श्री नरेन्द्र मोदी का मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री तक का स़फर

एक व्यक्ति इच्छाओं के धीरे तथा स्थिरता से पालता है। जैसे-जैसे हमारा जीवन अपने रंग-ढंग बदलता है, लगता है कि काश यह और हो जाता, वो भी मिल जाता, मतलब यह कि आशाएं बढ़ती जाती हैं और जब मनचाहा होने में कुछ कसर रह जाती है तो निराशा होने लगती है। परिवार, समाज, व्यक्ति की आलोचना करते हुए मन में आता है कि जो मिला, हमारी किस्मत था।
75 वर्ष की आयु से क्या पता चलता है : प्रसिद्ध लेखक गुलज़ार का एक कविता संग्रह है ‘पंद्रह पांच पचहत्तर’ जिसमें ज़िंदगी के अंधेरे उजाले की सटीक व्याख्या है। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 75 वर्ष के हो गए हैं, हमारे ग्रंथों में यह आयु वानप्रस्थ से संन्यास की ओर जाने की बताई गई है। आज के संदर्भ में इसका अर्थ यही है कि अब तक जो किया, वह सांसारिक, सामाजिक और पारिवारिक था, यह चौथापन इसलिए है कि दैविक, दार्शनिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से जीवन जिया जाए और कुछ ऐसा किया जाए जिसकी कल्पना किसी को न हो। देखा जाए तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के राजनीतिक नेतृत्व के लगभग 15 वर्ष एक पिछड़े कहे जाने वाले आपदाग्रस्त और भ्रष्टाचार तथा प्रशासनिक व्यवस्था में गिरावट के लिए जाने जाने वाले राज्य गुजरात को, भारत ही नहीं, विश्व पटल तक पहुंचाने में व्यतीत हुए। जिन लोगों ने उनके शासन के समय इस राज्य की यात्रा की होगी, उन्हें एक परिवर्तन अवश्य दिखाई दिया होगा कि वहां अपना काम कराने के लिए रिश्वतखोरी की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। जनता के लिए सुविधाओं की व्यवस्था की गई थी। खुशहाली और संपन्नता का दौर शुरू हो गया था। 
वाइब्रेंट गुज़रात की शुरुआत सन् 2003 में हुई जिसका आधार वे नीतियां थीं जिनके अनुसार निवेशी वातावरण अर्थात आइए, पैसा लगाइए, संसाधन और सुविधाएं उपलब्ध हैं, व्यापार करें, उद्योग स्थापित करें, रेड टेप नहीं, रेड कारपेट देंगे। सरकारी कर्मचारियों को बता दिया गया कि ब्यूरोक्रेट यानी नौकरशाह और लकीर का फकीर बनना अथवा पुराने घिसेपिटे नियमों पर चलना बंद करना होगा। जो लोग काम में अड़ंगा डालने में माहिर थे, उन्हें कोई अवसर दिए बिना अलग-थलग कर दिया गया, उनकी बड़े पैमाने पर छटाई हुई। परिणाम यह हुआ कि प्रदेश की जीडीपी 10 प्रतिशत के औसत पर आ गई जो राष्ट्रीय औसत से अधिक थी। मैनुफैक्चरिंग, कृषि, ऊर्जा, आवागमन के साधन और सबसे ऊपर डिजिटल अर्थव्यवस्था तथा गवर्नेंस को व्यक्ति आधारित बनाने के स्थान पर ‘सबका साथ, सबका विकास’ अपनाया गया। भ्रष्टाचार के प्रति ज़ीरो टॉलरेंस ने गरीबी और बेरोज़गारी दूर करने के स्थायी उपाय किए गए। निर्णयों को लटकाए रखने के युग को ख़त्म किया गया और तुरंत निर्णय करने की प्रक्रिया शुरू की गई। इसी से गुज़रात मॉडल बना, जिसकी गूंज सुनाई देने लगी। मोदी जी को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जाने लगा जिसके ऊपर न तो भ्रष्ट आचरण का आरोप लगा, न ही प्रशासनिक अक्षमता का और न ही धर्म, जाति, लिंग के आधार पर किसी तरह का पक्षपात करने का।
राष्ट्र का नेतृत्व : प्रधानमंत्री के रूप में तीसरा कार्यकाल मतलब यह भी पंद्रह वर्ष की अवधि जिसके बारे में चर्चा होने लगी है कि वे कितने सफल और असफल हैं। कहा जाता है देश के नेतृत्व में राज्य में अपनाई गई नीतियों को लागू करना सही नहीं है, इसीलिए मोदी द्वारा गुजरात मॉडल लागू करने की सराहना के स्थान पर उसकी आलोचना होने लगी। उनके सभी फैसलों जिनमें प्रमुख रूप से नोटबंदी और जीएसटी है, उनकी व्यापक समीक्षा हुई और अनेक पक्षकारों का कहना है कि मोदी अभी प्रदेश के नेतृत्व की भूमिका से बाहर नहीं निकल पाए हैं। उदाहरण के लिए आज़ादी के बाद से भ्रष्टाचार, रिश्वतख़ोरी और काले धन का राष्ट्रीय स्तर पर उसका कोई समाधान नहीं निकाला जा सका है। हम उन देशों से बहुत पीछे हैं जो लगभग हमारे जैसे ही थे और आसपास के वर्षों में ही स्वतंत्र हुए थे, लेकिन वे हमसे बहुत आगे हैं।
इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि एक राष्ट्र के रूप में भारत की छवि संसार में बदली है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि देश के सामान्य मानवी का जीवन बहुत ज़्यादा सुखी और खुशहाल हो गया है। हालांकि अब रिश्वतखोरी पहले की तरह ख़ुलेआम नहीं होती, लेकिन अभी भी जारी है। हालांकि यह सच है कि देश में परिवर्तन हुआ है लेकिन अन्य प्रगतिशील देशों के साथ तुलना करने पर यह बहुत बौना लगता है। विज्ञान और तकनीक का इस्तेमाल करने में अभी हम पीछे हैं। अभी भी प्राकृतिक प्रकोप कहकर अधिकतर मानव द्वारा निर्मित आपदाओं को नकारने की आदत से बाहर नहीं निकल पाए हैं।
यह सत्य है कि रोटी, कपड़ा और मकान की समस्या से निपटने के लिए साधन उपलब्ध कर लिए गए हैं, लेकिन क्या आधुनिक युग में यही काफी है? उद्योग धंधे पहले भी शुरू किए जाते थे, विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर आधारित उपक्रम पहले भी होते थे, स्कूल कॉलेज और अन्य शिक्षा संस्थानों में प्रवेश पहले भी मुश्किल था, आज भी है। शिक्षा नीति तब भी बाबू साहब बनाती थी, आज भी कमोबेश वैसा ही है। 
इसमें कोई संदेह नहीं कि देश वास्तव में काफी आगे बढ़ा है, लेकिन क्या हमारी रफ्तार दूसरे देशों से आगे निकल जाने की है? जो समस्याएं एक स्थायी समाधान खोजे जाने के लिए तब थीं, आज भी हैं। आजीविका हो या फिर न्याय ही क्यों न हो, उसके लिए पहले भी लड़ना और अनंत समय तक इंतज़ार करना पड़ता था, अब भी लगभग वही स्थिति है। सामाजिक और आर्थिक असंतुलन पहले से कम नहीं हुआ है, अब भी संसाधनों का असमान विभाजन होता है, अमीर की कमाई और गरीब की आमदनी में अंतर पहले की तरह ही है। आशा भी उसी से होती है जिस पर भरोसा हो कि वह यह सब कर सकता है। प्रधानमंत्री पर भरोसा पहले इस पद पर आसीन व्यक्तियों से कहीं अधिक है, यही राहत की बात है।

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