हर चेहरे के पीछे एक मुखौटा है! 

फिर इस देश में तो वही पुरानी कवायद चल पड़ी है। नोंचने की कवायद। औरतों, बेटियों और बच्चियों को नोंचने की कवायद। नोंचने वाला किस बिरादरी का था। इससे क्या फर्क पड़ता है। नुची तो हमारी माँ, बेटी बहन ही है ना। इनकी जाति या इस कुकर्म को करने वाले को हम क्या कहेंगे। भेंडिया या अजगर। एक ऐसा भेंडिया जो रिश्तों को तार-तार कर रहा है। ये लोग किस जाति मजहब के हैं। इस पर बात क्यों करें। जब कुकर्म करने वाला हमारा अपना सौतेला-सगा बाप हो। या हमारा ही अपना कोई पड़ोसी, सगा भाई, सगा चाचा, सगा मामा हो। या फिर कोई शिक्षक, गार्ड़, ड्राइवर। जितने लोग हैं। सबके चेहरे पर एक जैसे मुखौटे हैं। सामने से सभी लोग विश्वासी रिश्तों के जान पड़ते हैं। सामने से सारे लोग सभ्य दिखते हैं। इनकी पाश्विकता दरअसल इस मुखौटे ने छिपा रखी है।
इसको जानकर क्या करना है कि ये किस जाति या धर्म के हैं। 
जब ये किसी भी जाति धर्म या किसी भी उम्र को नहीं देखते। ये अस्सी साल की, दादी मां हों या फिर चार-पांच साल की कोई मासूम बच्ची। इनके जैसे भेंडियों के ये लिए स्त्री केवल देह भर है। जिसको हर हाल में नोंचना है। क्या इनको  नहीं पता कि उसी, देह की ये पैदाइश हैं। जो किसी दूसरी स्त्री के देह भूगोल को ये देखते हैं। तो क्या इनको नहीं पता कि तुम्हारी मां-बहन की देह का भूगोल भी कुछ-कुछ वैसा ही है। जैसे कि तुम दूसरी औरतों के देह भूगोल को नापते रहते हो। तुम्हारी मां की छाती भी वैसी ही है। जिस समय तुमने अपनी मां का दूध पीते समय देखा था, तो फिर ये लोग ये क्यों भूल जाते हैं कि तुम्हारी मां कि देह से इतर नहीं है इन बच्चियों की देह। इन बूढ़ी दादियों की देह। सामने वाली स्त्री की देह जिसको तुम आते जाते ताड़ते हो। किसी अंधेरी रात में इनको अपनी मां बहन भी मिल जाये तो ये उसको भी नोच खसोट लेंगे, लेकिन लो किसको यहां समझाया जा रहा है। उन भेंड़ियों को जो अपनी ही मां-बहनों, बेटियों को मत नोचो- खसोटो ऐसा समझाया जा रहा है। ऐसे इंसानी भेंडिये जिन पर किसी ड्रेकुला की प्रेतात्मा ने   कब्जा कर रखा है। जो देह से ऊपर कुछ सोचता ही नहीं। भेंडिये तो जंगली होते हैं।  तो आदमी के स्वभाव में भी ये वहशीपन उतर आया है। 
नोचने वाला किस बिरादरी का था। इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। वो, हर कौम में है। हर देश-देशांतर में। मीठी-मीठी बातें करता हुआ। हंसता मुस्कुराता हुआ आपको दिखाई पड़ेगा, लेकिन उसने मुखौटा पहन रखा है। ऐसा मुखौटा जो सामने से बहुत सभ्य है, शांत है, शालिन है, सामाजिक है। लेकिन मुखौटे के पीछे बहुत घिनौना है। लिजलिजा। सडांध मारता हुआ। किसी नाले की तरह जहां उसके शरीर में गंदे नाली की तरह का पानी रक्त की तरस बह रहा है। मानसिक रूप से वो बहुत दिवालिया हो चुका है। उसके दिल दिमाग सब सड़ चुका है। वो हर औरत को एक देह की तरह देखता है। उसे नोचना खसोटना चाहता है। आदमी के वहशीपन की इससे घटिया मिसाल भला और क्या हो सकती है।

-मेघदूत मार्किट फुसरो, बोकारो झारखंड। 

#हर चेहरे के पीछे एक मुखौटा है!