क्या मृत्यु दण्ड से महिलाओं के यौन शोषण पर लगेगा अंकुश ?

देश में अनेक कानूनी उपायों और जागरूकता अभियानों के बाबजूद बच्चों एवं महिलाओं से दुष्कर्म की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। दिल्ली में घटित निर्भया, हैदराबाद की महिला पशु चिकित्सक प्रियंका रेड्डी और अब कोलकाता के आर.जी. कर मेडिकल कॉलेज में एक प्रशिक्षु महिला डॉक्टर की दुष्कर्म के बाद हत्या के मामलों से यही समाने आया है कि जब सरकार और पुलिस कानून व्यवस्था के क्रियान्वयन में लाचारी का सामना करती है तो एक नए कठोर कानून लाकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। 2012 में घटित निर्भया कांड में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार कठोर कानून लायी थी। इसे त्वरित न्याय का पर्याय भी माना गया था, लेकिन जब फांसी की सज़ा हुई तो उसे देने का कानूनी प्रक्रिया में पूरे आठ साल लग गए थे।
 हैदराबाद के मामले में तो पुलिस ने दुष्कर्म के चार आरोपियों को छह दिसम्बर 2019 को घटना स्थल पर ले जाकर मुठभेड़ में मार दिया था। सुप्रीम कोर्ट के सेवा निवृत जज बी.एस. सिरपुरकर की अध्यक्षता वाले आयोग ने इस मुठभेड़ को फर्जी बताया था। अब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी दुष्कर्म पर सरकार, कॉलेज और पुलिस प्रशासन की कमियों और गड़बड़ियों पर पर्दा डालने के लिए फांसी की सज़ा का कानून ले आईं। आनन-फानन में विधानसभा से पारित इस विधेयक में कहा गया है कि यदि दुष्कर्म के किसी मामले में पीड़िता की मात हो जाती है या फिर वह कोमा में चली जाती है तो अपराधी को फांसी दी जाएगी। इस कानून को लाने से पहले यह भी कहा गया था कि 10 दिन के भीतर दोशी को फांसी दे दी जाएगी, परंतु सामने आए कानून में इस समय सीमा का उल्लेख नहीं है। दरअसल समूची भारतीय न्याय व्यवस्था गढ़े गए ऐसे विकल्प और प्रतिविकल्पों का सामना करते हुए आगे बढ़ती है कि तय समय सीमा में न्याय संभव ही नहीं है। 
देश में दुष्कर्म के सर्वाधिक मामलों के परिप्रेक्ष्य में अव्वल रहने वाला मध्य प्रदेश दुष्कर्म पीड़िताओं को त्वरित न्याय और फांसी की सज़ा का प्रावधान बहुत पहले कर चुका है। मध्य प्रदेश में ऐसा इसलिए संभव हो पाया था, क्योंकि तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान इस तरह के मामलों में त्वरित न्याय की दृष्टि से सामूहिक दायित्व निर्वहन की भावना से काम लिया था। चैहान ने ही 12 वर्ष से कम उम्र की बच्चियों के साथ दुष्कर्म के मामले में फांसी की सज़ा का प्रावधान किया था। बाद में इस कानून को अन्य राज्यों ने भी अपनाया और अब तो केंद्र सरकार ने भी नाबालिग बालिकाओं के साथ दुष्कर्म व हत्या के अपराध में फांसी की सज़ा का प्रावधान कर दिया है। बावजूद निचली अदालतों से सज़ा मिलने के बाद भी ऐसे मामलों में फांसी देने में विलम्ब हो रहा है। 
दुष्कर्म मामलों में त्वरित न्याय का सिलसिला चल निकलने के बाद भी महिलाओं व बालिकाओं से दुष्कर्म की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं। एक अध्यादेश लाकर 12 साल से कम उम्र की बच्ची के साथ दुष्कर्म के दोषी को मौत की सज़ा और 16 साल से कम उम्र की किशोरी के साथ दुष्कर्म एवं हत्या के आरोपी को उम्रकैद की सज़ा का प्रावधान किया था। इस अध्यादेश ने कानूनी रूप भी ले लिया है।  विडम्बना है कि राजनीति का सरोकार समाज सुधार से दूर हो गया है। उसकी कोशिश सिर्फ सत्ता में बने रह कर केवल उसका दोहन करना भर रह गया है। यही वजह है कि विभिन्न विचारधाराओं की राजनीति सत्ता के लिए एकमत हो जाती है। महिला उत्पीड़न की ज्यादातर घटनाएं महानागरों के उन इलाकों में घट रही हैं, जहां समाज और परिवार से दूर वंचित समाज रह रहा है। ये लोग अकेले गांव में रह रहे परिवार की आजीविका चलाने के लिए शहर मज़दूरी करने आते हैं। ऐसे मोबाइल पर उपलब्ध कामोत्तेजक सामग्री इन्हें भड़काने का काम करती है और ये बालिकाओं अथवा महिलाओं को बहला-फुसलाकर या उनकी लाचारी का लाभ उठा कर यौन उत्पीड़न करते हैं। हैदराबाद की चिकिस्तक के साथ घटी घटना की पृष्ठभूमि में लाचारी रही है। इनकी स्कूटी कम आबादी वाले इलाके में पंचर हो गई और इंसानियत के दुश्मन मदद के बहाने हैवानियत पर उतर आए। पीड़िता ने पालतू मवेशियों के इलाज की पढ़ाई तो की थी, लेकिन इंसानियत के भीतर निवास करने वाले जानवरों के न तो वह लक्षण जानती थी और न ही उनका उपचार करना जानती थी। इस घटना की पृषठभूमि में फैलता शहरीकरण और परिचितों से बढ़ती दूरियां भी रही हैं। 
अकसर निर्भया या प्रियंका की चीखें जब मौन होकर राख में बदल जाती है तब देश में हर कोने से मोमबत्ती की टिमटिमाती ज्योति में दरिंदों को फांसी की सज़ा देने की मांग उठने लगती है, किन्तु न्यायशास्त्र का सिद्धांत कहता है कि जीवन खत्म करने का अधिकार आसान नहीं होना चाहिए। इसलिए फांसी की सज़ा जघन्यतम या दुर्लभ मामलों में ही देने का कानून है। नतीजतन निचली अदालत से सुनाई गई फांसी की सज़ा पर क्रियान्वयन भी जल्दी नहीं होता। मध्य प्रदेश में 2018 में रिकॉर्ड 58 दोषियों को दुष्कर्म व हत्या के मामलों में फांसी की सज़ा सुनाई गई है, लेकिन एक भी सज़ा पर अमल नहीं हो पाया है। यह मामले उच्च, उच्चतम न्यायालय और राष्ट्रपति के पास दया याचिका के बहाने लम्बित हैं। सभी जगह दोषी को क्षमा अथवा सज़ा कम करने की प्रार्थना से जुड़े आवेदन लगे हुए हैं। इन आवेदनों की निरस्ती के बाद ही दोषी का फांसी के फंदे तक पहुंचना मुमकिन हो पाता है। साफ है, ममता बनर्जी ने मध्य प्रदेश की तरह दुष्कर्म के मामले में कानून कठोर ज़रूर बना दिया है, लेकिन सज़ा देने की जो कानूनी संहिता के रूप में दर्ज परतें हैं, वे त्वरत सज़ा देने में बड़ी बाधा हैं। दुष्कर्म से जुड़े कानूनों को कठोर बना दिए जाने के बावजूद इस परिप्रेक्ष्य में क्रांतिकारी बदलाव नहीं आया है। 


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