‘झूठ के पांव नहीं होते’ गलत साबित होने लगा है

हमारे समाज को लेकर कुछ नए-नए नाम सुनाई पड़ रहे हैं जैसे मीडिया समाज, सूचना समाज, नेटवर्क समाज आदि। समाज शास्त्रीय दृष्टिकोण से समाज को सदा सामाजिक रिश्तों के आधार पर परिभाषित किया जाता रहा है, लेकिन डिज़ीटल क्रांति के बाद पूर्व निर्धारित परिभाषाओं का शायद उतना मतलब नहीं रह गया। समाज में घटती अनेक घटनाओं ने काफी साफ कर दिया है कि आज के युग में रिश्तों से ज्यादा सूचनाओं, नेटवर्क या फिर आंकड़ों का बोलबाला है। क्या यह ठीक नहीं कि समाज विज्ञानों जैसे कि समाज शास्त्र, राजनीति विज्ञान, अर्थ-शास्त्र में पहले से प्रचलित अवधारणाओं को नए सिरे से देखा, समझा और परिभाषित किया जा सके। क्योंकि जैसे समाज वैसे ही लोकतंत्र और अर्थतंत्र को कई तरह के जोखिमों का सामना करना पड़ रहा है। यह सब मात्र भारत में नहीं घटित हो रहा, पूरा विश्व लोकतंत्र को लेकर अनेक प्रकार के ़खतरों से जूझ रहा है। एक बार हमारे लोकप्रिय नेता जयप्रकाश नारायण (जिन्होंने सम्पूर्ण क्रांति का नारा लगाया था) ने कहा था कि लोकतंत्र के पौधे का चाहे वह किसी भी किस्म का क्यों न हो तानाशाही में पनपना संदेहास्पद है, लेकिन आज बहुत से विचारक यह महसूस कर रहे हैं कि लोकतंत्र के पौधे को सही खुराक मिल नहीं पा रही और वह सुगंधित नहीं हो रहा क्योंकि मीडिया के सभी माध्यमों का मूल उद्देश्य अवाम के अधिकारों की पहरेदारी और उन्हें सुरक्षित रखने का हर सम्भव यत्न है।
विकसित देश अपनी जनता के मन को अपने अनुकूल बनाये रखने के लिए काफी धन खर्च करते हैं। मीडिया तकनीक ने हमें अपने-अपने कम्फर्ट ज़ोन (आरामगाह) प्रदान कर दिए हैं जिसके तहत हम अपने जैसे विचार वाले लोगों से संवाद करते हैं और अन्य लोगों को विरोधी समझने लगते हैं। जबकि अन्य लोगों से भी संवाद ज़रूरी होता है। ज्योति सिडाना ने अपने एक लेख में न्यायमूर्ति चद्रचूड़ की एक बात का उल्लेख किया कि उन्होंने एक कार्यक्रम में कहा था कि यह तय करना सरकार पर नहीं छोड़ा जा सकता कि वह सत्य तय करे। यहां तक कि वैज्ञानिकों, सांख्यिकीविदों, अनुसंधानकर्ताओं और विशेषज्ञों की राय हमेशा सच नहीं हो सकती क्योंकि हो सकता है कि उनकी कोई राजनीतिक सम्बंधता नहीं हो लेकिन उनके दावे वैचारिक लगाव, वित्तीय सहायता की प्राप्ति अथवा व्यक्तिगत  द्वेष के कारण प्रभावित हो सकते हैं।
आज के अकादमिक जगत में सूचना का विस्फोट है। आंकड़ों पर आंकड़ों का जाल बुना जा रहा है। इस सबसे समाज विज्ञानों का भविष्य ़खतरे के जाल में आ गया है। विद्यार्थी जो दुनिया देख रहे हैं वह अजीब है। उनके अंक उनकी मैरिट और नौकरी में उनके पैकेज को निर्धारित करते हैं न कि उनका ज्ञान और उनकी विषय की समझ को। यही कारण कि प्रत्येक विद्यार्थी अधिक से अधिक अंक प्राप्त करना चाहता है। आंकड़े भ्रम की स्थिति भी पैदा करते हैं। यहां सत्य अप्रासंगिक होता चला जा रहा है या सत्य विश्वास से परे होता जा रहा है। अफवाह आधारित तथ्यों का बोलबाला हो रहा है जिसे प्रचारित करने में सोशल मीडिया का पूरा ज़ोर रहता है। ऐसा वातावरण बना दिया गया है कि झूठ को बार-बार बोले जाने से वह सच लगने लगे। आज के समाज में झूठ और भ्रामक तथ्यों को सोशल मीडिया के माध्यम से शक्तिशाली वर्ग, सत्ता और अभिजन वर्ग द्वारा आसानी से प्रसारित और प्रचारित किया जा रहा है ताकि उन्हें निगरानी बढ़ाने का बहाना मिल सके। क्या अब हम निगरानीमूलक समाज में जीने के लिए बाध्य हो चुके हैं क्योंकि असुरक्षा के कारण हम सब कैमरे की नज़र में हैं। ज्योति सिडाना के शब्दों में आज हम सब बाज़ार का हिस्सा हैं और बाज़ार में कुछ भी निश्चित नहीं होता और यही अनिश्चितता व असुरक्षा समाज में विद्यार्थियों या किसानों की आत्महत्या के लिए ज़िम्मेदार है।
 इस झूठ को समझना, पहचानना और इसका विरोध करना अनिवार्य है नहीं तो जनपक्षधर्म ़खतरे में पड़ जाएगा क्योंकि लोकतंत्र विघटन की तरफ जाने वाला है। फर्क पड़ना चाहिए कि देश समाज में क्या चल रहा है?