अमृतपाल सिंह बनाम रशीद—यह दोहरा रवैया क्यों ?
आस क्या अब तो उम्मीद-ए-ना उम्मीदी भी नहीं,
कौन दे मुझ को तसल्ली कौन बहिलाये मुझे।
—मुंशी अमीर उल्लाह तसनीम
पहले यह बिल्कुल स्पष्ट कर दूं कि मैं भाई अमृतपाल सिंह की राजनीति का समर्थक नहीं हूं। मुझे नहीं प्रतीत होता कि उनकी राजनीति पंजाब या सिख कौम का कोई भला करेगी, परन्तु उनकी सोच से सहमति न होने के बावजूद मैं न्याय का समर्थक हूं। न्याय यह मांग करता है कि भाई अमृतपाल सिंह जो पंजाब में सबसे अधिक मतों के अंतर से लोकसभा चुनाव जीते, उनका हक है कि वह लोकसभा में उपस्थित होकर अपनी बात कह सकें। उन्हें वैसे भी किसी केस में अभी सज़ा नहीं हुई, सिर्फ आरोप हैं।
वैसे भी हैरानी की बात है कि लगभग एक जैसे कानूनों के अतंर्गत जेलों में बंद दो सांसदों के साथ किया जा रहा अलग-अलग व्यवहार बहुत ही चुभने वाला है। भाई अमृतपाल सिंह के साथ सहमति न होते हुए भी मुझे प्रतीत नहीं होता कि उन्होंने कोई ऐसी बात की थी जो एन.एस.ए. या यू.ए.पी.ए. जैसे कानूनों का हकदार था, परन्तु चलो, यह सरकार या कानून लागू करने वाली एजेंसियों के हक की बात है, परन्तु हैरानी है न कि इं़जीनियर रशीद को लोकसभा सत्र में शामिल होने की अनुमति मिल जाती है और केन्द्र सरकार इसमें कोई बाधा नहीं डालती, परन्तु भाई अमृतपाल सिंह को पंजाब सरकार ऐसी अनुमति नहीं देती। एक ही देश तथा एक ही कानून, लगभग एक जैसे आरोपों तथा धाराओं के तहत अलग-अलग न्याय शोभा नहीं देता। लोकतंत्र में प्रत्येक को अपनी बात कहने का अधिकार है। फिर भाई अमृतपाल सिंह तो लोकसभा सांसद हैं। वैसे हमें इन सरकारों से न्याय की कम ही उम्मीद है, अन्यथा सज़ा पूरी कर चुके बंदी जेलों में बंद ही क्यों रखे जाते। ़फैज़ के शब्दों में :
शीशों का मसीहा कोई नहीं,
क्या आस लगाए बैठे हो।
चुनाव
स़ैफ अंदाज़ा-ए-ब्यां रंग बदल देता है,
वरना दुनिया में कोई बात नई बात नहीं।
स़ैफुद्दीन स़ैफ का यह शे’अर पंजाब में हो रहे ब्लाक समिति तथा ज़िला परिषद् चुनावों में घटित हो रहे घटनाक्रम पर बिल्कुल चरितार्थ होता है, क्योंकि जो कुछ पहली सरकारें स्थानीय चुनावों में करती रही हैं, बिल्कुल वही कुछ मौजूदा आम आदमी पार्टी (आप) सरकार भी करती दिखाई दे रही है। शायद सरकार की कुर्सी की कशिश ही इतनी ज़बरदस्त है कि जो भी एक बार इस पर बैठ जाता है, उसे यही प्रतीत होता है कि हर अब प्रत्येक चीज़ ही उसकी मज़र्ी के अनुसार ही चलनी चाहिए। हर सरकार, हर हाल में तथा हर मरहले पर जीतना ही चाहती है चाहे उस जीत के लिए किसी भी सीमा तक क्यों न जाने पड़े। यह बिल्कुल ठीक है कि पंजाब की प्रत्येक सरकार, चाहे वह कांग्रेस की रही या अकाली-भाजपा गठबंधन की या फिर मौजूदा आम आदमी पार्टी की सरकार, ज़्यादातर विधानसभा उप-चुनावों में सरकार की ही जीत होती रही है। यह भी सच है कि प्रत्येक सरकार स्थानीय चुनाव जीतने के लिए साम-दाम-दंड-भेद इस्तेमाल करके ही विजयी होती दिखाई देती है। शायद प्रत्येक सरकार को प्रतीत होता है कि यदि वह विधानसभा के आम चुनावों से पहले स्थानीय चुनावों में जीत प्राप्त कर लेगी तो यह उसकी आम चुनावों में जीत की गारंटी हो जाएगी। अफसोस है कि आज़ादी के 77 वर्षों के बाद भी हर बार सरकारों का रवैया अधिकाधिक खराब ढंग से सामने आता है। यह ठीक है कि पंजाब के लोगों में सब्र की शक्ति काफी ज़्यादा है। वे जल्दबाज़ी में बगावती भूमिका में नहीं आते, परन्तु वे धक्के का एहसास भी करते हैं और धक्के को भूलते भी नहीं। यही कारण है कि स्थानीय चुनावों में धक्केशाही करके जीतने वाली सरकार आम तौर पर आम चुनावों में लोगों द्वारा हरा भी दी जाती है। उदाहरण सामने है कि 2017 में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी पंजाब की इक्का-दुक्का को छोड़ कर लगभग सभी नगर कौंसिल तथा पंचायत चुनावों में विजयी रही थी, परन्तु 2022 के आम चुनावों में क्या हुआ, सबके सामने है।
वास्तव में पंजाब के लोग कांग्रेस तथा अकाली-भाजपा गठबंधन के बार-बार सत्ता पर काबिज़ होने के सिललिले से उकता ही नहीं गए थे, अपितु उनकी कारगुज़ारी से भी परेशान थे। इसीलिए वे तीसरे विकल्प की तलाश में थे। एक बार उन्होंने पी.पी.पी. को काफी महत्व तो दिया, परन्तु वह शायद लोगों में उतना विश्वास नहीं पैदा कर सकी कि लोग उसे विजयी बना देते या फिर लोग अभी परम्परागत पार्टियों से पूरी तरह बेज़ार ही नहीं हुए थे। फिर पंजाब के लोगों ने विकल्प की तलाश में भी आम आदमी पार्टी को पंजाब में मुख्य विपक्ष का दर्जा दे दिया। चाहे ‘आप’ विपक्ष के रूप में तब कोई ज़्यादा संतोषजनक कारगुज़ारी नहीं दिखा सकी और वह आपसी फूट का शिकार भी रही, परन्तु सरकार की कारगुज़ारी तथा आपसी फूट ने लोगों को कहीं अधिक निराश किया था, जबकि अकाली-भाजपा गठबंधन की आपसी खींचतान तथा अकाली दल पर लगे बेअदबी के सच्चे-झूठे आरोपों के कारण आम आदमी पार्टी के लोक-लुभावन वायदों तथा समूचे बदलाव की आशा ने लोगों को पूरी तरह ‘आप’ की ओर चला दिया। परिणाम सामने है परन्तु अफसोस कहीं कोई बदलाव दिखाई नहीं दिया। अब भी ब्लाक समिति तथा ज़िला परिषद चुनावों में वैसे ही आरोप लग रहे हैं, जैसे कांग्रेसी तथा अकाली-भाजपा सरकारों के समय लगाते रहे थे। आरोप लग रहे हैं कि विपक्षी पार्टियों के उम्मीदवारों को नामांकन दाखिल करने के लिए आवश्यक सर्टिफिकेट देते समय टरकाया जा रहा है, परेशान किया जा रहा है। डराने, धमकाने तथा दबाव के अधीन बिना मुकाबले विजयी बनाने के प्रयास के आरोप भी लग ही रहे हैं। यहां एक वायरल हुए आडियो की चर्चा भी बहुत है, जिसे सत्तारूढ़ पार्टी ए.आई. जेनरेटड (बनाई गई) आडियो कह रही है, परन्तु विपक्ष विशेषकर अकाली दल इसका बहुत प्रचार कर रहा है, परन्तु याद रखो, धक्के की जीत आम चुनावों में आम तौर पर लाभदायक कम और नुकसानदेह अधिक होती है, क्योंकि यह प्रभाव बन जाता है कि अब लोग सत्तारूढ़ पार्टी के साथ नहीं रहे, तभी उसे धक्केशाही करनी पड़ रही है। आम लोग अवसर मिलते ही धक्के के बदले सरकारों को बदल के सांस लेते हैं। अत: मौजूदा सरकार सचेत रूप में यह प्रभाव बनने देने से बचे। वास्तविक जीत लोगों के मन को जीतने की जीत होती है। इस स्थिति में क्रांतिकारी शायर फैज़ अहमद फैज़ का एक शे’अर याद आ रहा है।
कैसे एक चेहरे के ठहरे हुए मानूस नकूश,
देखते देखते यक-ल़खत बदल जाते हैं।
(मानूस—पक्के, नकूश—नक्श, यक-लख्त—एक दम)
पुतिन का भारत दौरा
जिस प्रकार के हालात में इस समय रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन भारत का दौरा कर रहे हैं, उसके बड़े आर्थिक तथा सामरिक (सैन्य) लाभ होने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता, परन्तु इस समय की जियो-पालिटिक्स के हालात में यह दौरा भारत के लिए दो-धारी तलवार पर चलने से कम नहीं है। हमारे सामने है कि इस दौरे से बिल्कुल पहले यूरोप के तीन प्रमुख देशों जर्मनी, फ्रांस तथा ब्रिटेन के राजदूतों ने भारत की एक प्रमुख अंग्रेज़ी अखबार में रूस के खिलाफ सख्त लेख लिख कर भारत को अप्रत्यक्ष ढंग से एक चेतावनी ही दी है। यह लेख लिखना एक असाधारण-सी बात है। ऐसा आम तौर पर नहीं होता। यह साफ प्रकट करता है कि पश्चिम भारत की रूस के साथ निकटता से परेशानी महसूस करता है। पुतिन का यह दौरा एक ओर भारत के रूस से रक्षा, ऊर्जा, व्यापारिक सहयोग को बढ़ाने तथा लाखों भारतीयों के लिए रूस में नौकरियों के द्वार खोल सकता है। वहीं दूसरी ओर यह अमरीका के लिए एक चेतावनी भी होगी कि भारत को इतना मजबूर न करें कि वह पूरी तरह रूसी-चीनी खेमे की ओर चला जाए, परन्तु इसका दूसरा प्रभाव यह भी हो सकता है कि अमरीका तथा पश्चिमी देश भारत से और नाराज़ होकर भारत पर और टैरिफ या प्रतिबंध लगाने की ओर चले जाएं। वैसे तो यह दौरा भारत को ग्लोबल साऊथ के नेता द्वारा स्थापित करने का काम भी कर सकता है और रूस का प्रभाव चीन के साथ भारत के सीमांत मामले सुलझाने में भी सहायक हो सकता है, परन्तु चिन्ता की बात यह है कि अब भारत-रूस के संबंध 1971 जैसे नहीं हैं। उस समय रूस के साथ सिर्फ भारत खड़ा था। उसकी चीन के साथ भी नहीं बनती थी और पाकिस्तान भी पूरी तरह अमरीका की झोली में था, परन्तु अब चीन रूस का सबसे बड़ा समर्थक है। रूस इस समय बड़ी सीमा तक स्वयं चीन पर निर्भर है जबकि रूस ने भारत-पाकिस्तान के युद्ध में भारत का साथ देने की बजाय निष्पक्ष रहने को प्राथमिकता दी। उसके पाकिस्तान से भी अब अच्छे संबंध हैं और चीन ने भारत के खिलाफ पाकिस्तान की पूरी मदद की है। यह बात भारतीय सेना प्रमुख ने स्वयं कही थी। अत: ऐसी जियो-पालिटिक्स स्थितियों में भारत आंखें बंद करके रूस के साथ नहीं जा सकता। भारत के विदेश नीति निर्माताओं को सोच-सोच कर कदम उठाने की ज़रूरत है। हम आशा करते हैं कि भारत अपनी ओर से नई ईजाद की गई सभी के साथ साझेदारी के स्थान पर फिर एक बार पुरानी नान-अलायनमैंट अर्थात गुट-निरलेप नीति पर चल कर विश्व में किसी का दुश्मन नहीं बनेगा और एक प्रकार से एक विश्व नेता के रूप में खड़ा भी रह सकता है। रूस के साथ दोस्ती की सीमा बारे शायर उबैद उलाह अज़ीम का यह शे’अर याद रखना ज़रूरी है :
अज़ीज़ इतना ही रखो कि जीअ संभल जाए,
अब इस कद्र भी न चाहो कि दम निकल जाए।
-1044, गुरु नानक स्ट्रीट, समराला रोड, खन्ना
-मो. 92168-60000



