हजार साल तक हरा-भरा रहने वाला खिरनी या खिन्नी का पेड़

छोटे शहरों और कस्बों के बाज़ारों में आज भी गर्मी के दिनों में एक बिल्कुल पकी हुई निंबोली के आकार और रंग का बेहद मीठा और स्वादिष्ट फल बिकता हुआ मिल जाता है। इसे खिरनी या खिन्नी कहते हैं। अगर आप हरिद्वार के कनखल क्षेत्र में जाएं तो यहां गंगा किनारे एक विशाल हराभरा पेड़ है, जिसके नीचे कहा जाता है कि गुरु गोविंद सिंह ने काफी दिनों तक तपस्या की थी। इसलिए यह बहुत पवित्र पेड़ माना जाता है। खिरनी दरअसल संस्कृति के क्षिरणी शब्द से घिसकर बना है, जिसका मतलब दूध होता है। वास्तव में इसक् फल के अंदर स्वादिष्ट दूध जैसा रस तो होता ही है, इसकी टहनियों, पत्तियों आदि को भी तोड़ें तो उनसे दूध निकलता है। आयुर्वेद में इस फल और पेड़ का बहुत ही महत्व माना गया है।
खिरनी या खिन्नी एक जमाने में इतना महत्वपूर्ण और औषधीय गुणों से भरा फल था कि इसका सिर्फ राजा लोग ही सेवन करते थे, दूसरों के लिए यह उपलब्ध नहीं था। इसलिए आयुर्वेद में इसे राजफल या फलाध्यक्ष भी कहते हैं। सपोटेसी कुल के इस वृक्ष का वानस्पतिक नाम मनिलकरा हेक्सान्द्रा है। इसके पेड़ की सबसे बड़ी खासियत यह है कि अगर इसे काटा न जाए या किसी दूसरी तरह से नुकसान न पहुंचाया जाए, तो यह एक हजार साल से भी ज्यादा समय तक हराभरा और जिंदा रहता है। इसलिए यह पर्यावरण को स्वस्थ बनाये रखने में अपनी बड़ी भूमिका निभाता है।
भारत में यूं तो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, तमिलनाडु आदि कई प्रांतों में यह पेड़ पाया जाता है, लेकिन अब देश के कई हिस्सों में इसे लगाया भी जा रहा है। खिन्नी के सबसे ज्यादा और विशालकाय पेड़ मध्य प्रदेश के मांडू इलाके में पाये जाते हैं। मांडू को राजाओं का निवास स्थान माना जाता है, कहते हैं यहां विशेष तौर पर इन्हें लगवाया गया था। वैसे एक जमाने तक खिरनी का पेड़ जंगल में स्वत: ही उगता था, लेकिन उष्णकटिबंधीय जलवायु में सहज रूप से उगने और विकसित होने वाले इस पेड़ के अनेक औषधीय फायदों को देखते हुए और ड्राईफ्रूट में भी इसे शामिल किए जाने के कारण, अब देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी कई जगह खिन्नी के पेड़ बकायदा लगाये जा रहे हैं। भारत के बाहर यह चीन, श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार, थाईलैंड, कंबोडिया और वियतनाम में भी पाया जाता है। इसके पत्तों और फल के कच्चे रहने पर जो दूध निकलता है, उससे कई तरह की आयुर्वेदिक औषधियों के साथ गोंद भी बनता है, जो खाने की भी कई चीजों में डाला जाता है। 
पर्यावरण की दृष्टि से यह इसलिए महत्वपूर्ण पेड़ है, क्योंकि यह पूरे साल हराभरा रहता है जिस कारण यह न केवल बड़े पैमाने पर पक्षियों को आवास देता है बल्कि वातावरण की कार्बनडाइक्साइड को भी सोखने में बड़ी भूमिका निभाता है। खिरनी के पेड़ में सितम्बर से दिसम्बर के बीच फूल लगते हैं और अप्रैल से जून के बीच इसके निंबोली के आकार वाले फल पक जाते हैं। बारिश के दिनों में इसके फलों में बेहद मीठे होने के कारण कीड़े लगने लगते हैं। जहां तक इस पेड़ की लकड़ी की उपयोगिता की बात है तो यह बहुत मज़बूत और बहुत चिकनी होती है। इसलिए इसकी लकड़ी का जहां शानदार फर्नीचर बनता है, वहीं कई तरह की दूसरी औद्योगिक ईकाईयों में इसका इस्तेमाल होता है। इसके फल के सेवन से शरीर में शीतलता आती है। खिन्नी का फल पचने में भारी होता है, साथ ही यह मोटाप भी बढ़ाता है, इसलिए इसे मोटापे से परेशान लोगों को कम खाना चाहिए। 
खिरनी के फल को चरक संहिता में जीवनीय श्रेणी में रखा गया है, जिसका मतलब यह है कि यह जीवन देने वाला फल है। ज्योतिषशास्त्र में खिरनी को चंद्रमा का प्रतीक माना गया है। इसलिए इसकी जड़ को रत्न की तरह पहनने की सलाह दी जाती है और माना जाता है कि ऐसा करने बिगड़े काम ठीक हो जाते हैं। खिरनी के फल में जो बीज पाया जाता है, उनसे पीले रंग का तेल निकलता है, जिसका खाद्य तेल के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इसे ‘अमृत तेल’ के श्रेणी में रखा जाता है। भारत के बाहर मैक्सिको और मध्य अमरीका में भी एक जमाने में खिरनी का वही इस्तेमाल होता था, जो अपने यहां होता है।
मध्य प्रदेश में भील आदिवासी खिरनी के पेड़ को औषधीय वृक्ष मानते हैं और इसकी छाल से लेकर पत्तियों के दूध आदि हर चीज़ का अलग-अलग परेशानियों में इस्तेमाल करते हैं। एनसाइक्लोपीडिया ऑफ इंडियन मेडिसिन में खिरनी को खून साफ करने वाला, पेट दर्द और सूजन खत्म करने वाला तथा खाद्य विषाक्तता को दूर करने वाला फल माना गया है। इसकी छाल को उबालकर, उसके पानी से नहाने में शरीर के कई तरह के चर्म रोग खत्म हो जाते हैं। खिरनी में अनेक ऐसे तत्व पाये जाते हैं, जो शरीर की अंदरुनी जैविक क्रियाओं को सक्रिय करते हैं। इसलिए यह पेड़ स्वास्थ्य और पर्यावरण की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।
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