जैविक हथियारों को लेकर भारत ने विश्व को किया आगाह

जैविक हथियार ऐसे हथियार होते हैं जिनमें विस्फोटक के बजाय वायरस. बैक्टीरिया, फंगस या विषाक्त जैविक एजेंटों का उपयोग किया जाता है। इन हथियारों का उद्देश्य लोगों, जानवरों या पौधों में जानलेवा बीमारियां फैलाना होता है जिससे बड़ी संख्या में मौतें, विकलांगता और सामाजिक-आर्थिक तबाही हो सकती है। स्पष्ट है कि जैविक हथियार बिना धमाके के भी बड़ी तबाही करते हैं और ये कम समय में व्यापक क्षेत्र में प्रभाव डाल सकते हैं। 
जानकारों की मानें तो इतिहास में पहला जैविक हथियार प्रयोग प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी ने किया था और बाद में द्वितीय विश्व युद्ध में जापान ने भी इसका इस्तेमाल किया था। आज भी अमरीका, रूस, चीन और अन्य कई देश जैविक हथियारों के संभवत: भंडारण और अनुसंधान में संलग्न हैं। हालांकि इन हथियारों की वास्तविक उपस्थिति का खुलासा आमतौर पर नहीं होता है। भारत सहित दुनिया के अन्य विकासशील देशों के लिए जैविक हथियार एक गंभीर खतरा हैं क्योंकि ये महामारी फैलाकर लोगों के जीवन को संकट में डाल सकते हैं, स्वास्थ्य ढांचे पर दबाव बढ़ा सकते हैं और आर्थिक एवं सामाजिक अस्थिरता पैदा कर सकते हैं। ऐसा इसलिए कि वैश्विक स्तर पर जैविक हथियारों पर नियंत्रण और इनकी रोकथाम के लिए कोई मज़बूत संगठन नहीं है। 
इनका दुरुपयोग आतंकवाद, साइंटिफिक प्रयोगों और जैविक आतंक के रूप में हो सकता है। भारत जैसे अधिक जनसंख्या वाले देश, जहां स्वास्थ्य ढांचा अभी भी विकासशील है, के लिए जैविक हथियार एक बड़ा खतरा सिद्ध हो सकते हैं। इनके दुरुपयोग को रोकने के लिए वैश्विक स्तर पर बायोलॉजिकल वेपन्स कनवेंशन (बीडब्ल्यूसी) जैसी संधियों के साथ-साथ कड़े नियंत्रण और निगरानी की आवश्यकता है।
इतिहास पर नज़र : आंकड़े बताते हैं कि जैविक हथियारों का प्रयोग इतिहास में कई बार हुआ है। पहली बार सन् 1347 में मंगोलियाई सेना ने काफा (वर्तमान यूक्रेन के फ्यूडोसिया) के तट पर प्लेग (ब्लैक डेथ महामारी) से संक्रमित शव फेंके थे, जिससे यूरोप में करोड़ों लोगों की मौत हुई थी। दूसरी बार 1710 में स्वीडन-रूस युद्ध में रूस की सेना पर प्लेग संक्रमित शवों का प्रयोग हुआ। तीसरी बार 1763 में ब्रिटेन ने फोर्ट पिट (पिट्सबर्ग) में डेलावेयर इंडियन लोगों पर चेचक वायरस से संक्रमित कंबल फेंके। चौथी बार प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के दौरान जर्मनी ने एंथ्रेक्स और ग्लैंडर जैसे जीवाणुओं के जरिए जैविक हथियारों का सीमित इस्तेमाल किया। पांचवीं बार दूसरे विश्व युद्ध में जापान ने चीन के खिलाफ टाइफाइड जैसे वायरस का प्रयोग किया। छठी बार 1980 के दशक में ओशो के अनुयायियों ने अमरीका में सालमोनेला बैक्टीरिया का उपयोग कर राजनीतिक वर्चस्व हासिल करने के लिए भोजन और पानी प्रदूषित किया था।  हालांकि 1925 में जेनेवा प्रोटोकॉल में जैविक हथियारों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, लेकिन इसके बावजूद कई देशों ने जैविक हथियारों के शोध और भंडारण का कार्य जारी रखा, जिससे वैश्विक सुरक्षा को खतरा बना हुआ है। वर्तमान में दुनिया के विभिन्न हिस्सों में जैविक हथियारों के आतंकवादी और राज्यस्तरीय उपयोग की आशंकाएं बनी हुई हैं। लिहाजा, भारत ने पिछले दिनों अनिश्चित अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा माहौल को देखते हुए जैविक हथियारों के संभावित दुरुपयोग पर रोक लगाने के लिए एक वैश्विक तंत्र की ज़रूरत बताई है। 
भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने जैविक हथियारों की चुनौती से निपटने के लिए एक स्पष्ट खाका तैयार करने की ज़रूरत पर बल दिया है। उन्होंने दो टूक कहा कि सरकार से इतर तत्वों द्वारा जैविक हथियारों का दुरुपयोग किया जाना अब दूर की बात नहीं है और ऐसी चुनौती से निपटने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग ज़रूरी है। विदेश मंत्री ने जैविक हथियार सम्मेलन (बीडब्ल्यूसी) की 50वीं वर्षगांठ पर आयोजित एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए ऐसा कहा।  भारत चाहता है कि जैविक हथियारों के हमले से बचाव के लिए सबसे महत्वपूर्ण कदम वैश्विक और राष्ट्रीय निगरानी प्रणाली को मज़बूत किया जाए ताकि किसी भी संदिग्ध जैविक प्रकोप का शीघ्र पता लगाया जा सके। (अदिति)

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