कहानी-सुनन्दा

(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)
पुजारी जी से आश्वासन पाकर सब निश्चित हो गये तो दिन के समय कान्ता बाजार जाकर सुनन्दा के लिए कुछ ज़रूरत का सामान और कुछ कपड़े वगैरह खरीद लाई थी, क्योंकि वह तो एक छोटा बैग लेकर ही घर से निकली थी अब यहीं रहना है तो ज़रूरत का हर सामान चाहिए ही है। कान्ता को खुशी हो रही थी कि वह सुनन्दा के लिए कुछ कर सकी। अब सुनन्दा भी पूरी तरह आश्वस्त थी।
दूसरे दिन सुनन्दा को मन्दिर परिसर में ही एक कमरा मिल गया और उसने बाकायदा मन्दिर का सारा काम सम्भाल लिया। कान्ता और समीर वापस लौट गए थे। सुनन्दा खुश थी कि आज उसकी गणित में हाई पोजीशन बड़े काम आई थी। बलदेव कभी-कभी आकर उसके हाल-चाल ले जाता। उसने सुनन्दा के मोबाइल का सिम भी बदलवा दिया था। कान्ता भी फोन करके उसका हाल-चाल लेती रहती थी पर यह सपना उसे अक्सर ही आ जाता। हां अब वह इस सपने के कारण ज्यादा बेचैन नहीं रहती थी। इसी तरह दो साल बीत गए और सुनन्दा मन्दिर के कर्मचारियों के बीच ऐसे घुलमिल गई जैसे वे उसके सगे सहोदर हों। ज्यादा पैसों की उसे ज़रूरत नहीं पड़ती थी क्योंकि रहना खाना उसका मन्दिर से था और कुछ राशि जो उसके पास थी वह उसके पास थी ही। फिर एक दिन आ बैल मुझे मार की तर्ज पर उसने बैंक में अपना खाता कांगड़ा लाने के लिए प्रार्थना-पत्र दे दिया। एक न एक दिन तो उसे यह करना ही पड़ता। 
हुआ यह कि खाता तो कांगड़ा के बैंक में स्थानान्तिरत हो गया पर गिरीश भी पूरी नज़र रख रहा था बैंक पर। जैसे ही उसे इसका पता चला वह तुरन्त कांगड़ा पहुँच गया। बैंक से उसे सुनन्दा के ठिकाने का पता लगाने में क्या देर लगती? और वह सुनन्दा के कार्यालय में जा धमका।  ‘आपने क्या सोचा था कि हम आपका पता नहीं लगा सकेंगे?’ उसने बिना किसी भूमिका के सीधा सुनन्दा को जा लिया। सुनन्दा का पूरा ध्यान अपने काम पर था इसलिए उसने गिरीश को भीतर आते नहीं देखा। एक पल के लिए वह सकपकाई लेकिन उसने बड़ी कुशलता से खुद को संभाला और सीधे होते हुए पूछा, ‘आप कौन हैं, मैंने आपको पहचाना नहीं बेटा।’  ‘वाह... वाह.. वाह! क्या बढ़िया एक्टिंग कर लेती हैं आप? अपने बेटे ही को नहीं पहचान रहीं?’ गिरीश ने व्यंग्य से हंसते हुए कहा।
‘बेटा...? किसका बेटा?’ मेरा तो कोई बेटा है ही नहीं। आपको कोई गलतफहमी हुई लगती है।’ कहते हुए सुनन्दा ने सामने से जाते हुए माली को आवाज़ दी।
‘राम सिंह! बाबू जी को भेजना जरा, पता नहीं यह कौन हैं और मुझे जबरदस्ती अपनी माँ बना रहे हैं।’
‘जी दीदी! अभी भेजता हूँ।’ कहकर माली बाहर निकल गया तो गिरीश बिफरता हुआ बोला, ‘यह क्या नाटक लगा रखा है आपने, पहले तो आप घर से बिना बताए आ गईं और अब मुझे पहचानने से ही इन्कार कर रही हैं, पर मैं भी आप ही का बेटा हूँ। क़ागज़ लेकर आया हूँ सारे। चुपचाप साइन कर दीजिए और चाहे तो कुएं में डूबिए या खाई में। हमें आपकी कोई ज़रूरत नहीं है।’
‘हद हो गई। मान न मान मैं तेरा महमान। पर अगर मैं आपकी माँ भी हूँ तो क्या आप मुझसे जबरदस्ती कहीं भी हस्ताक्षर करवा सकते हैं? कभी नहीं।’
‘तुम ऐसे नहीं मानोगी बुढ़िया, मुझे अब अपना असली रूप दिखाना ही पड़ेगा। सोचा था आराम से साइन कर दे और जहां मरती है मर। पर नहीं न।’ गिरीश जो बिना किसी को पूछे कार्यालय की कुर्सी पर बैठकर बात कर रहा था तमतमाकर उठ खड़ा हुआ तो सुनन्दा एकदम चिल्ला उठी, ‘बाबू जी।’
इसी समय बड़े पुजारी जी ने भीतर प्रवेश किया तो सुनन्दा घबराई हुई दौड़कर उनके पीछे छिप गई। ‘क्या हुआ बेटा...’ उन्होंने सुनन्दा के सिर पर हाथ फेरते हुए गिरीश को देखा और पूछा, ‘आप कौन हैं और मेरी बेटी को परेशान क्यों कर रहे हैं?’
‘आप की बेटी...? पर ये तो मेरी माँ हैं। हमसे झगड़कर यहां आ गई हैं और हम इन्हें कहां-कहां खोजते रहे। अब दो साल बाद मिली हैं तो मुझे पहचानने से ही इन्कार कर रही हैं।’
‘सुनन्दा ठीक कह रही है। इसकी कोई सन्तान नहीं है और यह मेरी बेटी है। तुम्हें धोखा हुआ है। तुम मेरी बेटी को परेशान नहीं कर सकते।’
‘पर आप मेरी बात...’
‘मुझे कुछ नहीं सुनना है, आप जा सकते हैं यहां से।’ पुजारी जी सारा माजरा समझ चुके थे।
‘ऐसे कैसे मान लूँ, यह तो मेरी मां ही हैं, इनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया है इसलिए घर से भागी हैं।’ ‘मेरी बेटी का मानसिक संतुलन बिल्कुल ठीक है और फिर कह रहा हूँ कि आप यहां से चले जाएं। यह मन्दिर परिसर हमारा है। पहले तो आप यह बतायें कि आपने यहां आने के लिए किससे पूछा? हमारे कार्यालय में आकर मेरी बेटी को परेशान करने लगे और अब मुझसे बहस भी कर रहे हैं। जब मैं आपसे कह रहा हूँ कि यह मेरी बेटी है और मैं अपको नहीं जानता तो जबरदस्ती आप मेरे नाती बन रहे हैं। निकलो... निकलो बाहर।’  पुजारी जी के तेवर देखकर गिरीश असमंजस में पड़ गया पर हार मानने को तैयार नहीं था। बगल में लटके बैग से कुछ कागज निकालता हुआ बोला, ‘यह इनके साइन हैं, आप यहां इनसे साइन करवा दीजिए। अगर साइन नहीं मिले तो मैं मान लूँगा कि मुझे गलत सूचना मिली है।’ ‘कोई साइन नहीं करेगा और तुम जाते हो कि मैं पुलिस को बुलाऊं। एक तो बिना पूछे हमारे कैम्पस में घुसकर हमारी बेटी को परेशान कर रहे हो और ऊपर से हमें रौब भी दिखा रहे हो।’ फिर बाहर खड़े रामसिंह को देखकर बोले, ‘बल्लू को बुलाओ और पुलिस स्टेशन फोन करो।’ कुछ कर्मचारी जो शोर सुनकर बाहर इकट्ठे हो गए थे, भीतर आ गये। एक पहलवान नुमा आदमी आगे आता हुआ बोला, ‘आपने बुलाया बाबा!’ ‘तुमसे कहा था न कि सुनन्दा का ध्यान रखना, पता नहीं कौन बेहूदा इन्सान भीतर घुसकर उसे कब से परेशान कर रहा है और तुम्हें पता ही नहीं। उठाओ... बाहर फेंको इसे। दुबारा दिखाई न दे यह आदमी यहां... सुना तुमने?’ अब गिरीश ने चुपचाप खिसकने में ही भलाई समझी। बल्लू आगे बढ़ता, इससे पहले ही गिरीश पीछे मुड़ चुका था बाहर निकलने के लिए। अब पुजारी जी ने पुकारकर कहा, ‘तुम जो भी हो, दोबारा तुम्हें यहां देख लिया तो हड्डी पसली एक कर दी जाएगी। समझे?’ पुजारी जी ने उसे दोबारा वहां दिखाई न देने की चेतावनी दे डाली थी। सुनन्दा अब तक थर-थर कांप रही थी। पुजारी जी ने उसके सिर पर हाथ रखकर उसे आश्वस्त किया तो उसने हां में सिर हिला दिया। 
इस घटना के बाद उसे अकेले कहीं भी जाने नहीं दिया जाता। वैसे यह भी सच है कि उसे कोई ज़रूरत तो पड़ती ही नहीं थी। सबकुछ वहीं मिल रहा था। गिरीश ने भी शायद समझ लिया था कि सुनन्दा का पीछा करने से कुछ होने वाला नहीं है। वैसे भी तो सब कुछ उन्हीं के कब्ज़े में था यह सोचकर उसके होंठों पर मक्कार-सी मुस्कुराहट उभर आई थी और वह लापरवाही से कंधे झटकता हुआ बाहर निकल गया। अब वह वहां पूरी तरह सुरक्षित थी।  कुछ समय बाद ही सुनन्दा ने अपनी एफडी तोड़कर तीन लाख रुपया मन्दिर को दे दिया था।  (समाप्त)