आखिर क्यों ज़रूरी था ‘संचार साथी’ एप ?

डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट-2023 (डीपीडीपी) का उद्देश्य है कि व्यक्तिगत डेटा को सुरक्षित, पारदर्शी और जवाबदेह तरीके से प्रोसेस किया जाए। हालांकि यह एक्ट तो दो साल पहले बन गया था, लेकिन यह लागू अभी 14 नवम्बर 2025 से ही हुआ है। सवाल है क्या यह कानून आम लोगों के व्यक्तिगत डेटा को सुरक्षित रख पाने में सफल होगा?
हालांकि भारत सरकार ने हर नये स्मार्ट फोन में संचार साथी एप फ्री इंस्टाल करने की जो घोषणा की थी, विपक्ष के भारी विरोध के बाद सरकार ने अपने इस फैसले को वापस ले लिया है। परन्तु सवाल है क्या वाकई देश में आम लोगों का व्यक्तिगत डेटा सुरक्षित है? सवाल यह भी है कि अगर भारत सरकार द्वारा बनाये गये कानून डीपीडीपी (डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट-2023) इसी काम के लिए बनाया गया है तो क्या सरकार को शक है कि इसके बाद भी व्यक्तिगत डेटा को चोरी होने से नहीं बचाया जा सकता और इसीलिए वह हर स्मार्ट फोन में बिकने के पहले ही संचार साथी एप इंस्टॉल करना चाहती थी? साथ ही सवाल यह भी है कि स्मार्ट फोन के इतर भी तो करोड़ों फोन इस्तेमाल हो रहे हैं, क्या उनके डेटा को सुरक्षित करना ज़रूरी नहीं था? बहरहाल इन तमाम सवालों के बीच यह पड़ताल करना ज़रूरी है कि आखिर डीपीडीपी एक्ट के बाद आम आदमी के डेटा की सुरक्षा स्थिति क्या है?
व्यक्तिगत अधिकारों और वैध डेटा प्रसंस्करण पर समान रूप से बल देने वाला डीपीडीपी कानून-2025 देश में लागू हो गया। फिलहाल कारपोरेट जगत और आमजन दोनों से गंभीर और गहराई तक रिश्ता रखने वाले इस कानून के 18 महीनों में  तीन चरणों के जरिए लागू होने की प्रक्रिया जारी है। जैसे-जैसे इसके प्रावधान प्रभावी होते जाएंगे, देश के नागरिक इससे जुड़े अधिकारों, दायित्वों और संभावित चुनौतियों को और बेहतर समझ पाएंगे। अभी तो यही कहा जा सकता है कि कुछ आशंकाओं के बावजूद डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण नियम के लागू होने से भारत के पास अब डेटा सुरक्षा के लिए एक ऐसी व्यवहारिक और नवाचार-अनुकूल प्रणाली है, जो देश के बढ़ते डिजिटल पारिस्थितिकी तंत्र में विश्वास को मज़बूत करती है।
जब देश में करोड़ों नागरिकों द्वारा निजी आंकड़ों का प्रतिक्षण लेन-देन हो रहा हो, ऐसे में निजी आंकड़ों की सुरक्षा, संरक्षा, निजता या उसे संग्रह कर उसके दुरुपयोग के ज़रिये फायदा उठाने वालों के खिलाफ किसी व्यापक और सक्षम कानून का न होना, बहुत लाचारी जैसी स्थिति थी। अब इसके लिए एक व्यापक नियमावली और सक्रिय दंड विधान है, तो इसको लागू करने की प्रक्रिया में इसके प्रति जन जागरूकता बढ़ेगी। जब देश डेटा चोरी के मामले में बस रूस, अमरीका, ताइवान, फ्रांस और स्पेन से ही पीछे हो, जहां प्रति मिनट 15-20 वैध एकाउंट डेटा चोरी के शिकार बन रहे हों, डेटा असुरक्षा के मामले में देश का नंबर संसार में पांचवां हो, तो यह कानून वाकई ज़रूरी था। 
सरकारी दावा है कि यह कानून निजी आंकड़ों के प्रबंधन का बेहतर तरीका है, जो लोगों के अधिकारों को मज़बूत तो करेगा ही, संगठनों के लिए भी उनकी ज़िम्मेदारियां तय करेगा। इसके व्यावहारिक ढांचा व्यापक जन परामर्श द्वारा समर्थित है, इसी कारण यह समावेशी और वास्तविक आवश्यकताओं के प्रति उत्तरदायी है। यह कानून देश की डिजिटल अर्थव्यवस्था के विकास में सहायक बनने के साथ सुनिश्चित करेगा कि गोपनीयता इसकी प्रगति का केंद्र बिंदु बना रहे, तो क्या हम वाकई एक सुरक्षित, अधिक पारदर्शी और नवाचार-अनुकूल डेटा पारिस्थितिकी तंत्र की ओर बढ़ चुके हैं, जो डिजिटल शासन में जनता के विश्वास को मज़बूत करता है? क्या किसी भी सरकारी, गैर-सरकारी संस्थान द्वारा जनता का डेटा उसकी अनुमति के बिना बेचना या लीक करना 500 करोड़ जैसे भारी जुर्माने का सबब बनेगा तो हमारी निजता पर आये दिन होने वाले हमले कम होंगे? साइबर अटैक की वजह से डेटा लीक को संबंधित कंपनी या संस्थान दुर्घटना बताकर बच नहीं पाएगा? कानून के तमाम प्रावधान कठोर है, वे डेटा चोरी के मज़बूत जवाब लगते हैं, लेकिन सच तो यह है कि इससे जुड़े कई सवाल अब भी अनुत्तरित हैं।
सरकार तय करेगी कि कौन-सी कंपनी किन देशों में स्थित अपने सर्वरों पर देश के लोगों का पर्सनल डेटा ट्रांसफर कर सकती हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में कई सरकारी प्रतिष्ठानं, एजेंसियां नियमों से मुक्त हैं। यहां पारदर्शिता का प्रश्न प्रस्तुत होता है। यदि कुछ मामलों में सरकार ही खुद को कानून से छूट दे दे, तो पारदर्शिता कैसे सुनिश्चित होगी? कानून प्रवर्तन और लोक कल्याण योजना के नाम पर और दूसरे बहानों से नागरिकों का पर्सनल डेटा लेती हैं। सरकारी राहत वगैरह से वंचित होने अथवा सरकारी भय से नागरिक इनको देने से इंकार नहीं करता। सरकारें व्यक्तिगत आंकड़ों का अपने सियासी हक में इस्तेमाल नहीं करेंगी, इसकी गारंटी कौन देगा? खुद सरकार देगी तो उसकी विश्वसनीयता कितनी रहेगी। 
कृत्रिम बुद्धिमत्ता, चैटजीपीटी जैसे मॉडल और सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफार्म्स ने मिलकर डेटा के दुरुपयोग को बेहद आसान बना दिया है। राजनीतिक दलों द्वारा लक्षित विज्ञापन, गलत सूचना अभियान, चुनावों को प्रभावित करने वाले हथकंडे—सब कुछ डेटा-आधारित ही हैं। ऐसे में इस कानून के सात मूल सिद्धांत—सहमति, पारदर्शिता, उद्देश्य सीमा, डेटा न्यूनीकरण, सटीकता, भंडारण सीमा, सुरक्षा और जवाबदेही और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

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