कहानी-मझधार
(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)
घर में प्रवेश के साथ अपरिचित छाया उसके अंतर्मन को कचोटने लगी थी। उसे लगा कि यह उसका घर है ही नहीं। उस समय अमरेश घर पर नहीं था। रामू काका थे। और वह उनमें एक बदलाव देख रही थी। उसे देखकर हाथों से सामान का थैला लेना तो दूर उसको देखकर उल्टा नाक भौं सिकोड रहे थे। कभी यही रामू काका गेट के अंदर प्रवेश होते ही उसके अगवानी में दौड़े-दौड़े आते और उसके हाथों में झुल रहे थैले को घर के अंदर रख आते।
ड्राइंगरूम में सामान रखकर रीता गुस्से से कड़कते हुए बोली, ‘यह क्या देख रही हूं मैं। क्या हो गया आपको। औकात में रहिए काका। नौकर हो तो नौकर की तरह रहा करो।’
‘यही बात तुम अपने गिरवान में झाककर कही होती।’ काका उसी लहजे में बोले।
‘मैं समझी नहीं।’
तुमने अमरेश के साथ कैसा कटु व्यवहार किया जो अमरेश अब तक उदासी के तले जी रहा है।’
‘अमरेश गया था।’ वह भौचक हो बोली, ‘कब?’
‘यही कोई बीस दिन पहले।’
‘नहीं तो...’
‘इतनी भोली न बनो।’ रामू काका विद्रुप सा मुंह बनाकर बोले, ‘उन्हीं की हिदायत है कि तुम आओ तो..’
अभी उनकी बातें अधूरी थी तभी अमरेश की कार अहाते में प्रविष्ट हुई।
‘अब तुम उससे ही पुंछ लो।’
कार पार्किंग में खड़ी करके वह अपने कक्ष में प्रवेश कर गया था। उसने उड़ती निगाहों से रीता को देख कर अंजान बनते हुए निकल गया था।
उसके पीछे-पीछे गुस्से से तमतमाती हुई पुन:रीता भी चली गई थी। जाते ही उससे बोली, ‘अमरेश ये तुम लोग क्यों ऐसा कटु व्यवहार कर रहे हो।’ ‘अच्छा हुआ कि सवाल भी तुमने ही किया है और जवाब भी तुम्हारे पास सुरक्षित है।’ जूते का फीता खोलते हुए वह बोला।
काका अमरेश के लिए चाय बनाने चले गए थे।
अमरेश अपना जूता खोलकर सोफे के नीचे रखते हुए कहा, ‘कहो कैसे आना हुआ?’
‘तुम अपने आप से क्यों नहीं पूछते। इम्तिहान सर पर है। आने की स्थिति में नहीं थी। आपने इस माह हास्टल खर्च क्यों नहीं भेजा?’
‘अधिकार जताते हुए कह रही हो।’
अमरेश की बहकी-बहकी बातें सुनकर वह भीतर से खीझकर बोली, ‘आज तुम सब मेरे साथ क्यों इस तरह की बातें कर रहे हो। आज काका ने भी अपनी औकात भुलकर मुझको जलील किया।’
‘वो इस घर के पुराने सदस्य हैं। उनको नौकर कहने का भूल मत करना। वह नमक का शैरियत देना जानते हैं। वह तुम्हारे जैसा नाली का कीड़ा नहीं हैं।’
‘अमरेश।’ रीता भी गुस्से से उफनकर बोल रही थी। किन्तु अमरेश के आगे की बातों को सुन निशब्द व शांत पड़ गई। ‘तुमहारे असलियत का पता चल गया है रीता। मैं इस बार मनिआर्डर से नहीं बल्कि स्वयं गया था तुम्हारे पास ताकि तुम क्या कर रही हो देख सकूं। लेकिन तुम्हारे असलियत को देखकर मुझे बहुत दुख पहुंचा।’
‘तुम कुछ नहीं जानते।’
‘दूसरे के कहे पर विश्वास नहीं करता पर मैं अपनी आंखों से देख चुका हूं।’
‘ये तुम्हारा भ्रम है।’
‘काश! ये भ्रम होता। ये मत कहना ये तुम्हारे आंखों का दोष हो सकता है। कुछ देर के बाद कहोगी मेरे कान भी धोखा खा गए हैं।’
‘तुम कहना क्या चाहते हो?’
‘यही कि न तो मैं तुम्हारा पति हूं और न ही तुम मेरी पत्नी।’ अमरेश अपना भड़ास निकाल रहा था, ‘क्या यह भी झूठ है कि रमेश नाम के आदमी से तुम प्यार करती हो और तुम दोनों शीघ्र ही परिणय-सूत्र में बंधने वाले हो।’
रीता आवक हो सारी बातें सुनती रही। उसकी नैया मझधार में डोलती हुई लगी। उसका एक विचार हुआ की कड़कती स्वर में इस बात को झूठा करार दे दें। परंतु वह ऐसा कर नहीं कर सकी। यह संभव नहीं था।
अमरेश दर्द से कराह उठा, ‘तुमसे अब मेरा कोई वास्ता नहीं। तुमने मेरी भावनाओं को लहूलुहान किया है। तुमसे ऐसी आशा नहीं थी रीता।’
रीता मुंह लटकाए सुनती रही। वह पीटा हुआ मोहरा बन गयी थी।
अमरेश घनीभूत पीड़ा से ऊपर उठकर लगभग धिक्कारते हुए कह रहा था, ‘बड़े बुजुर्ग जो कह कर चले गए, वह अक्षरस्य सत्य है। जिसकी जड़ ही कमजोर हो उसकी डाल पर विश्वास नहीं किया जा सकता।’
रीता के मुंह पर यह करारा तमाचा था। वह तिलमिला उठी, ‘बस अमरेश बस! अब मुझमें सुनने की शक्ति नहीं।’
‘तुमको आज सुनना होगा।’ अमरेश की आंखें अंगारे बरसाने लगी थी, ‘तुम नाली का कीड़ा हो। जिसे मेरी मां ने फुटपाथ से उठाकर अपने घर में शरण दी। ताकि तुम्हारी मां जिस रास्ते पर चली उससे तुम्हारा रास्ता भिन्न हो। परंतु तुम तो अपनी मां से बढ़कर निकली।’
‘नहीं अमरेश और नहीं।’ इतना कह रीता दोनों हाथों को अपने कानों पर रख लिया था।
अमरेश कह रहा था, ‘एक रामू काका है जो पैसा लेकर काम करते हैं। मालिक और मजदूर का रिश्ता है। पर उनके नेक नियति से घर के सभी सदस्य उन्हें परिवार के सदस्य समझते हैं। अब तो माता-पिता के स्वर्गवासी हो जाने से अब वही इस परिवार की धुरी हैं। दूसरी ओर एक तुम हो। इस खानदान की भावी बहू। जिस पात्र में तुमने खाई उसी में छेद कर दिया। तुमने मेरे भावनाओं के साथ खिलवाड़ न किया होता।’ ‘तुमने तो यही सोचा होगा न कि अमरेश अपना काम-धाम छोड़कर यहां तो आने वाला नहीं। लाखों का घाटा हो सकता है। परंतु तुम यह भूल गई थी कि धन-दौलत से बड़ा भी कोई रिश्ता होता है.. तुम्हारे पत्रों का इंतजार करते-करते मैंने सोचा कहीं तुम्हारी तबीयत खराब तो नहीं? यह विचार आते ही मैं सारा काम छोड़कर तुमको देखने चला आया। और जब यहां आया तो कुछ और ही नज़ारा देखने को मिला। उसे समय तुम रमेश की बाहों में थी। मैं किवाड़ के ओट में छिपा तुम्हारे घृणित कुकृत्यों को देखता रहा। मैं उसी दिन सोच लिया था कि एक बाजारू लड़की मेरी बीवी नहीं बन सकती। बगैर सोचे-समझे मां तुझे बहू बनाने का ख्वाब लिए स्वर्ग सिधार गई। आज वह भी रहती तो तुम्हारे इन कुकृत्यों को देखकर अपना फैसला बदल लेती।’
रीता की आंखों से पश्चाताप के आंसू बह रहे थे। वह बीच मजधार में फंस गई थी। उसने सोचा कि अमरेश के चरणों में गिरकर उसे अपने किए की माफी मांग लें। क्या उसकी करतूत क्षमा के योग्य है। तब तक रामू काका कमरे में चाय लेकर उपस्थित हुए।
वह वापस गेट की ओर मुड़ी थी कि अमरेश ने कहा, ‘चाय तो पीती जा रीता।’
परंतु वह रुकी नहीं। अमरेश के शब्द उसके कानों में पिघले शीशे की तरह लग रहे थे। वह अपने कदमों की गति में तेज़ी लाई और झट गेट से बाहर निकल गई थी। (समाप्त)
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