क्या मुफ्त की रेवड़ियों से बिहार का विकास हो पाएगा ?
अब लगभग हर चुनाव में यह देखने को मिल रहा है कि मुफ्त की रेवड़ियां, विशेषकर कल्याण योजनाएं, नगदी वितरण का रूप लेने लगी हैं। यह वास्तव में पैसा बांटकर वोट खरीदने का ही प्रयास मात्र लगता है। इसलिए यह आश्चर्य नहीं है कि मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने बिहार में भी यही तकनीक अपनायी है ताकि सत्ता विरोधी लहर और बेरोज़गारी पर विपक्ष की आलोचना से बचा जा सके। नितीश हर घर को प्रति माह 125 यूनिट बिजली मुफ्त दे रहे हैं, उन्होंने बेरोज़गार युवकों को दो वर्ष तक 1,000 रुपये प्रतिमाह देने की घोषणा की है और विधवाओं व बुज़ुर्गों को दी जाने वाली मासिक सामाजिक सुरक्षा पेंशन 400 रुपये से बढ़ाकर 1,000 रुपये कर दी है। मुख्यमंत्री महिला रोज़गार योजना के तहत जीविका गुटों से जुड़ी 75 लाख महिलाओं को 10-10 हज़ार रुपये प्रति महिला देने की योजना विपक्ष ने जो 2,500 रुपये प्रति माह महिलाओं को देने का वायदा किया है, उसे काउंटर किया जा सके। साथ ही बिहार राज्य जीविका निधि क्रेडिट को-ऑपरेटिव फैडरेशन भी लांच किया गया है, जो कि 7 प्रतिशत के कम ब्याज दरों पर जीविका गुटों के सदस्यों को ऋण देगा। आशा व ममता श्रमिकों के भत्ते में भी वृद्धि की गई है और पंचायतीराज व सिविक बॉडीज में महिलाओं का आरक्षण 50 प्रतिशत किया गया है। दूसरी ओर विपक्ष ने वायदा किया है कि वह हर माह 200 यूनिट बिजली मुफ्त देगा, हर शख्स का 25 लाख रूपये का मुफ्त मेडिकल बीमा होगा और भूमिरहित व्यक्तियों को 5 डेसिमल भूमि घर के लिए दी जायेगी। राजद के नेता तेजस्वी यादव ने कहा है कि अगर उनका महागठबंधन सत्ता में आता है, तो सरकार बनाने के 20 दिन के भीतर कानून गठित किया जायेगा यह सुनिश्चित करने के लिए कि हर परिवार के कम से कम एक सदस्य को राज्य में सरकारी नौकरी मिले।
यहां मुख्यत: तीन प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण हो जाते हैं। एक, क्या इन मुफ्त की रेवड़ियों से बिहार का कल्याण व विकास हो पाएगा? दो, अगर यह बिहार के लिए इतनी ही आवश्यक हैं, जितना की प्रचार किया जा रहा है तो नितीश कुमार इन पर चुनाव के समय ही गौर क्यों कर रहे हैं, जबकि वह वर्षों से पटना की सत्ता पर काबिज़ हैं? तीसरा यह कि क्या बिहार के नागरिक इस लालच में आकर अपने मत का प्रयोग करेंगे? गौरतलब है कि 1960 के दशक में अर्थव्यवस्था के मामले में बिहार का भारत के सभी राज्यों में पांचवां स्थान था और वह गुजरात व कर्नाटक से भी आगे था। लेकिन आज वह दक्षिण एशिया का सबसे पिछड़ा हुआ क्षेत्र है।
बिहार हर मामले में शेष देश से बहुत पीछे है। आय में अंतर तो दिल दहला देता है। बिहार का औसत नागरिक औसत भारतीय की तुलना में एक-तिहाई से भी कम कमाता है। 2014 में रुपये के मूल्य के हिसाब से यह 2023-24 में यह 32,227 रुपये बनाम 1,14,710 रुपये था। उद्योग के नाम पर बिहार लगभग शून्य है। ज़ाहिर है मुफ्त की रेवड़ियों से बिहार की स्थिति में सुधार नहीं आने जा रहा है। विकास के लिए ठोस योजनाएं बनानी व लागू करनी होती हैं।
दरअसल, नितीश कुमार जो कभी बिहार की उम्मीद व चमकते हुए सितारे थे, अब उनके पास अपने रिपोर्ट कार्ड में दिखाने के लिए कुछ नहीं है कि बिहार के विकास के लिए उन्होंने क्या काम किये। उनकी सारी ऊर्जा इसी बात में लगी रही कि वह किस जुगाड़ से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बने रहें। आज वह राजनीति की ऐसी अनिश्चित पिच पर बल्लेबाजी कर रहे हैं कि वह किस गेंद पर आउट हो जाएं या कर दिये जाएं, उन्हें मालूम नहीं। अब यह साबित करने के लिए कि उनकी सियासत अपनी प्रासंगिकता नहीं खो रही है, उन्हें मुफ्त की रेवड़ियों का सहारा लेना पड़ रहा है। ज्ञात रहे कि नितीश कुमार की सियासी प्रासंगिकता लालू प्रसाद यादव को काउंटर करने के लिए थी? लेकिन अब तो लालू ही बिहार की राजनीति में धुंधली-सी याद बनकर रह गये हैं। इसलिए तेजस्वी यादव मतदाताओं को यह विश्वास दिलाने की कोशिश में लगे हुए हैं कि जब शासन की बात आती है, तो वह अपने पिता के पुत्र नहीं हैं, उनकी अपनी आधुनिक शैली है।
बहरहाल, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भारत में चुनाव दुर्लभ ही किसी एक मुद्दे से तय होते हैं। लेकिन कुछ मुद्दे मत-प्रयोग में अन्य मुद्दों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। बिहार में जाति का महत्व हमेशा से ही रहा है, शायद यही सबसे महत्वपूर्ण है। जाति भावनात्मक है, मत प्रयोग को प्रभावित करती है, एक नेता के प्रति हमदर्दी और दूसरे के प्रति नफरत उत्पन्न करती है। हां, यह सही है कि कभी-कभी स्थानीय मुद्दे मतदाताओं को जातिगत समीकरण से ऊपर उठने के लिए मजबूर कर देते हैं, लेकिन बिहार का हर नेता जाति की अहमियत को समझता है, इसलिए ही वहां जाति जनगणना करवायी गई और नई दिल्ली को भी मजबूर होकर देशव्यापी जाति जनगणना कराये जाने की घोषणा करनी पड़ी। अब सवाल यह है कि इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव में जाति का खेल कैसा रहेगा?
एक समय में बिहार की राजनीति में 15.5 प्रतिशत सवर्ण जातियां, जिनमें ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार, कायस्थ व अशरफ मुस्लिम शामिल थे, अपना दबदबा बनाये हुए थीं। इनका वर्चस्व ओबीसी की तिगड़ी—यादव (14.3 प्रतिशत), कुर्मी (2.3 प्रतिशत) व कुशवाह जिन्हें कोयरी भी कहते हैं (4.2 प्रतिशत) ने तोड़ा, लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में। फिर इस तिगड़ी को नितीश कुमार (कुर्मी) ने लव-कुश गठजोड़ बनाकर तोड़ा। हालांकि कुर्मियों की संख्या कम है, लेकिन नितीश कुमार की वजह से नेतृत्व उनके हाथ में ही रहा, विशेषकर इसलिए भी कि उन्होंने अपने जैसे धमिकों (2.1 प्रतिशत) को अपने साथ मिलाकर रखा। दरअसल, बिहार में सारा खेल यह है कि कौन नेता अपनी जाति को अपने पीछे लामबंद करने में सफल रहता है। मसलन, बिहार में पासवान/दुसाध 5.3 प्रतिशत हैं, लेकिन पासवान अधिक संगठित हैं, इसलिए चिराग पासवान एनडीए में कड़ी सौदेबाज़ी करने की स्थिति में हैं और कर भी रहे हैं। इस समय सभी राजनीतिक दल अपने जातिगत समीकरण दुरुस्त करने में लगे हुए हैं, जिसका भी जाति गणित सही बैठ जायेगा, पटना उसका हो जायेगा और इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि मुफ्त की रेवड़ियों का क्या वायदा था?
राजनीति शास्त्री कहते हैं कि लोकतंत्र के दो चेहरे होते हैं—उद्धारकर्ता और व्यवहारिक। बिहार में लम्बे समय से लालू की राजद और नितीश की जदयू इन दोनों चेहरों की वाहक रही हैं। यह चुनाव इस बात पर टिका हुआ है कि राजद के तेजस्वी विश्वसनीय व्यवहारिक चेहरा प्रोजेक्ट कर सकते हैं या नितीश उद्धारकर्ता चेहरा विकसित कर सकते हैं। 14 नवम्बर, 2025 को स्थिति स्पष्ट हो जाएगी।
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