कहानी-सुनन्दा

(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)

‘पर मसला क्या है, पहले यह तो पता चले।’
‘उस दिन सपने में किसी ने मेरे मुंह पर तकिया रखकर मेरा मुंह ज़ोर से दबाया था। मेरा दम घुटने लगा था और मैं बुरी तरह छटपटाने लगी थी, तभी नींद खुल गई। अब तो यह सपना आता ही रहता है।’ सुनन्दा ने बदस्तूर हंसते हुए कहा।
‘बकवास मत कर। इतनी सी बात से घबराकर बिना किसी को कुछ भी बताए घर से निकले, वह सुनन्दा तो हो नहीं सकती।’
‘हां, पर उस रात तो यही हुआ था।’
‘अब बकेगी भी सच या नहीं?’ कान्ता उसकी पहेलीनुमा बातों से खीझने लगी थी। तब सुनन्दा भी गम्भीर हो गई।
‘तुझे पता है न कान्ता कि हमारे दोनों ट्रक मेरे नाम हैं, घर और सेब का बाग भी?’
‘अरे! यह भी क्या बात हुई, जब तुमने बनाया है तो तुम्हारे ही तो नाम से होगा पड़ोसियों के तो नहीं हो सकता। अब जीजू अचानक ही निकल गए तो ईश्वर की इच्छा है। उन्होंने तो हर चीज़ ही तुम्हारे साथ सांझी की थी।’
‘हां कांता। यही सांझ तो मेरी जान की दुश्मन बन गई है।’
‘मतलब?’
‘मतलब यह कि मेरे ही घर में मुझे जान से मारने की हर पल नई-नई योजनाएं बनाई जा रही हैं।’
‘फिर वही बात।’
‘सुरेश के जाने के बाद धीरे-धीरे मेरे हाथ से बहुत कुछ निकल गया है। गिरीश ने व्यापार के सिलसिले में आने-जाने वालों का हवाला देकर मकान का एक बड़ा हिस्सा पहले ही अलग कर लिया है। उसका कहना है कि इस तरह से हमारी जिन्दगी में निजता नहीं रहती, सो घर के एक बड़े हिस्से को दीवार उठाकर अलग कर दिया है।’
‘और उसके बीवी-बच्चे? वे तो तेरे ही साथ होंगे?’
‘नहीं, मेरे पास बस दो पुराने कमरे हैं। कहते हैं आपको क्या करना है ज्यादा, बस आपके लिखने-पड़ने के लिए काफी है। वो जो पिछले हिस्से में बने पुराने कमरे हैं न, उनमें मेरी ज़रूरत का सामान रखवा दिया था बहू ने। अब गिरीश रोज़ ही बिना रकम भरे चैक लाकर सामने रख देता है।’
‘और तुम हस्ताक्षर कर देती होगी चुपचाप।’
‘न करूं तो सारा गांव सिर पर उठा लेता है, जोर-जोर से बोलने लगता है तो आवाज़ गांव तक जाती है।’
‘फिर?’ 
‘फिर एक दिन मैं अपनी ज़रूरत के लिए कुछ पैसे निकालने बैंक गई तो पता चला कि पच्चीस लाख की जगह सिर्फ चार हज़ार बचे थे खाते में। मेरे हैरान होने पर बैंक मैनेजर ने सारे चैक लाकर मेरे सामने रख दिए। हाँ हस्ताक्षर तो सब जगह मेरे ही थे। मैं घबराकर दूसरे बैंक में गई, वहां देखा तो वहां दो लाख में से 18 हज़ार बचे हुए थे। वहां से मैं उसी दिन कुछ पैसे निकालकर लाई थी, ताकि चैक दूँ भी तो वहाँ पैसे न होने से वह खाली लौट आए। पर इसकी नौबत ही नहीं आई।
अब मेरे पास बस पांच लाख की एक एफडी बची है। शायद इसका उसे पता नहीं है। यह एक्सीडेंट से एक हफ्ता पहले ही की थी सुरेश ने।’
‘और तेरा जेवर?’
‘वह लॉकर में सुरक्षित है। इधर बहुत दिनों से गिरीश सेब का बाग अपने नाम करने की बात कर रहा है। पर मैंने इन्कार कर दिया था, तो घर में महाभारत मच गया था। ऐसा कैसे कर दूँ? मैंने छोटी-सी उम्र में इस बाग को लगाया और जी जान से इसमें मेहनत की है। इसके बाद भी काबू तो हर चीड़ पर उसी का है। सेब वही तो तोड़ता-बेचता है। मेरा तो बस नाम ही है।’ वह हांफने लगी थी, फिर मेज पर रखे जग की तरफ हाथ बढ़ाते हुए बोली,  ‘ला, पानी दे। गला सूख गया बोलते बोलते।’ सुनन्दा ने फीकी हंसी हंसते हुए जग अपनी तरफ खींचा तो कान्ता ने टेबल पर रखा गिलास उठाकर उसे पकड़ाते हुए कहा,
‘फिर?’ 
‘फिर यह कि बस इसीलिए मेरी हत्या की योजना बनाई जा रही है, क्योंकि अब मैंने कठपुतली बनने से इन्कार कर दिया है।’
‘पर तेरी हत्या की योजना बन रही है, यह किसने कह दिया तुझसे? लोग तो आग लगाते हैं और तू कब से आने लग गई लोगों की बातों में?’ कांता की आंखें मारे भय, आश्चर्य और अविश्वास के फैल रही थीं।
‘अगर मैंने अपने कानों से न सुना होता तो मैं भी यकीन नहीं करती पर...’ सुनन्दा चुप हो गई।
‘पर क्या?’ कान्ता ने देखा, सुनन्दा के माथे पर पसीने की बूंदें उभर आई थीं, हां! ऐसा कौन है जो मौत से नहीं डरता?
‘चल जाने दे। फिर करेंगे बात इसके बारे में...’
अभी कान्ता की बात पूरी नहीं हुई थी कि सुनन्दा फिर बोलने लगी, ‘रात के शायद नौ बजे होंगे, मैं खाना खाकर अपने कमरे में आ गई थी। खिड़की से पूर्णिमा का चांद झांक रहा था। तुझे तो पता है कि मुझे चांदनी बहुत अच्छी लगती है, तो मैं दरवाजा खोलकर बाहर निकल आई। तभी मुझे नीचे वाले खेत में दो साये दिखाई दिए। वे खेत की आड़ लेकर खड़े थे और वहां अंधेरा था। 
सेब सीज़न में चोर उचक्के भी तो घूमते हैं, इसलिए मैं चौकन्ना होकर देखने और सुनने की कोशिश करने लगी, तभी मुझे उनकी आवाज़ सुनाई दी। वे धीरे-धीरे बोल रहे थे फिर भी मुझे पता चल गया कि एक तो मेरा बेटा गिरीश ही है और एक हमारी गाड़ी का ड्राइवर जसमीत था। हमारे दोनों ट्रक सेबों की पेटियों से भरे दिल्ली जाने को तैयार खड़े थे पर ये यहां क्या करने आए हैं? घर में या दुकान पर बैठकर क्या आराम से बात नहीं कर सकते थे? अब तो मेरे कान खड़े होने स्वाभाविक ही थे।’ कान्ता हैरानी से उसे बोलते देख रही थी। सुनन्दा ऐसे बोल रही थी जैसे कोई सम्मोहन में बोलता है।
‘ड्राइवर कह रहा था, ‘ना बाबू जी! यह काम मैं नहीं कर सकता।’ 

(क्रमश:)