कर्नाटक में कांग्रेस दे रही भाजपा-जद (एस) को कड़ी टक्कर

कर्नाटक में लोकसभा चुनाव हो रहे हैं जिसके लिए 26 अप्रैल और 7 मई को सभी 28 निर्वाचन क्षेत्रों में मतदान होंगे। कांग्रेस पार्टी और भाजपा-जद (एस) गठबंधन मतदाताओं का समर्थन हासिल करने के लिए प्रतिस्पर्धा करेंगे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भाजपा उम्मीदवारों के प्रचार के लिए कई बार राज्य का दौरा कर चुके हैं। भाजपा को पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा का समर्थन प्राप्त है, जो लिंगायत समुदाय के बीच प्रभावशाली हैं जो राज्य में एक महत्वपूर्ण वोट बैंक हैं। यह चुनाव कर्नाटक के भविष्य के लिए महत्वपूर्ण हैं और इसके इतिहास में एक महत्वपूर्ण क्षण हैं।
कर्नाटक अतीत में कांग्रेस का गढ़ रहा है। इसने आपातकाल के बाद भी इंदिरा गांधी का समर्थन किया, जो इसके राजनीतिक महत्व का एक प्रमाण है। यह ऐतिहासिक महत्व इंदिरा गांधी और सोनिया गांधी की जीत से स्पष्ट है, दोनों ने कर्नाटक में कांग्रेस पार्टी के लिए सीटें जीतीं।
ये चुनाव सिर्फ एक प्रतियोगिता नहीं है बल्कि कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी-जनता दल (सेक्युलर) गठबंधन के बीच एक बड़ी लड़ाई है। वे कर्नाटक के राजनीतिक परिदृश्य में भाजपा के दोबारा प्रवेश का प्रतीक हैं। चुनाव नीतिगत प्राथमिकताओं और शासन शैली को बदल सकता है, जिससे राज्य की अर्थ-व्यवस्था और समाज के विभिन्न क्षेत्रों पर संभावित प्रभाव पड़ सकता है। परिणामों का लोगों के जीवन पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा, जिससे शासन प्रक्रिया में उनकी भागीदारी और समझ महत्वपूर्ण हो जायेगी।
भाजपा दक्षिण में अपने क्षेत्रीय प्रभुत्व को मजबूत करने, राष्ट्रीय राजनीति में अपनी स्थिति बढ़ाने और दक्षिण भारत में अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करने के लिए आगामी कर्नाटक चुनावों में विजयी होना चाहती है। इसके विपरीत, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस राज्य में अपनी सरकार की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। साथ ही, जद (एस) अत्यधिक प्रतिस्पर्धी राजनीतिक माहौल में जीवित रहने का प्रयास कर रहा है। संक्षेप में, जद (एस) राज्य में एक राजनीतिक दल के रूप में अपनी प्रासंगिकता बनाये रखने का प्रयास कर रहा है।
कर्नाटक में भाजपा का प्रचार अभियान प्रधानमंत्री मोदी की उपलब्धियों और कांग्रेस की विफलताओं पर केंद्रित है। यह दो प्रभावशाली समुदायों, लिंगायत और वोक्कालिगा को लक्षित करता है, जो इसकी चुनावी रणनीति के लिए महत्वपूर्ण हैं। राज्य में एक प्रमुख समुदाय होने के नाते लिंगायत पारंपरिक रूप से भाजपा का समर्थन करते रहे हैं। इसके विपरीत, एक अन्य प्रभावशाली समुदाय वोक्कालिगा, जद (एस) का मजबूत जनाधार रहा है। भाजपा की चुनावी सफलता के लिए इन समुदायों पर जीत हासिल करना महत्वपूर्ण है।
भाजपा को कुछ स्थानीय संघर्षों का सामना करना पड़ रहा है। 2014 के बाद पहली बार पार्टी में खुली बगावत हुई है। इसकी वजह भाजपा-जेडी (एस) गठबंधन है, जिसे अभी तक अच्छा समर्थन नहीं मिला है। कांग्रेस के भी अपने बागी उम्मीदवार हैं। कांग्रेस कर्नाटक में एससीए एसटी और मुसलमानों पर भरोसा रख रही है।
कांग्रेस सरकार ने पिछले साल किये गये पांच आवश्यक चुनावी गारंटियों को लागू कर दिया है, जिसमें महिलाओं के लिए मुफ्त बस यात्रा, शिक्षा के लिए धन में वृद्धि और रोज़गार सृजन शामिल था। ये वायदे क्षेत्र के मतदाताओं की विशिष्ट चिंताओं को दूर करने और सामाजिक कल्याण और आर्थिक विकास के लिए पार्टी की प्रतिबद्धता को प्रतिबिंबित करने के लिए तैयार किये गये थे।
एडिना न्यूज 18 और इंडिया टुडे ग्रुप के तीन चुनाव पूर्व सर्वेक्षण कर्नाटक के आगामी चुनावों के लिए परस्पर विरोधी परिणामों की भविष्यवाणी करते हैं। एडिना का अनुमान है कि कांग्रेस 17 सीटें जीतेगी और भाजपा-जेडी (एस) गठबंधन को 11 सीटें मिलेंगी। न्यूज 18 का अनुमान है कि एनडीए 25 सीटें जीतेगी, कांग्रेस केवल 3। इंडिया टुडे ग्रुप का अनुमान है कि एनडीए 53 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 24 सीटें जीतेगी। इंडिया गठबंधन को 42 प्रतिशत वोट शेयर के साथ केवल चार सीटें मिलने की उम्मीद है। ये सर्वेक्षण वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य का एक स्नैपशॉट प्रदान करते हैं। वे पाठकों को चुनाव के संभावित परिणामों का अनुमान लगाने में मदद कर सकते हैं।
2019 के चुनावों से एक महत्वपूर्ण बदलाव आया है जब कांग्रेस और जद (एस) सहयोगी थे। भाजपा का लक्ष्य पुराने मैसूर में वोक्कालिगा वोटों को सुरक्षित करना और चुनाव को अपने पक्ष में झुकाना है। पुराने मैसूर क्षेत्र का एक प्रमुख समुदाय वोक्कालिगा पारंपरिक रूप से जद (एस) का समर्थन करता रहा है। इस समुदाय पर जीत हासिल करने की भाजपा की रणनीति में जाति-आधारित पहुंच, विकास के वायदे और जद (एस) सरकार की विफलताओं को उजागर करना शामिल है। सफल होने पर यह रणनीति चुनाव परिणाम और राज्य के राजनीतिक परिदृश्य पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकती है।
वोट पाने के लिए दोनों पार्टियां पैसा और उपहार खर्च करने को तैयार हैं। दोनों गठबंधनों की पार्टियों के पास पैसा है और मतदाताओं को लुभाने के लिए सभी को भारी रकम चुकानी पड़ रही है। कई उम्मीदवारों को पार्टी लेबल की चिंता नहीं है। उनकी चिंता सत्ता हासिल करने की है। देखना होगा कि आगामी लोकसभा चुनाव में कर्नाटक के मतदाता किस तरह अपने मताधिकार का प्रयोग करते हैं। (संवाद)