क्या आयकर में बड़ी छूट से देश की आर्थिकता को प्रोत्साहन मिलेगा ?
अखबार वाले और टीवी वाले दीवाने हो गये हैं। उन्हें लग रहा है कि देश की सारी आर्थिक समस्याओं का हल हो गया है। अब तो इस देश के करदाताओं के पास एक लाख करोड़ की ज़बरस्त रकम खर्च करने के लिए आने वाली है। ये सभी लोग इस पैसे को लेकर बाज़ार में खरीददारी करने के लिए उतर जाएंगे। देखते ही देखते मांग में उछाल आएगा। इससे उद्योगपतियों को अपनी फैक्टरियों में ज्यादा माल बनाना पड़ेगा। और निवेश होगा, और कारखाने लगेंगे, और रोज़गार पैदा होंगे। सभी की बल्ले-बल्ले होगी। लेकिन क्या ऐसा होगा। 2019 में सरकार ने कॉरपोरेट क्षेत्र को एक बड़ा ‘टैक्स होलीडे’ दिया था। उम्मीद थी कि इससे कॉरपोरेट क्षेत्र को निवेश के लिए प्रोत्साहन मिलेगा, लेकिन हुआ क्या? निजी क्षेत्र ने जो कज़र्े लिए थे, वे उतार दिये और अपनी बैलेंस शीटें साफ-सुथरी कर लीं। अर्थव्यवस्था को इससे कोई फायदा नहीं हुआ। आज यह तर्क दिया जा रहा है कि अगर टैक्स होलीडे से पहले आयकरदाताओं को यही रियायत दे दी जाती तो बेहतर असर पड़ता। क्या यह सही समझ है? क्या इनकम टैक्स देने वालों के हाथ में अतिरिक्त इनकम देने से अर्थव्यवस्था में ग्रोथ रेट सुधर सकता है? क्या इससे वह उछाल आ सकता है जिसकी सरकार को उम्मीद है? क्या यह दलील पहले मुर्गी होनी चाहिए थी या अंडे वाली नहीं है?
मैं जिस अपार्टमेंट में रहता हूँ उसमें पिछले 25 साल से दो प्लम्बर, दो इलेक्ट्रीशियन, दो सुपरवाइज़र समेत 8 चौकीदार, 2 माली और 7 सफाई मज़दूर काम कर रहे हैं। ब्राह्मण से लेकर ओबीसी और दलित जातियों तक में से आने वाले अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी निभाने में कुशल इन 21 कर्मचारियों को कम-ज्यादा मिला कर महीने भर में यहां के आर.डब्ल्यू.ए. द्वारा कोई कुल सवा 2 लाख रुपये की तनख्वाह मिलती है। ये लोग भारत सरकार के ई-श्रम पोर्टल पर रजिस्टर्ड तीस करोड़ श्रमिकों में से नहीं हैं। जैसा कि मैंने वित्तमंत्री सीतारमण से पिछले सप्ताह पूछे गये सवाल में बताया कि इन पंजीकृत श्रमिकों में से 94 प्रतिशत की आमदनी दस हज़ार रुपये से कम ही है। मेरे अपार्टमेंट के कर्मचारी भी महीने में 10-12 हज़ार ही कमा पाते हैं। पंजीकृत हों या न हों, ये लोग हैं देश के आम आदमी। ये लोग उन मुट्ठी भर आयकर देने वाले भारतवासियों और उनके परिवारों में शामिल नहीं हैं जिन्हें वित्तमंत्री ने अपने बजट में एक लाख करोड़ की ऐतिहासिक आर्थिक छूट प्रदान की है। मेरा नया सवाल यह है कि वित्तमंत्री वह बजट कब बनाएंगी जिसके प्रावधानों से आयकर दाताओं के मुकाबले संख्या में बहुत ज्यादा भारतवासियों की आमदनी में उल्लेखनीय इजाफा होगा?
निर्मला जी का बजट 50 लाख करोड़ का है। इसके ज़रिये तय किया जाता है कि किसके हिस्से में कितनी आमदनी आएगी। देश की आबादी एक अरब 42 करोड़ है, और आयकर का रिटर्न भरने वाले कुल 9 करोड़ हैं। इनमें से 5 करोड़ लोग शून्य आमदनी का रिटर्न भरते हैं। यानी टैक्स देने वाले कुल 4 करोड़ ही हुए। पहले से ही करीब साढ़े 7 लाख की आमदनी (7 लाख तक टैक्स-छूट और 75 हज़ार की मानक कटौती) पर टैक्स देने की ज़रूरत नहीं थी। ऐसे किसी भी करदाता को नयी रियायतें कोई फायदा नहीं देतीं। करीब डेढ़ करोड़ लोग ऐसे हैं जो बहुत ही कम टैक्सटेबिल इनकम की घोषणा करते हैं। इस तरह लगभग दो करोड़ ही बचते हैं जिन्हें इस बदलाव से लाभ होगा। अगर एक करदाता के परिवार में औसत 5 लोग माने जाएं तो इस रियायत से 10 करोड़ लोगों के हाथ में इन रियायतों से कुछ बेशी आमदनी बचेगी। क्या सिर्फ इतने कम भारतवासी हमारी अर्थव्यवस्था में मांग की कमी खत्म करके उपभोक्तावादी उछाल पैदा कर सकते हैं? क्या निर्मला जी और उनके सलाहकारों की निगाह में केवल इन्हीं के पास क्रयशक्ति है और होनी चाहिए?
दूसरे, मेरे अपार्टमेंट के कर्मचारी और ई-श्रम पोर्टल पर पंजीकृत 30 करोड़ लोग भले ही आयकरदाता न हों, लेकिन क्या वे करदाता नहीं हैं? यह हकीकत अब छिपी हुई नहीं रह गई है कि जीएसटी की जिस विशाल रकम के जमा होने पर अ़खबार के कॉलमों में ़खुशनुमा ़खबर छपती है, उसका 64 प्रतिशत इस देश का वह हिस्सा ही देता है जिसकी हैसियत आयकर देने की नहीं है। यानी निम्न और निम्न-मध्यवर्ग। बाज़ार में छोटी-मोटी चीज़ ़खरीदने पर भी हर स्तर पर जीएसटी सभी को देना पड़ता है। चूंकि बजट में जीएसटी के ढांचे में सुधार का कोई वायदा नहीं किया गया है, इसलिए यह माना जा सकता है कि सरकार राजस्व जमा करने के मामले में प्रत्यक्ष करों के मुकाबले अप्रत्यक्ष करों की उगाही पर ज्यादा भरोसा करेगी। दैनिक भास्कर में छपे सतीश आचार्य के उस ‘बजट-ह्यूमर’ को याद कीजिए जिसमें निर्मलाजी रुपयों से भरी थैली खर्च करने के लिए करदाता को दे रही हैं, और वहीं कोने में जीएसटी व महंगाई अपना हिस्सा वसूलने के लिए छिप कर खड़ी हुई है। अगर वास्तव में आयकरदाताओं के हाथों वित्तमंत्री ने एक लाख करोड़ सौंपे हैं तो उसका कितना हिस्सा महंगाई और जीएसटी भेंट चढ़ेगा? इसका हिसाब कैसे लगाया जाए?
ज़ाहिर है कि जिस तरह से अच्छी नौकरियों में लगे लोगों के हाथ में पैसे रख दिये गये, उस तरह से आयकर न देने वालों के हाथ में नहीं रखे जा सकते। उनकी आय बढ़ाने के लिए निर्मलाजी को ऐसे क्षेत्रों में बजट के आबंटन बढ़ाना चाहिए था जो श्रम-आधारित हैं, और मुख्य तौर पर असंगठित क्षेत्र में आते हैं। इससे ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों को मिला कर निम्न और निम्न-मध्यमवर्ग की आमदनी भी बढ़ती। मसलन, प्रधानमंत्री सड़क योजना के लिए पिछली साल 19 हज़ार करोड़ घोषित किये गये थे। लेकिन, खर्च केवल साढ़े 14 करोड़ हुए। इस बार फिर 19 हज़ार करोड़ दिये गये हैं। मुद्रास्फीति के हिसाब से 5 प्रतिशत का समायोजन करने पर यह रकम कम रह जाती है। ग्रामीण रोज़गार योजना में भी पिछले साल जितना ही है, यानी उसमें में भी कम है। प्रधानमंत्री आवास योजना में पिछले साल 30,171 करोड़ दिया गया था, पर खर्च केवल 13,670 करोड़ रुपये ही हुआ। स्वच्छ भारत मिशन-शहरी हो या जल जीवन मिशन हो, जो पैसे आबंटित किये गये थे, उससे बहुत कम ़खर्च किया गया। आखिर सरकार ़गरीबों को रोज़गार मुहैया कराने आबंटनों को बढ़ाने में संकोच क्यों करती है, और उन आबंटनों को पूरी तरह खर्च करने में अक्षम क्यों है? क्या यह उसकी प्राथमिकताओं पर एक टिप्पणी नहीं है?
विकसित देशों की प्रति व्यक्ति आमदनी 14 हज़ार डॉलर है और हमारी कुल 2700 डॉलर है। निर्मला जी का लक्ष्य है कि हमें 8 प्रतिशत की रफ्तार से लगातार बढ़ना है। अगर यह वृद्धि-दर हमने प्राप्त भी कर ली तो हम ज्यादा से ज्यादा 9 हज़ार डॉलर प्रति व्यक्ति तक पहुंच पाएंगे। 14 हज़ार का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए हमें 11 प्रतिशत की दर से बढ़ना होगा। यह तो तभी हो पाएगा जब हम ़खुशहाल और मुट्ठीभर आयकरदाताओं की सीमा पार करके बाकी एक अरब 20 करोड़ लोगों की आमदनी बढ़ाने पर ध्यान देंगे।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।