कहानी -सुनन्दा

(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)
‘क्
यों नहीं कर सकता? क्या उस बुढ़िया में तुझसे ज्यादा ज़ोर है?’ बुढ़िया सुनकर मेरे कान खड़े हो गए थे, क्योंकि मुझे पता है कि गिरीश आजकल पीठ पीछे मुझे बुढ़िया कहने लगा है, चालीस साल की बुढ़िया।’ 
वह व्यंग्य से हँसी, ‘ड्राइवर क्या कह रहा था,
‘जो भी समझो आप, इसके अलावा और कोई काम हो तो कर दूँगा पर यह हत्या... राम राम। नहीं बाबूजी।’
‘क्या यार! बस मुंह पर तकिया रखकर ज़ोर से दबाया और मामला फिट।’
‘ना बाबूजी ना। यह मेरे बस का नहीं है। आप चाहें तो इसी वक्त से नौकरी छोड़ सकता हूँ और आपको भी यही राय दूँगा कि यह खयाल दिल से निकाल दो।’ वह हाथ जोड़े खड़ा था।
‘चल यार। यह काम भी मैं ही कर लूंगा, पर यह बता, फेंक तो देगा कि वहांँ भी मैं साथ चलूं?’ 
‘चलो फेंक तो दूँगा ही। पर है तो गलत ही।’
‘तुम बोरी और रस्सी तैयार रखना। हाथ पैर बांध कर बोरी में डालकर लूहरी वाले पुल से सतलुज में फेंक देना। मगरमच्छ का पेट भर जाएगा। ठीक है न? ठीक चार बजे रस्सी बोरी ले कर आँगन में आ जाना।’ वह बेशर्मी से हंसा था।
‘ठीक है बाबू जी। पर एक बार फिर सोच लो।’ जसमीत डरा हुआ था, यह साफ समझ में आ रहा था। 
‘जा यार, अपना काम कर। खा-पी और आराम से सो जा। इनाम वापस आकर ले लेना।’
फिर वे दोनों खेत से नीचे उतर गए तो मैं भी अपने कमरे में आ गई। अब समझने को कुछ बचा ही कहां था। चुपचाप बैग में थोड़े कपड़े डाले, पर्स और अल्मारी खंगाली, जो कुछ मिल गया एक छोटे बटुए में डाला और हाथ में टार्च लेकर बाहर निकल आई। अब तक गिरीश के कमरे की बत्ती बुझ चुकी थी। सीधे सड़क पर न उतरकर मैं खेतों से होते हुए काफी दूर आकर सड़क पर उतरी। अब मेरा घर आधा किलोमीटर दूर था। अब तक चांद काफी ऊपर आ चुका था इसलिए टार्च जलाने की ज़रूरत नहीं पड़ी। पैरों में हवाई चप्पल के कारण काफी तेज़ी से चलकर घर को चार किमी पीछे छोड़कर अब मैं साथ के गांव में पहुंच चुकी थी। मोड़ के बाद मैं सीधे गांव के नीचे थी, तभी मैंने देखा मेरी मित्र पूनम और उसका पति शंकर बैग उठाए गांव से नीचे उतर रहे थे। मैं ठिठक कर पीछे ही रुक गई। शंकर ने सड़क के साथ ही बने अपने गैराज से गाड़ी निकाली और पूनम को गाड़ी में बैठने को कहा। मैंने सोचा भाग्य आजमा लिया जाए सो मैं सामने आ गई, ‘अरे दीदी तुम? इतनी रात को और पैदल, क्या हुआ? कुशल तो है न...?’ हैरान-सा शंकर बोला।   
‘हाँ, पर क्या मुझे साथ ले चलोगे? बाकी बातें रास्ते में करेंगे न। इतनी रात को तुम निकले हो तो कोई तो परेशानी होगी ही। चलो... चलो।’ मैंने कहा तो पूनम भीतर सरकते हुए बोली, ‘अरे आओ न... इसमें पूछने वाली क्या बात है? जब जा ही रहे हैं तो तुम भी चलो।’
फिर मैंने उनको बातों में ऐसा उलझाया कि उन्हें मुझसे कुछ पूछने का होश ही नहीं रहा। पूनम की माँ को पक्षाघात हुआ था, इसलिए वे तुरन्त ही शिमला जाने के लिए निकले थे। पूनम मां को लेकर बहुत चिन्तित थी सो मुझे भी आसानी हो गई और मैं उसे पूरे रास्ते हौसला देती रही। इस तरह उसे कुछ पूछने का मौका ही नहीं मिला और मैं सुबह होने से पहले ही शिमला अपने मायके में थी।’
‘क्या तुमने भाभी को यह सब बताया था?’
‘राम भजो जी! तुम क्या सोचती हो वह मेरी मदद करेगी? उल्टे नमक-मिर्च लगाकर भाई को भी भड़का देगी।’
‘तो अब क्या करने का इरादा है तुम्हारा। घर तो तुम लौटोगी नहीं।’
‘प्रश्न ही नहीं उठता। अब तुम्हीं लोगों को मेरी समस्या हल करनी है।’
‘अच्छा! तुम रुको, मैं चाय बनाकर लाती हूँ। समीर के आने का समय भी हो गया है आते ही होंगे।’ कहते हुए कान्ता उठकर चाय बनाने चली गई। इसी समय समीर ने घर में प्रवेश किया।
‘अह्हा! अरे आप कब आईं साली साहिबा! तभी मैं भी कहूँ ये घर क्यों महक रहा है?’ समीर सुनन्दा को देखकर चहके। फिर उसे गम्भीर देखकर बोले, ‘क्या हुआ? कुछ परेशानी है?’
‘अरे नहीं जीजू! बस थोड़ी थकान हो रही है। आप हाथ-मुँह धो लीजिए, हम चाय के लिए आपका इन्तज़ार ही कर रहे थे। मैं अभी जाने वाली थोड़े न हूँ। आराम से बात करेंगे।’ सुनन्दा बोली। रात को कान्ता ने समीर को सारी कहानी सुनाई तो समीर भी सकते में रह गएए ‘यह तो बड़ी समस्या है। चलो कल बात करते हैं, कल रविवार भी है।’
सुबह सवेरे ही गिरीश का फोन आ गया। वह सुनन्दा के बारे में पूछने लगा तो समीर ने कह दिया कि उनके पास तो नहीं आईं। वह नहीं चाहता था कि सुनन्दा किसी नई मुसीबत में फंस जाए।
दो दिन तक वे तीनों इसी समस्या पर गहन चिन्तन करते रहे। समीर हर तरह कोशिश कर रहा था कि सुनन्दा हल्का महसूस करे और ठंडे दिमाग से काम लिया जाए इसलिए उसने चार दिन की छुट्टी ले ली और वे तीनों कांगड़ा चले गए। यहां समीर के एक वकील मित्र बलदेव का घर था, वे आगामी योजना पर विचार भी कर सकते थे और उन्हें उचित कानूनी परामर्श भी मिल सकता था इसलिए ही समीर ने कांगड़ा की योजना बनाई थी।
कांगड़ा आकर बृजेश्वरी मन्दिर में कमरा लेने का परामर्श उन्हें सुनन्दा ने ही दिया था। वह किसी पर बोझ भी नहीं बनना चाहती थी, हालांकि वकील बलदेव सुनन्दा से पहले मिल चुका था पर समीर और कान्ता को भी यही ठीक लगा। सुबह सवेरे ये तीनों कांगड़ा पहुँच गए। मन्दिर की धर्मशाला में कमरा भी मिल गया तो नहा-धोकर सब लोग मन्दिर पहुंच गए। (क्रमश:)
चाय नाश्ते के बाद समीर ने बलदेव को फोन करके मन्दिर में ही बुला लिया था। कमरे के बाहर ही बरामदे में धूप में कुर्सियाँ निकालकर वे अभी बैठे ही थे कि बलदेव आ गया और थोड़ी नाराज़गी दिखाते हुए बोला, ‘तुम्हारे लिए मेरे घर में जगह नहीं थी क्या जो तुमने मन्दिर में डेरा जमाया है?’
‘नहीं यार! तुझसे एक विशेष मामले पर बात करनी थी और घर में तो आने-जाने वाले लगे ही रहते हैं। बात बाहर जा सकती है।’
‘क्या हुआ... कुशल तो है न?’ बलदेव चौकन्ना हो गया तो समीर ने सुनन्दा की समस्या बताते हुए कहा, ‘यह तो साफ है कि अब इनका घर लौटना ‘आ बैल मुझे मार’ कहना होगा। फिर भी इनकी सुरक्षा कैसे और कहां हो सकती है इसके लिए कानून क्या कहता है, इस पर विचार करना है।’
‘हूँ...! समस्या तो गम्भीर है और कानून तो यह कहता है कि पुलिस में रिर्पोट करके इन्हें अपने लिए सुरक्षा की मांग करने के साथ-साथ गिरीश को उत्तराधिकार से वंचित करने की मांग भी करनी चाहिए पर यहां सबसे पहली जो दिक्कत आएगी, वह गवाही की आएगी। क्योंकि कोर्ट तो गवाही मांगता है और आपके पास गवाही कोई होगी नहीं। क्यों?’ बलदेव ने सुनन्दा की तरफ देखा।
‘वैसे तो यह सब मैंने खुद ही अपने कानों से सुना है, पर अगर गवाही हो भी तो मैं इन कोर्ट-कचहरी के चक्करों से दूर रहना चाहती हूँ। दूसरी बात यह भी है कि मैं अब उन लोगों की शक्लें भी नहीं देखना चाहती और केस करने के बाद मुझे बार-बार उनका सामना करना पड़ेगा, जो मैं हरगिज नहीं चाहती। इसके अलावा कोई रास्ता बताइए।’ सुनन्दा का दो टूक जवाब सुनकर सभी सोच में पड़ गए।
‘सलोगड़ा इसके रहने का इंतजाम तो हो सकता है पर हमारी दोस्ती इसके सभी रिश्तेदारों को पता है, इसलिए....’ कान्ता ने बात अधूरी छोड़ दी।
‘आप ठीक कह रही हैं...’ बलदेव ने सोचते हुए कहा, ‘आय का साधन क्या हो सकता है इनका?’
‘एक एफडी है, उससे कुछ काम शुरू किया जा सकता है। मकान किराए पर ले लूँगी पर रहना कहां है, जहां वे लोग मेरा पीछा न करें यह सोचना बहुत ज़रूरी है। क्योंकि सबसे बड़ी समस्या सेब का बाग और वे दो ट्रक हैं जो मेरे नाम पर हैं। हैरानी इस बात की है कि इन लोगों के दिमाग में यह खुऱाफात आई ही क्यों जबकि कोई हिस्सेदारी भी नहीं है जिस के कारण उन्हें मेरी हत्या की योजना बनानी पड़ी। खैर, जो भी हो यह मैं उनके नाम नहीं करूंगी। खाते रहें और खुश रहें शायद पिछले जन्म का कोई कर्ज है। बस मैं यह रिश्ता हमेशा के लिए तोड़ना चाहती हूँ।’
‘थोड़ा समय दो समीर! कोई रास्ता निकालता हूँ।’ और बलदेव वकील उठ खड़ा हुआ।
‘ठीक है, मैं चार दिन की छुट्टी लेकर आया हूँ। अभी हम चिंतपुर्णी और चामुंडा माता के दर्शन करने के लिए जाएंगे। तू चलता है तो चल।’
‘नहीं समीर, मेरे केस लगे हैं। तुम लोग रुकोगे तो यहीं न?’
‘हां! अभी हम लोग मां पीताम्बरी के दर्शन करने जाएंगे। कल चिंतपुर्णी और फिर चामुंडा। हम सम्पर्क में तो हैं ही।’
‘ठीक है, तो अभी मैं चलता हूँ।’ 
कल उन्हें वापस लौटना था। आज वे सब माता चामुंडा के दर्शन करके लौटे थे कि गिरीश का फोन फिर आ गया,
‘हां गिरीश बोलो।’ समीर ने कहा तो सब के कान खड़े हो गए। समीर ने माइक ऑन कर दिया। गिरीश कह रहा था, ‘मामी तो कह रही थी कि वे सलोगड़ा जाने की बात कहके घर से निकली थीं और आप कह रहे हैं कि वे नहीं आईं। पता करिए न क्या हुआ? वे ठीक तो हैं न?’
‘हो सकता है कि तुम्हारी मां सलोगड़ा आई हों, पर हम तो देवियों की यात्रा पर हैं। घर पर ताला देखकर लौट गई होंगी, फोन करके पूछ लो न।’ समीर ने जवाब दिया।
‘पता नहीं क्या हुआ, उनके फोन का स्विच ऑफ जा रहा है, कई बार फोन करके देखा है। लगता है अब उनके गुम होने की रिपोर्ट करनी पड़ेगी।’
‘मैं क्या कहूँ इस बारे में, मुझे भी सूचना देना। सचमुच चिंता होने लगी है अब तो।’ उधर से फोन कट गया तो तीनों जोर से हंस पड़े। दरअसल सुनन्दा ने पूनम की गाड़ी में बैठते ही फोन का स्विच ऑफ कर दिया था।
‘अरे भई क्या हुआ, हमें भी बताइए तो हम भी हंस लेते हैं।’ बलदेव ने भीतर आते हुए कहा, तो समीर बोला, ‘मान गए सुनन्दा तुम्हारे बेटे को। कितना बड़ा शातिर है?’ फिर उसने बलदेव को सारी बात बताते हुए पूछा, ‘हां तो आपने क्या सोचा है वकील साहब?’
‘आप कम्प्यूटर चला लेती हैं क्या?’ बलदेव ने समीर को जवाब देने के बजाय सुनन्दा से पूछा, तो सुनन्दा के हां में सिर हिलाने पर वह खुश होता हुआ बोला, ‘तब बन गया काम। इसी मन्दिर में एक कम्प्यूटर ऑप्रेटर की ज़रूरत है। कमरा आपको मन्दिर में मिल जाएगा और भोजन भी, बस और कुछ वे नहीं देंगे। क्या आप यहां रहना चाहेंगी? मैंने मुख्य पुजारी जी से बात कर ली है, वे अभी आते ही होंगे। यहां परिसर में मन्दिर के कुछ और कर्मचारी भी रहते हैं। सुरक्षित वातावरण है, फिर भी यदि आपको सबके सामने अपना सच नहीं रखना तो कोई कहानी बनाकर उसी पर दृड़ रहना होगा।’
‘मुझे स्वीकार है।’ सुनन्दा ने कहा।
‘तुम लोगों का कार्यक्रम क्या है?’
‘हमें तो कल वापस लौटना है, पर यह बढ़िया काम हो गया। अब पहले सुनन्दा का नामकरण करो और कोई कहानी सोचो।’
‘सोच ली।’ सुनन्दा बोली, ‘अच्छा-सा नाम देना, फिर बताती हूँ।’
‘कोई आवश्यकता नहीं है, सुनन्दा मेरी बेटी का नाम है और वह यहां रह सकती है।’ कहते हुए बड़े पुजारी जी ने भीतर प्रवेश किया। सब लोग उनके सम्मान में उठ खड़े हुए। बलदेव वकील ने उनको सारी कहानी बताकर ही बात की थी सुनन्दा के लिए, इसीलिए वे उन लोगों से मिलने चले आए थे। 
पुजारी जी से आश्वासन पाकर सब निश्चित हो गये तो दिन के समय कान्ता बाजार जाकर सुनन्दा के लिए कुछ ज़रूरत का सामान और कुछ कपड़े वगैरह खरीद लाई थी, क्योंकि वह तो एक छोटा बैग लेकर ही घर से निकली थी अब यहीं रहना है तो ज़रूरत का हर सामान चाहिए ही है। कान्ता को खुशी हो रही थी कि वह सुनन्दा के लिए कुछ कर सकी। अब सुनन्दा भी पूरी तरह आश्वस्त थी।
दूसरे दिन सुनन्दा को मन्दिर परिसर में ही एक कमरा मिल गया और उसने बाकायदा मन्दिर का सारा काम सम्भाल लिया। कान्ता और समीर वापस लौट गए थे। सुनन्दा खुश थी कि आज उसकी गणित में हाई पोजीशन बड़े काम आई थी। बलदेव कभी-कभी आकर उसके हाल-चाल ले जाता। उसने सुनन्दा के मोबाइल का सिम भी बदलवा दिया था। कान्ता भी फोन करके उसका हाल-चाल लेती रहती थी पर यह सपना उसे अक्सर ही आ जाता। हां अब वह इस सपने के कारण ज्यादा बेचैन नहीं रहती थी। इसी तरह दो साल बीत गए और सुनन्दा मन्दिर के कर्मचारियों के बीच ऐसे घुलमिल गई जैसे वे उसके सगे सहोदर हों। ज्यादा पैसों की उसे ज़रूरत नहीं पड़ती थी क्योंकि रहना खाना उसका मन्दिर से था और कुछ राशि जो उसके पास थी वह उसके पास थी ही। फिर एक दिन आ बैल मुझे मार की तर्ज पर उसने बैंक में अपना खाता कांगड़ा लाने के लिए प्रार्थना-पत्र दे दिया। एक न एक दिन तो उसे यह करना ही पड़ता। 
हुआ यह कि खाता तो कांगड़ा के बैंक में स्थानान्तिरत हो गया पर गिरीश भी पूरी नज़र रख रहा था बैंक पर। जैसे ही उसे इसका पता चला वह तुरन्त कांगड़ा पहुँच गया। बैंक से उसे सुनन्दा के ठिकाने का पता लगाने में क्या देर लगती? और वह सुनन्दा के कार्यालय में जा धमका। 
‘आपने क्या सोचा था कि हम आपका पता नहीं लगा सकेंगे?’ उसने बिना किसी भूमिका के सीधा सुनन्दा को जा लिया। सुनन्दा का पूरा ध्यान अपने काम पर था इसलिए उसने गिरीश को भीतर आते नहीं देखा। एक पल के लिए वह सकपकाई लेकिन उसने बड़ी कुशलता से खुद को संभाला और सीधे होते हुए पूछा, ‘आप कौन हैं, मैंने आपको पहचाना नहीं बेटा।’ 
‘वाह... वाह.. वाह! क्या बढ़िया एक्टिंग कर लेती हैं आप? अपने बेटे ही को नहीं पहचान रहीं?’ गिरीश ने व्यंग्य से हंसते हुए कहा।
‘बेटा...? किसका बेटा?’ मेरा तो कोई बेटा है ही नहीं। आपको कोई गलतफहमी हुई लगती है।’ कहते हुए सुनन्दा ने सामने से जाते हुए माली को आवाज़ दी।
‘राम सिंह! बाबू जी को भेजना जरा, पता नहीं यह कौन हैं और मुझे जबरदस्ती अपनी माँ बना रहे हैं।’
‘जी दीदी! अभी भेजता हूँ।’ कहकर माली बाहर निकल गया तो गिरीश बिफरता हुआ बोला, ‘यह क्या नाटक लगा रखा है आपने, पहले तो आप घर से बिना बताए आ गईं और अब मुझे पहचानने से ही इन्कार कर रही हैं, पर मैं भी आप ही का बेटा हूँ। क़ागज़ लेकर आया हूँ सारे। चुपचाप साइन कर दीजिए और चाहे तो कुएं में डूबिए या खाई में। हमें आपकी कोई ज़रूरत नहीं है।’
‘हद हो गई। मान न मान मैं तेरा महमान। पर अगर मैं आपकी माँ भी हूँ तो क्या आप मुझसे जबरदस्ती कहीं भी हस्ताक्षर करवा सकते हैं? कभी नहीं।’
‘तुम ऐसे नहीं मानोगी बुढ़िया, मुझे अब अपना असली रूप दिखाना ही पड़ेगा। सोचा था आराम से साइन कर दे और जहां मरती है मर। पर नहीं न।’ गिरीश जो बिना किसी को पूछे कार्यालय की कुर्सी पर बैठकर बात कर रहा था तमतमाकर उठ खड़ा हुआ तो सुनन्दा एकदम चिल्ला उठी, ‘बाबू जी।’
इसी समय बड़े पुजारी जी ने भीतर प्रवेश किया तो सुनन्दा घबराई हुई दौड़कर उनके पीछे छिप गई।
‘क्या हुआ बेटा...’ उन्होंने सुनन्दा के सिर पर हाथ फेरते हुए गिरीश को देखा और पूछा, ‘आप कौन हैं और मेरी बेटी को परेशान क्यों कर रहे हैं?’
‘आप की बेटी...? पर ये तो मेरी माँ हैं। हमसे झगड़कर यहां आ गई हैं और हम इन्हें कहां-कहां खोजते रहे। अब दो साल बाद मिली हैं तो मुझे पहचानने से ही इन्कार कर रही हैं।’
‘सुनन्दा ठीक कह रही है। इसकी कोई सन्तान नहीं है और यह मेरी बेटी है। तुम्हें धोखा हुआ है। तुम मेरी बेटी को परेशान नहीं कर सकते।’
‘पर आप मेरी बात...’
‘मुझे कुछ नहीं सुनना है, आप जा सकते हैं यहां से।’ पुजारी जी सारा माजरा समझ चुके थे।
‘ऐसे कैसे मान लूँ, यह तो मेरी मां ही हैं, इनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया है इसलिए घर से भागी हैं।’
‘मेरी बेटी का मानसिक संतुलन बिल्कुल ठीक है और फिर कह रहा हूँ कि आप यहां से चले जाएं। यह मन्दिर परिसर हमारा है। पहले तो आप यह बतायें कि आपने यहां आने के लिए किससे पूछा? हमारे कार्यालय में आकर मेरी बेटी को परेशान करने लगे और अब मुझसे बहस भी कर रहे हैं। जब मैं आपसे कह रहा हूँ कि यह मेरी बेटी है और मैं अपको नहीं जानता तो जबरदस्ती आप मेरे नाती बन रहे हैं। निकलो... निकलो बाहर।’ 
पुजारी जी के तेवर देखकर गिरीश असमंजस में पड़ गया पर हार मानने को तैयार नहीं था। बगल में लटके बैग से कुछ कागज निकालता हुआ बोला, ‘यह इनके साइन हैं, आप यहां इनसे साइन करवा दीजिए। अगर साइन नहीं मिले तो मैं मान लूँगा कि मुझे गलत सूचना मिली है।’
‘कोई साइन नहीं करेगा और तुम जाते हो कि मैं पुलिस को बुलाऊं। एक तो बिना पूछे हमारे कैम्पस में घुसकर हमारी बेटी को परेशान कर रहे हो और ऊपर से हमें रौब भी दिखा रहे हो।’ फिर बाहर खड़े रामसिंह को देखकर बोले, ‘बल्लू को बुलाओ और पुलिस स्टेशन फोन करो।’ कुछ कर्मचारी जो शोर सुनकर बाहर इकट्ठे हो गए थे, भीतर आ गये। एक पहलवान नुमा आदमी आगे आता हुआ बोला, ‘आपने बुलाया बाबा!’
‘तुमसे कहा था न कि सुनन्दा का ध्यान रखना, पता नहीं कौन बेहूदा इन्सान भीतर घुसकर उसे कब से परेशान कर रहा है और तुम्हें पता ही नहीं। उठाओ... बाहर फेंको इसे। दुबारा दिखाई न दे यह आदमी यहां... सुना तुमने?’
अब गिरीश ने चुपचाप खिसकने में ही भलाई समझी। बल्लू आगे बढ़ता, इससे पहले ही गिरीश पीछे मुड़ चुका था बाहर निकलने के लिए। अब पुजारी जी ने पुकारकर कहा, ‘तुम जो भी हो, दोबारा तुम्हें यहां देख लिया तो हड्डी पसली एक कर दी जाएगी। समझे?’ पुजारी जी ने उसे दोबारा वहां दिखाई न देने की चेतावनी दे डाली थी। सुनन्दा अब तक थर-थर कांप रही थी। पुजारी जी ने उसके सिर पर हाथ रखकर उसे आश्वस्त किया तो उसने हां में सिर हिला दिया। 
इस घटना के बाद उसे अकेले कहीं भी जाने नहीं दिया जाता। वैसे यह भी सच है कि उसे कोई ज़रूरत तो पड़ती ही नहीं थी। सबकुछ वहीं मिल रहा था। गिरीश ने भी शायद समझ लिया था कि सुनन्दा का पीछा करने से कुछ होने वाला नहीं है। वैसे भी तो सब कुछ उन्हीं के कब्ज़े में था यह सोचकर उसके होंठों पर मक्कार-सी मुस्कुराहट उभर आई थी और वह लापरवाही से कंधे झटकता हुआ बाहर निकल गया। अब वह वहां पूरी तरह सुरक्षित थी। 
कुछ समय बाद ही सुनन्दा ने अपनी एफडी तोड़कर तीन लाख रुपया मन्दिर को दे दिया था। 

व्यंग्य
ठेकेदारी में भी सेंधमारी 
बड़ी मुश्किल से जातीय जमीन कब्जाई थी। फटेहाल अवस्था में रहकर न जाने जैसे तैसे अपने बिरादरी भाइयों के कंधों का सहारा लेकर पूरे कुनबे को विलासितापूर्ण जिंदगी सौंपी थी। किसी को बिना पड़े ही डाक्टरी की डिग्री दिलाई थी, किसी को बिना डिग्री के ही सत्ता की चाबी सौंपी थी। कभी गाय भैंस और चारे को स्कूटर पर लिफ्ट दी थी, कभी कुछ और जतन करके सत्ता की रबड़ी और रस्मलाई का सेवन किया था। इसी तर्ज पर जातियों को संगठित करने का दौर शुरू हो गया। सत्ता लोभियों की चाह पूरी करने में जातीय समर्थक खास भूमिका निभा रहे थे। किसी ने अपनी खटारा साइकिल पर घूम-घूम कर अपनी बिरादरी की पंचायत की। खुद को जाति नायक बनाया, जाति के उत्थान का आश्वासन दिया। तब से वह जाति के मुखिया बन गए। 
साइकिल से महलों तक का सफर तय कर लिया। बाद में साइकिल म्यूजियम में रख दी। समूचे खानदान, नाते रिश्तेदारों को रोज़गार भी दिया और पेंशन भी पक्की कर दी। अब उनके जीवन से साइकिल दूर हो गई। उनका सफर हवाओं की गति के संग तय होने लगा। यह थी जातीय धमक। जाति नायक यह समझने लगे कि जातीय बंधुआ केवल चंद परिवारों के कब्ज़े में ही रहेंगे। उनकी सोच केवल चंद जाति-नायकों के परिवारों के इर्द-गिर्द तक ही सीमित रहेगी। उनकी ठेकेदारी सदियों तक सलामत रहेगी और जाति नायकों के परिवारों का पोषण करती रहेगी। मगर सियासत के चाणक्य भी क्या खूब होते हैं। वे डाल डाल और पात पात का खेल खेलने में माहिर होते हैं। कौन जाने कब किस ठेकेदार को घोटालेबाज सिद्ध करके उसकी ठेकेदारी के सम्मुख दूसरा विकल्प तैयार कर दें। जब किसी नए ठेकेदार को तैयार कर दें। कब किसे पटखनी दे दे, जातीय क्षेत्रप कब अवसाद की स्थिति में आ जाएं, कोई नहीं समझ सकता। फिर भी सेंधमारी हो गई। 
सेंधमारी से आहत कुछ अनुयायी खिसियाहट में अनाप शनाप राग अलापने लगे। एक सज्जन बोले- ‘शिकारी आएगा, जातीय मुर्गों के सामने दाना डालेगा, तुम शिकारी के झांसे में मत आ जाना।’ उन्हें यह तक ज्ञान नहीं था कि असली शिकारी कौन था, किसने आधी शताब्दी तक जाति जाति का खेल खेलकर जाति को अपने जाल में फंसाए रखा। वैसे सियासत का खेल बड़ा ही रोचक होता है। पटखनी देना और पल भर में किसी को सर पर बिठा लेना इस खेल का मूल चरित्र है। घड़ी में तोला घड़ी में माशा इस खेल की विशेषता है। 
जाति नायक स्वयं को स्वयंभू मानकर मनमाना आचरण करने से परहेज नहीं करते, मगर जब जाति अपने नायक की असलियत जान जाती है, तब वह दूसरे नायक को चुनने में विलम्ब नहीं करती। अब नया दौर है, जातियों का अपने नायकों से मोहभंग होता जा रहा हैं, वे संकीर्ण स्वार्थों से उबरने लगी हैं। ऐसे में यदि जातीय ठेकेदारों की ठेकेदारी में कोई सेंध लगाता है, तो इसे गलत भी नहीं ठहराया जा सकता। वैसे भी समय कभी एक सा नहीं रहता। इतिहास गवाह है कि जब चक्रवर्ती सम्राट भी काल की भेंट चढ़ गए। आलीशान महल खण्डहरों में परिवर्तित हो गए। तब जातिनायकों का अस्तित्व आखिर कब तक स्थाई बना रहता।  

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