बीच इस इलाके में 128 स्थानों पर भूस्खलन की घटनाएं हुईं।
हालांकि, जोशीमठ अकेला ऐसा स्थान नहीं है जहां भूमि के धंसने और भूस्खलन की घटनाएं हो रही हैं। लद्दाख से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक के लगभग चार हजार किलोमीटर लंबे हिमालय क्षेत्र में ऐसी घटनाएं होती रहती हैं। उत्तराखंड के तमाम शहरों में भू-धंसाव की समस्या हर पहाड़ी कस्बे और शहर की समस्या बनती जा रही है। बद्रीनाथ के द्वार जोशीमठ की भू-धंसाव की घटनाओं ने उत्तराखंड के अन्य तमाम शहरों पर मंडरा रहे खतरे की तरफ  सोचने को मजबूर कर दिया है। आज नैनीताल भी अपनी खूबसूरती के लिए नहीं, बल्कि इसकी चारों दिशाओं में सक्रिय भूस्खलन और भू धंसाव के कारण चर्चा में है।
नैनीताल की बुनियाद समझा जाने वाला बलिया नाला क्षेत्र हो या फिर उसका शीर्ष माना जाने वाला नैना पीक या भुजा समझी जाने वाली टिफन टॉप पहाड़ी या फिर स्नो व्यू की रमणीक पहाड़ी, यहां भूस्खलन सक्रिय होना, नैनीताल के लिए खतरा है। इन सक्रिय भूस्खलनों का कोई उपचार अभी शुरू नहीं हो पाया है। प्रदेश सरकार राज्य में नए शहर और टूरिस्ट डेस्टिनेशन बनाने का दावा तो खूब करती सुनाई देती है, लेकिन ब्रिटिश जमाने के अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पर्यटक स्थल नैनीताल, मंसूरी जैसे पर्यटन के शानदार स्थलों के अस्तित्व पर आए संकट को टालने की उसके पास कोई प्लानिंग नहीं दिखाई देती।  नैनीताल की 2610 मीटर ऊंची चोटी नैना पीक की शीर्ष चोटी पर अप्रैल 2020 में दरार आई। लगभग 40 फीट लंबी और आधे से तीन फीट तक चौड़ी। इस दरार से नैनीताल नगर में दहशत फैली। जिसके बाद ज़िला प्रशासन की टीम ने लोक निर्माण विभाग, जी.एस.आई., आपदा प्रबंधन और भू वैज्ञानिकों के साथ मिलकर टूटी पहाड़ी का निरीक्षण किया था और पहाड़ी का ट्रीटमेंट भी किये जाने की बात भी कही थी, लेकिन हो कुछ भी नहीं पाया। 
5 अप्रैल 2020 को नैना पीक की तलहटी पर बसे लोगों ने एकाएक नैना पीक पहाड़ी के धूल धुएं के गुबार के साथ सरकने का नजारा देखा तो कईयों ने इसका विडियो बनाया। इस पहाड़ी के सरकने से आस-पास के क्षेत्र में रहने वाले लोगों में हड़कंप मच गया। इन घटनाओं के बाद ज़िला प्रशासन ने भूस्खलन के कारणों की जांच के लिए एक हाईपावर कमिटी गठित की। इस कमिटी में वाडिया इंस्टीट्यूट के विशेषज्ञ और अन्य भू-वैज्ञानिक शामिल थे। कमिटी को विस्तृत रिपोर्ट देनी थी। लेकिन इसके गठन के बाद हुए लॉकडाउन के कारण इस कमिटी का कोई कार्य आगे नहीं बढ़ पाया।
चायना पीक पहाड़ी की तलहटी में हज़ारों की आबादी रहती है। इसमें हाईकोर्ट परिसर समेत हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, अन्य न्यायाधीशगण और महाधिवक्ता का आवास, के.एम.वी.एन. मुख्यालय, उत्तराखंड प्रशासन अकादमी, भारतीय शहीद सैनिक स्कूल सहित कई महत्वपूर्ण होटल समेत सैकड़ों आवासीय मकान भी शामिल हैं। इस चोटी से 1993 की अतिवृष्टि के कारण नयनापीक की पहाड़ी दरकने से तो पेड़ और मलबा बहकर नीचे के कई इलाकों तक पहुंच भी गया था। तब शेरवानी से लेकर मौजूदा हाईकोर्ट से ऊपर तक का इलाका मलबे से पट गया था। शहर के तमाम क्षेत्रों में सक्रिय भूस्खलनों ने इस स्वर्ग के मानिंद सुंदर शहर को चौतरफा संकट से घेर रखा है।
शहर के शीर्ष में अब फिर शुरू हुए इस भूस्खलन के अतिरिक्त शहर का वक्ष स्थल समझे जाने वाले लोअर माल रोड के धंसने के कारण शहर का खूबसूरत झील का घेरा बनाने वाला अपर माल रोड भी खतरे की जद में है। दरअसल माल रोड के ठीक ऊपर की पहाड़ी के भीतर भारी मात्रा में पानी रिसकर पहुंच रहा है। विशेषज्ञ बताते हैं कि पहाड़ियों में जलरिसाव रोकने के लिए नालों की मरम्मत बेहद जरूरी है, लेकिन चिन्ता की बात यह है कि रिसाव के पानी को झील तक पहुंचाने वाले 12 नाले गायब हो चुके हैं। ये सभी नाले संवेदनशील क्षेत्रों में थे। 
वर्ष 1880 में शेर का डांडा पहाड़ी में भूस्खलन हुआ था जिसने नैनीताल को भारी नुकसान पहुंचाया था। नैनीताल की लोवर माल रोड का बड़ा हिस्सा नैनी झील में धंस गया था। जिसको अस्थाई रूप से बमुश्किल विभाग ने रोका तो है लेकिन इसके स्थाई समाधान की आज भी दरकार है। शहर की बुनियाद बलिया नाला की पहाड़ियों का दरकना भी निरंतर जारी है। बलिया नाले का यह भूस्खलन और भू-धंसाव शहर के रईस होटल को पूरी तरह निगल कर मलियामेट कर चुका है। आधे हरी नगर और राजकीय इंटर कालेज को भी इसने मलियामेट कर डाला। कृष्णापुर का रास्ता लील लिया। यह अब हल्द्वानी को जाने वाले मार्ग को अपनी जद में लेने की और अग्रसर हो चुका है।
उत्तर प्रदेश के कुछ धार्मिक शहर और पौराणिक नगरी जो नदी और पहाड़ों से घिरे हुए हैं भी अछूते नहीं हैं। गौर करें तो नदियों के किनारे बसे उत्तर प्रदेश के पौराणिक ऐतिहासिक शहरों में प्रयागराज, वाराणसी जो प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र भी है, से लगाए मिर्जापुर शहर इत्यादि कई ऐसे नाम है जो अपनी ऐतिहासिकता के साथ-साथ कई गंभीर चुनौतियों, समस्याओं से भी जूझ रहे हैं।  लेकिन अनियोजित शहरीकरण और प्रकृतिक संसाधनों के दोहन की भूख ने इसके विशाल स्वरूप, सौंदर्य को नष्ट करने का जो सिलसिला प्रारंभ किया हुआ आज भी जा रही है। कालांतर में हर-भरे जंगलों पहाड़ों नदियों इत्यादि के स्थान पर वीरान पड़े जंगल और पहाड़ सूखी पड़ी नदियां ही नज़र आती है। कभी इन जंगलों में जो बेशुमार दुर्लभ वन्यजीवों को दौड़ते हुए देखा जा सकता था वह अब विलुप्त हो चुके हैं। इसके प्रमुख कारण पहाड़ों में अवैध खनन ब्लास्टिंग, हरे पेड़ों, जंगलों की धड़ल्ले से हो रही कटाई जिम्मेदार माने जा रहे हैं। इसलिए, भू-वैज्ञानिक पहाड़ों को बड़े पैमाने पर यांत्रिक उत्खनन और विस्फोट के अधीन करने से पहले भू-वैज्ञानिक और संरचनात्मक स्थिरता के एक महत्वपूर्ण मूल्यांकन की दृढ़ता से अनुशंसा करते हैं।
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