सुनन्दा

घबराकर हड़बड़ाई-सी सुनन्दा बिस्तर पर उठ बैठी। चीख निकल भी जाती तो कोई सुनने वाला नहीं था सिवाय घर की दीवारों के। सुनन्दा ने उठकर पानी पिया, भयंकर सपना देखने के बाद उसका गला सूखने लगा था। यह भयानक सपना उसे अक्सर ही दिखाई देने लगा था, परन्तु अब उसे आदत ही हो गई थी इसकी। वह देखती कि कोई उसके कमरे में आया और तकिया उठाकर उसके मुंह पर रखकर जोर से दबाने लगा है। उसकी सांस घुटने लगती और वह अपने प्राण बचाने के लिए छटपटाती परन्तु दबाव देने वाले हाथों से छूट नहीं पाती और इसी छटपटाहट में उसकी आंख खुल जाती। आज भी वही हुआ था, भयंकर सर्दी के बावजूद माथे पर पसीना चुहचुहा आया था और वह हांफ रही थी। उसने बेडस्विच की ओर हाथ बढ़ाया तो पूरा कमरा रोशनी से भर गया। उसे अब स्वयं पर हंसी भी आ रही थी और खीझ भी क्योंकि यह सपना वह अक्सर ही देखती थी और इसका कारण भी जानती थी। हालांकि अब उस तरह का कोई कारण भी नहीं था और न ही वे सारी परिस्थितियां थीं, पर फिर भी इस सपने से तो उसका पीछा ही नहीं छूट रहा था। जिसके कारण उसकी नींद ही पूरी नहीं होती और सिर में दर्द रहने लगा था। 
उठकर टेबल पर रखे जग से गिलास में उंडेलकर उसने पानी पिया। बिस्तर पर आकर वह फिर सिर तक रज़ाई खींच कर लेट गई पर नींद तो उखड़ चुकी थी, अब क्या आती। सुनन्दा उस भयानक सपने के बारे में सोच रही थी जिसके कारण आधी रात को उसकी नींद उखड़ गई थी। वैसे तो अब यह सपना नहीं आना चाहिए था, पर वह अचेतन में कुछ ऐसा बस गया था कि...!
यूँ तो घटना घटे बरसों बीत गए थे, फिर भी वह कभी-कभी उसे याद करके ही सिहर उठती। हालांकि अब तो इतना लम्बा समय गुजर गया था कि यह सब उसे एक कहानी जैसा लगता लेकिन इस सपने का वह क्या करे, यह तो उसे कुछ भी भूलने नहीं दे रहा था। कभी-कभी उसे लगता कि जो उसने देखा-सुना वह सच था या इसी तरह का कोई सपनाड़ फिर तुरन्त अपने ही तर्क से उसे काट देती। यदि वह सच नहीं था तो रात दस बजे वह घर से क्यों निकल आई थीड़ जबकि उसे पता था कि जंगल के सोलह किलोमीटर के रास्ते में उसे जंगली जानवरों का सामना भी करना पड़ सकता है। उसे यह भी पता था कि उसे रात के इस पहर कोई गाड़ी भी सड़क पर नहीं मिलने वाली लेकिन मिल गई यह उसका भाग्य था। यदि नहीं मिलती तोड़ यदि पूनम को अचानक शिमला नहीं जाना पड़ता और उसे बीच जंगल कोई बाघ-भालू मिल जाता तोड़
खुद को घड़ी के पेंडुलम की स्थिति में पा रही थी सुनन्दा। हालांकि ऐसी घटनाओं के बारे में उसने सुना-पढ़ा ज़रूर था और अखबारों में भी आए दिन कुछ न कुछ छपता ही रहता था पर उसके घर में भी यह सब हो सकता है, यह तो सुनन्दा सोच भी नहीं सकती थी पर यह सच था। उसे लगता था कि वह मौत से नहीं डरती पर ऐसा नहीं था। कहीं न कहीं मौत से हर इन्सान डरता है, पर यह कैसी मौत थी जिसकी योजना बनाई जा रही थी।  
उस समय तो वह दो जोड़ी कपड़े लेकर मायके चली गई थी पर वहां भी उसका मन नहीं लगा। उसने वहां किसी को कुछ भी नहीं बताया था। वह जानती थी कि कोई कुछ नहीं करेगा और सब उसे समझौता करने को ही कहेंगे, पर कब तक करेगी वह समझौते भी। यह घटना समझौता करने वाली भी तो नहीं थी। दूसरे ही दिन खाना खाते हुए भाभी ने पूछा, ‘दीदी! घर में कहकर नहीं आई हो, कुछ हुआ है क्या?’
‘क्यों...?’
‘गिरीश का फोन आया था। पूछ रहा था, मम्मी आई हैं क्या? मैंने हां कहा तो पूछ रहा था, क्या कहा उन्होंने। बस इसीलिए लगा कि कुछ हुआ तो नहीं।’
‘नहीं, हुआ तो कुछ नहीं, बस मन नहीं किया बताने का। यूं ही चली आई। क्यों, मेरा आना अच्छा नहीं लगा तुम्हें?’ उसने जवाब में भाभी से ही पूछा तो वह खिसिया गई।
‘अरे नहीं! वह गिरीश कह रहा था न कि आपसे क्या कहा मम्मी ने, इसलिए मुझे लगा शायद।’
‘तुमने क्या कहा उसे?’
‘मैं क्या कहती, जब कोई बात ही नहीं है तो।’
‘चलो, ठीक हुआ। ऐसी कोई बात नहीं है।’ और सुनन्दा ने बात टाल दी।   
फिर उसे मायके आए जब आठ दिन हो गए तो भाभी ने उससे पूछ ही लिया, ‘दीदी! आप अगर अभी रुकती हो तो मैं चार दिन मायके हो आऊं? आप का फायदा उठा लूँ।’
सुनन्दा समझ रही थी उसका मतलब। वह सीधे-सीधे पूछना चाह रही थी कि सुनन्दा कब तक वहां रहेगी पर सुनंदा का वापस जाने का मन ही नहीं था। क्या करेगी वहां जाकर, जहां उसकी हत्या की योजनाएं बनाई जा रही थीं। पर यहां भी तो रुकना असम्भव था। न अब मां है न पिता जी, वे होते तो बात और थी। अब भाई-भाभी का समय है, सभी कुछ तो बदल गया है। फिर भी पता नहीं उसने क्या सोचकर भाभी को कहा,
‘मुझे तो सलोगड़ा जाना है कान्ता के घर। कल ही जा रही हूँ। तुम किसी और दिन चली जाना मायके। जब बच्चों को छुट्टी होती है तब।’ और फिर सुबह सवेरे ही वह अपना बैग लेकर कान्ता के घर के लिए निकल पड़ी।
कान्ता और सुनन्दा दोनों बचपन की सहेलियां थीं और यह भी सच था कि सुनन्दा की समस्या का हल वहीं निकल सकता था, इसलिए सुनन्दा ने सलोगड़ की बस पकड़ी थी और दो घण्टे बाद वह कान्ता के सामने बैठी थी। आखिर शिमला से सलोगड़ा दूर ही कितना था।
‘पता नहीं क्यों, पिछले कुछ दिनों से तुझे लेकर मन बड़ा बेचैन था पर बस घर गृहस्थी के झमेलों में मैं चाहकर भी तुझे फोन नहीं कर पाई।’ दोपहर को खाने की मेज़ पर ही इन्हें खुलकर बात करने का मौका मिल सकता था। इस समय तक समीर दफ्तर जा चुके होते हैं।
तू फोन कर भी लेती तो मसला हल नहीं होता, इसलिए मैं खुद ही आ गई।’ सुनन्दा ने हंसते हुए कहा। (क्रमश:)