पंजाब से योग्य उम्मीदवारों का ही चयन करें राजनीतिक दल

बात कहने का हुनर, 
हौसला ना हो जिनमें,
ऩाखुदा ऐसे कि साहिल
 पे डुबो दें कश्ती।
-लाल फिरोज़परी
ऩाखुदा का अर्थ मल्लाह होता है, अभिप्राय रहनुमा ही होता है। अफसोस की बात यह है कि स्वतंत्रता के बाद पंजाब तथा सिखों को अधिकतर रहनुमा किश्ती डुबोने वाले मिले हैं। बहुत ही काबिल, ज़हीन और विश्वसनीय बुद्धिजीवी प्रो. हरदेव सिंह विर्क ने एक पुस्तक लिखी है, ‘फाइटिंग फार सिख काज़िज़ इन इंडियन पार्लियामैंट’ (भारतीय संसद में सिख काज़ के लिए लड़ते हुए)। इस पुस्तक में विद्वान लेखक ने इस संबंध में संसद में सिख मामलों पर बोलने वाले सारे पंजाबी सांसदों के भाषण खंगाले हैं और उन्हें सिर्फ पांच भाषण ही काबिल-ए-ज़िक्र लगे हैं। पहला लोकसभा के पूर्व स्पीकर स्वर्गीय हुकम सिंह का, दूसरा सिरदार कपूर सिंह का, तीसरा तथा चौथा दो भाषण प्रसिद्ध पत्रकार खुशवंत सिंह के हैं तथा पांचवां सिख चिन्तक एवं अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व चेयरमैन तरलोचन सिंह का है। अभिप्राय स्वतंत्रता के बाद संसद में प्रभावशाली ढंग से सिख मामलों तथा सही तरह आवाज़ बुलंद करने वाले सिर्फ चार व्यक्ति ही थे। यदि संसद में पंजाब के मामलों को ठीक तरह तथा प्रभावशाली ढंग से पेश करने का लेखा-जोखा किया जाए तो शायद पांच भाषण भी ऐसे न मिलें क्योंकि सिख मामलों पर चुने गये पांच भाषणों में से तीन तो 1984 के ब्लू स्टार आप्रेशन तथा सिख कत्लेआम के प्रभाव में ही किये गये हैं, परन्तु स्वतंत्रता के 76-77 वर्षों में पंजाब से सैकड़ों लोकसभा तथा राज्यसभा सांसद चुने गये और इन चारों को छोड़ कर कोई भी अपनी छाप नहीं छोड़ सका, क्यों? ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हम सही प्रतिनिधि ही नहीं चुनते रहे। पार्टियों को योग्यता एवं दूरदर्शी नहीं अपितु विजेता तथा वफादार उम्मीदवार चाहिएं। उन्हें न तो कौम के प्रति और न ही पंजाब के प्रति कोई हमदर्दी थी। अधिकतर को निजी हित अधिक प्यारे थे। राज्यसभा में तो हालत यह थी कि संत फतेह सिंह ने अपने विश्वासपात्र चालक किक्कर सिंह को ही राज्यसभा सदस्य बना दिया था। जत्थेदार टोहरा ने भी कुछ ऐसे लोग सदस्य बनवाए जिनमें एक तो सिर्फ इस लिए सदस्य बना लिया गया कि उसने कहा था कि टोहरा साहिब, राज्यसभा में आपका बस्ता उठने वाला भी तो कोई होना चाहिए। यह बात उस सांसद ने एक बार मुझे स्वयं ही बताई थी। 
खैर, बात तो यह है कि लोकसभा चुनाव सिर पर हैं और पंजाब तो क्या, देश भर में दलबदली का तमाशा हो रहा है। खैर, हम बात पंजाब की कर रहे हैं। पहले आम आदमी पार्टी ने रातो-रात कांग्रेस से सुशील कुमार रिंकू को ‘आप’ में लाकर, विजयी बना कर सांसद बना दिया और अब वही रिंकू जिसे ‘आप’ बाकायदा उम्मीदवार भी घोषित कर चुकी थी, रातोरात भाजपा में चले गये हैं। कांग्रेस की ओर से तीन बार सांसद रहे रवनीत सिंह बिट्टू जिनके दादा बेअंत सिंह मुख्यमंत्री रहे, चाचा, भुआ तथा भाई मंत्री रहे, अचानक भाजपा में चले गये हैं। कांग्रेस के पूर्व विधायक रहे गुरप्रीत सिंह जी.पी. को ‘आप’ ने उम्मीदवार घोषित कर दिया है अभिप्राय यह, कि पंजाब की पार्टियां सिर्फ राजनीतिज्ञों को ही उम्मीदवार बना रही हैं। इसलिए सभी दोषी हैं। चाहे वह कांग्रेस है, अकाली दल है, भाजपा है या ‘आप’। ‘आप’ ने तो हद ही कर दी थी, जब पंजाब से भेजे राज्यसभा सदस्यों में से चार तो वे थे जो पंजाब में रहते ही नहीं थे। एक तो पंजाबी भी नहीं, जबकि शेष तीन में से दो की अन्य खूबियों के साथ-साथ सबसे बड़ी खूबी उनका अथाह अमीर होना ही बताया जाता है। 
अब ज़रा देखें कि जब ई.डी. द्वारा ‘आप’ प्रमुख अरविंद केजरीवाल को शराब घोटाले में गिरफ्तार कर लिया गया। चाहे इसका फैसला तो अदालत ही करेगी कि वह दोषी हैं या नहीं, परन्तु पंजाब की आम आदमी पार्टी दिल्ली में दिल्ली  वालों से कहीं अधिक शोर इस गिरफ्तारी के विरोध में मचाती दिखाई दी। इस विरोध मार्च में सबसे ज़ोरदार भूमिका पंजाब ‘आप’ के पहले संयोजक तथा पंजाब में पार्टी खड़ी करने वाले पंजाब के मंत्री हरजोत सिंह बैंस तथा वित्त मंत्री हरपाल सिंह चीमा निभाते दिखाई दिये, परन्तु हैरानी की बात है कि पंजाब के सातों राज्यसभा सदस्यों में से कोई भी इस प्रदर्शन में दिखाई नहीं दिया। हालांकि पता चला है कि इनमें से विक्रमजीत सिंह साहनी तथा राघव चड्ढा तो विदेश में थे और संदीप पाठक पर्दे के पीछे कुछ खास भूमिका निभा रहे थे, परन्तु सवाल तो उठता ही है न, कि जो लोग अपने सबसे बड़े नेता के पक्ष में भिन्न-भिन्न कारणों से नहीं बोल सकते, वे पंजाब के पक्ष में क्या बोलेंगे?
इसलिए आवश्यक है कि अब लोकसभा चुनाव में पंजाब के लोक पार्टी कतारों से ऊपर उठ कर, पंजाब-पक्षीय सोच, विज़न (दूर-दृष्टि) के मालिकों तथा बौद्धिक कंगाली से बचे हुए, पंजाब-पक्षीय स्टैंड लेने के समर्थ ऐसे लोगों को चुनें जो केन्द्रीय या स्टेट एजेंसियों के चक्रव्यूह में न फंस सकते हों। परन्तु लोग भी क्या करें? इस समय किसी अकेले व्यक्ति के लिए चुनाव लड़ना संभव ही नहीं तथा दूसरी ओर पार्टियां उम्मीदवार भी वही पुराने घिसे-पिटे विचारों वाले दे रही हैं। चुनना तो उनमें से ही करना पड़ना है। हमारी राजनीतिक पार्टियों के प्रमुखों को भी अपील है कि वे बार-बार आज़माये हुए तथा विधानसभा, राज्यसभा तथा लोकसभा में पंजाब की बात उठाने में विफल हुए व्यक्तियों को ही टिकटें न दें, नहीं तो 2027 में फिर लोग इन पार्टियों को नकार कर कोई नया विकल्प ढूंढने के लिए मजबूर हो जाएंगे। परिणाम चाहे उसका भी सार्थक निकले या नहीं। इस स्थिति में इकबाल अज़ीम का एक शे’अर पंजाब के लोगों के लिए समर्पित है :
ये झूठे ़खुदा मिल 
के डुबो देंगे स़फीना,
तुम हादी-ए-बर-हक 
को सदा क्यों नहीं देते।  
(यह झूठे रब्ब (मल्लाह) मिल कर कर बेड़ी डुबो देंगे, आप हक-सच पर चलने वाले रहनुमा को आवाज़ क्यों नहीं देते?) 
पंजाब की राजनीतिक हालत
कभी ़खुद पे कभी हालात पे रोना आया,
बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया।
-साहिर लुधियानवी
पंजाब की राजनीति प्रतिदिन एक नया मोड़ ले रही है। अकाली दल ने वापस पंजाब से पंथ पहले की नीति पर चलने की घोषणा की है। यह अकाली दल के लिए अच्छा ही हुआ कि चाहे वह भाजपा से समझौते के कहीं खिलाफ नहीं बोली, परन्तु उनका भाजपा की ओर से समझौता न करने की घोषणा से पहले किया गया यह फैसला उन्हें रानजीतिक तौर पर बर्बाद करने से बचा गया है। बेशक भाजपा कहेगी कि समझौता न करने का फैसला तथा घोषणा हमने पहले की है। वैसे हमने इन कालमों में पहले ही साफ-साफ लिख दिया था कि ऐसा प्रतीत होता है कि भाजपा इस बार अकाली दल से समझौता नहीं करेगी। सिर्फ समझौता न करने का भार अकाली दल के कंधों पर डालने की कोशिश करेगी। ़खैर, भाजपा देश में बनाए जा रहे ‘400 पार’ के माहौल, केन्द्र सरकार होने तथा दूसरी पार्टियों के नेताओं को शामिल करके जीत का माहौल बनाने की कोशिश में है, परन्तु वास्तव में प्रचार ही अधिक है। लोग अब आज़माये हुए नेताओं के साथ नहीं हैं, परन्तु इस बार भाजपा का वोट प्रतिशत बहुत बढ़ेगा। उसके कई और कारण भी हैं। जहां तक अकाली दल का संबंध है, चाहे उसने मजबूरी में ही पंथ तथा पंजाब की ओर मुंह किया है, परन्तु यह फैसला अकाली दल के खो चुके वोट बैंक को वापस लाने में काफी सहायक होगा, क्योंकि अकाली दल के बिना पंजाबियों के पास पंजाब तथा पंथ की तर्जमानी करने के लिए कोई अन्य बड़ी पार्टी नहीं, अकाली दल (मान) या (अमृतसर) तथा बसपा अपने तौर पर इतनी समर्थ नहीं कि प्रत्येक सीट पर टक्कर दे सकें। फिर बसपा तो पंजाब की क्षेत्रीय पार्टी भी नहीं है। 
नि:संदेह कांग्रेस की हालत अभी तक बहुत अच्छी प्रतीत होती है, परन्तु उसके नेताओं का टूटना उसके लिए वरदान भी हो सकता है और अभिशाप भी। अब जब नवजोत सिंह सिद्धू कोई बयानबाज़ी नहीं कर रहे तो कांग्रेसी नेताओं को आपसी विरोध छोड़ कर उन्हें प्रचार के लिए बुलाना चाहिए और अपना घर संभालने की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। जिन लोगों के भाजपा में जाने की चर्चा है, उनके साथ दो टूक बात करके मामला अभी ही आर-पार करा लेना चाहिए। वैसे अच्छी बात यह हो कि पार्टी अपना रूप-चेहरा बदलने के लिए सिर्फ राजनीतिक नेताओं को ही नहीं, अपितु कुछ पंजाब-पक्षीय चेहरों को भी मैदान में उतारे। हां, यह सलाह अन्य पार्टियों पर भी लागू होती है। आम आदमी पार्टी राजसत्ता में है। राजसत्ता में बैठी पार्टी को जहां राजसत्ता का लाभ होता है, वहीं सत्ता विरोधी रुझान (एंटी इन्कम्बैंसी) का नुकसान भी झेलना पड़ता है, परन्तु जिस प्रकार भाजपा ‘आप’ के सत्ता में होने के बावजूद उनके घोषित उम्मीदवार तथा मौजूदा सांसद तथा विधायक को तोड़ने में सफल रही है, वह ‘आप’ के लिए खतरे की घंटी है। ऊपर से केजरीवाल का जेल चले जाना भी पार्टी के चुनाव प्रचार की राजनीति को बुरी तरह प्रभावित करेगा। नि:संदेह कमान अब केजरीवाल की पत्नी सुनीता केजरीवाल सम्भाल रही हैं, परन्तु वह उनकी जैसी चाणक्य नहीं हैं। ऊपर से पंजाब के उच्चाधिकारियों पर भ्रष्टाचार के आरोपों में की जा रही ई.डी. की कार्रवाई बहुत से उच्चाधिकारियों में एक डर पैदा करेगी तथा वे सत्तारूढ़ पार्टी की मदद करने से पीछे हटेंगे। 
इसलिए इस बार पंजाब में लोकसभा चुनाव में पंजाब का चुनावी मुकाबला बाकी देश से अलग तथा अधिक दिलचस्प होगा। ऐसा प्रतीत होता है कि चारों में से जो भी पार्टी 30 प्रतिशत वोट लेने में सफल रही, वह प्रबल जीत की ओर बढ़ सकती है।
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