खतरनाक गोलबंदियों के बीच एस. जयशंकर की ईरान यात्रा के निहितार्थ !

इस समय जो चिंताजनक ग्लोबल स्थिति है, उसकी पृष्ठभूमि में भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर की 15 जनवरी, 2024 को ईरान की यात्रा का महत्व बहुत अधिक हो जाता है। हालांकि इस समय गंभीर मुद्दा लाल सागर में मालवाहक जहाजों के सुरक्षित आने-जाने का है, जिसके लिए अमरीका व इंग्लैंड ने ईरान-समर्थित हूती के ठिकानों पर लगातार दो दिन हमले किये व बदले में हूती ने भी अदन की खाड़ी में अमरीकी शिप पर हमला किया, नतीजतन लाल सागर को त्यागने वाले आयल टैंकर्स की संख्या निरंतर बढ़ रही है, एनर्जी सेक्टर बुरी तरह से प्रभावित हुआ है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आगे के रोडमैप के लिए रूस के राष्ट्रपति वाल्दामिर पुतिन से लम्बी टेलिफोन वार्ता करनी पड़ी है। 
लेकिन जयशंकर ने अपनी यात्रा ईरान के सड़क व शहरी विकास मंत्री महरदाद बज़रपाश के साथ मुलाकात से की और चाबहार पोर्ट व इंटरनेशनल नार्थ साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर पर वार्ता की। इससे प्रतीत होता है कि कुछ समय के ठंडेपन के बाद नई दिल्ली की एक बार फिर से इस्लामिक गणराज्य में दिलचस्पी बढ़ गई है और इन्फ्रास्ट्रक्चर सहयोग पर पुन: फोकस लौट आया है। जयशंकर ने एक्स पर पोस्ट किया, ‘हमारी द्विपक्षीय वार्ता ने चाबहार पोर्ट व आईएनएसटीसी (इंटरनेशनल नार्थ साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर) कनेक्टिविटी प्रोजेक्ट के दीर्घकालीन फ्रेमवर्क में भारत की भूमिका पर फोकस किया। क्षेत्र में समुद्री शिपिंग पर खतरों के बारे में भी बात हुई। महत्वपूर्ण यह है कि इसका जल्द हल निकले।’ गौरतलब है कि भारत और ईरान के द्विपक्षीय रिश्ते उस समय खटाई में पड़ गये थे, जब भारत ने ईरान से तेल आयात करना बंद कर दिया था; क्योंकि अमरीका ने ईरान परमाणु समझौते से अलग होकर तेहरान के विरुद्ध पूर्ण प्रतिबंध लगा दिए थे। 
इससे चाबहार भी प्रभावित हुआ, हालांकि प्रतिबंधों में उसे अपवाद के तौर पर छोड़ दिया गया था। एक समय ऐसा आ गया था कि इस स्ट्रेटेजिक पोर्ट के लिए भारत को शिप-टू-शोर क्रेन सप्लायर्स भी नहीं मिल पा रहे थे। इस बीच चीन ने अपनी उपस्थिति का विस्तार किया और ईरान के साथ अपने रिश्तों को मज़बूत करते हुए 25 वर्ष का विस्तृत समझौता किया। अमरीकी प्रतिबंधों के बावजूद चीन ईरान से तेल खरीदता रहा। बीजिंग व तेहरान के बीच जो यह नई दोस्ती हुई है, उससे नई दिल्ली व तेहरान के बीच संबंधों में बड़ी अड़चने उत्पन्न हो रही हैं। इन्हीं सबके चलते दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंधों में ठंडापन आ गया था। इसके अतिरिक्त अमरीका की अफगानिस्तान से अराजक वापसी ने भी भारत के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी थीं। नई दिल्ली को भरोसा था कि वाशिंगटन व तेहरान के बीच जो अस्थायी समझौता है, वह अफगानिस्तान में उसके स्ट्रेटेजिक हितों की सुरक्षा करने के लिए पर्याप्त रहेगा। 
लेकिन ईरान परमाणु समझौते के रद्द होने, अमरीका की अफगानिस्तान से वापसी, आदि ने भारत की योजनाओं को पटरी से उतार दिया। बहरहाल, इधर जब यह कुछ हो रहा था, तो उधर भारत के खाड़ी के अरब देशों से संबंधों में नाटकीय सुधार आ रहा था। चूंकि कुछ अरब देश इजराइल (जोकि भारत का महत्वपूर्ण पार्टनर है) से रिश्ते सामान्य कर रहे थे, तो भारत का अरब देशों की ओर झुकने का ट्रेंड अधिक मज़बूत हुआ। आई2यू2 (भारत, इज़रायल, अमरीका व यूएई) जैसे प्लेटफॉर्म्स ने नई दिल्ली का रुझान सुन्नी अरब पश्चिम एशिया की ओर अधिक कर दिया। इस वजह से भारत अब दो पाटों के बीच में फंसा है- एक तरफ ईरान की ‘प्रतिरोध की धुरी’ है, तो दूसरी तरफ अमरीका-इज़रायल-पार्टनरशिप है। पिछले साल चीन की मध्यस्थता से सऊदी अरब व ईरान के बीच हुए समझौते के बावजूद गाज़ा में युद्ध और हूती के साथ स्थिति से मालूम होता है कि पश्चिम एशिया के ये दोनों प्रतिद्वंदी अब भी एक-दूसरे के करीब नहीं हैं बल्कि बहुत दूर हैं।  सवाल है ऐसे में भारत को क्या करना चाहिए? खाड़ी के अरब देशों में आधुनिकता का दौर चल रहा है, इज़रायल की मज़बूत अर्थव्यवस्था है और भारत-अमरीका की स्ट्रेटेजिक पार्टनरशिप मज़बूत होती जा रही है। इसलिए नई दिल्ली के हित इसी पाले में बेहतर नज़र आते हैं। ईरान पर से प्रतिबंध जल्द हटने नहीं जा रहे हैं और वह चीन व रूस से पार्टनरशिप में भी है। भले ही नई दिल्ली की पश्चिम एशिया योजना में इस समय ईरान शामिल न हो, लेकिन इसके बावजूद तेहरान से सम्पर्क के सारे पुल जलाना नई दिल्ली के हित में नहीं होगा। तेहरान को भी नई दिल्ली की ज़रूरत है ताकि बीजिंग से संतुलन बना रहे। इसलिए जयशंकर की तेहरान यात्रा का महत्व बढ़ जाता है। जयशंकर ने ईरान के विदेश मंत्री हुसैन अमीर-अब्दुल्लाहियन से वार्ता के दौरान इस बात पर बल दिया कि भारत गाज़ा में मानवीय युद्धविराम के पक्ष में है और इज़रायल पर 7 अक्तूबर, 2023 को हुए हमास हमले की निंदा करता है। उन्होंने ईरान से यह भी आग्रह किया कि वह लाल सागर में समुद्री सुरक्षा पर मंडरा रहे खतरे को संबोधित करे, जहां हूती ने कमर्शियल जहाजों को निशाना बनाया है। 
जयशंकर ने अपनी वार्ता के दौरान अफगानिस्तान व यूक्रेन में स्थिति और ब्रिक्स सहयोग को भी स्पर्श किया। गौरतलब है कि अमरीका के हमले के बाद हूती ने पहले अरब सागर में अमरीकन डिस्ट्रॉयर पर एंटी-क्रूज मिसाइल दागी और उसके अगले दिन अदन की खाड़ी में अमरीका की एक अन्य शिप पर मिसाइल से हमला किया। इससे लाल सागर में जहां तनाव अधिक बढ़ गया है, वहीं यह भी स्पष्ट हो गया है कि अमरीका की स्ट्राइक हूती के जहाजों पर हमले रोकने के लिए पर्याप्त नहीं है। ईरान पर ही राजनयिक दबाव डालना होगा कि वह हूती की लगाम कसे। जयशंकर की अचानक तेहरान यात्रा का एक मकसद यह भी प्रतीत होता है। लाल सागर में हूती हमलों के कारण एनर्जी सेक्टर पर गहरा प्रभाव पड़ा है। गाज़ा युद्ध के कारण पहले तो कंटेनर शिप्स ही इस क्षेत्र से रास्ता बदल रहे थे, लेकिन अमरीकी स्ट्राइक के बाद आयल टैंकर्स भी मार्ग बदल रहे हैं। 
15 जनवरी 2024 को छह और टैंकर रास्ता बदलते हुए देखे गये, जिससे यह संख्या बढ़कर 15 हो गई है। इस स्थिति में भारत सरकार को भी व्यापार बाधाओं के लिए तैयार हो जाना चाहिए। लो-वैल्यू/हाई-वॉल्यूम निर्यात, फैक्ट्रीज़ के लिए आवश्यक आयतित पार्ट्स, रुसी तेल आदि उन चीज़ों में जिन पर लाल सागर की स्थिति के कारण खतरा है। जिन चीज़ों में मार्जिन कम है उनके लिए मार्ग बदलने के कारण जो खर्च में वृद्धि होगी उसे बर्दाश्त करना कठिन है। भारत सरकार की भूमिका सीमित है, लेकिन इन प्रभावों को कम करने में महत्वपूर्ण हो सकती है बशर्ते निम्न सुझावों पर गौर किया जाये- भारतीय कम्पनियों को महत्वपूर्ण उत्पादों के लिए सब्सिडी दी जाये ताकि मार्ग बदलने के कारण अतिरिक्त भाड़ा व बीमा खर्च में हुई वृद्धि की भरपाई की जा सके; रूस का तेल स्वेज़ नहर की जगह दूसरे मार्ग से मंगाने की व्यवस्था की जाये; बिना किसी तरफदारी के ईरान सहित सभी पश्चिम एशिया देशों से आर्थिक सहयोग बढ़ाया जाये; लाल सागर में सभी भारतीय शिप्स की सुरक्षा सुनिश्चित की जाये और यमन को मानवीय मदद देने के तरीके तलाशे जायें ताकि संपर्क के नये मार्ग खुलें।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर