फिल्मी पर्दे पर कश्मीर 

1964 में ‘कश्मीर की कली’ में शर्मीली चम्पा (शर्मीला टैगोर) हसरत भरी निगाह से पहाड़ों को देखती है और फिर राजीव (शम्मी कपूर) की तरफ मुड़कर कहती है, ‘कितनी खूबसूरत वादियां हैं।’ उसके व प्रकृति के सौन्दर्य से मुग्ध राजीव जवाब देता है, ‘तभी तो सोच रहा हूं यहां पर आके दिल किसी से प्यार करने को क्यों मचलता है।’2019 में अश्विन कुमार की फिल्म ‘नो फादर्स इन कश्मीर’ एक ब्रिटिश-कश्मीरी किशोरी की कहानी बयान करती है जो अपने पिता की तलाश में है। सेंसर बोर्ड से आठ माह के संघर्ष के बाद यह फिल्म हाल ही में रिलीज हुई है। कुमार का कहना है, ‘सात बार स्क्रीनिंग के बाद छह बार इसे काटा, मोड़ा गया और एक लंबा अरसा लगा उन चीजों से समझौता करने में, तब जाकर यह फिल्म स्क्रीन तक पहुंच सकी है।’ अब उन्होंने गैर-सेंसर्ड फुटेज को ऑनलाइन रिलीज कर दिया है। इन दोनों फिल्मों के बीच इतिहास है। जब शक्ति सामंत ‘कश्मीर की कली’ बना रहे थे तो घाटी में कश्मीरी राष्ट्रवाद जड़ें जमाने लगा था। इसके अगले वर्ष भारत व पाकिस्तान ने अपना पहला युद्ध लड़ा। बहरहाल, ‘जंगली’ (1961) में बनी थी उस समय से ही कश्मीर की घाटी की सुंदरता ने बॉलीवुड को अपने मोहपाश में बांध लिया था, जिसका एकमात्र श्रेय शम्मी कपूर की इस जगह के प्रति दीवानगी को दिया जाना चाहिए और इसलिए 1965 में भारत पाकिस्तान के आपसी तनाव के चरम में भी अमर कुमार की ‘मेरे सनम’ व सूरज प्रकाश की ‘जब जब फूल खिले’ रिलीज हुईं। बर्फीली चोटियों पर झूमने या गुलमर्ग की ढलानों पर स्लाइडिंग करने के अतिरिक्त इन फिल्मों ने राजनीति तो बहुत दूर की बात है, स्थानीय संस्कृति व भाषा को व्यक्त करने का जरा भी प्रयास नहीं किया। डल झील व उसके शिकारा फिल्मों में नियमित दिखाई देते व गीतों में उनका गुणगान भी होता, लेकिन कश्मीर की पहचान व उसकी समस्याओं की थोड़ी-सी भी झलक इन फिल्मों में नहीं मिलती। कश्मीर के आध्यात्मिक लचीलेपन और दर्शनीय वैभवता को मुख्यधारा के उद्देश्य के लिए प्रयोग किया जाता रहा, जिसका मकसद था बस दिखाओ, बताओ नहीं। ‘कश्मीर की कली’ के बाद के सालों में बॉलीवुड के अनेक निर्देशकों ने राज्य का ‘टूर’ तो किया, भले छुट्टियां बिताने के लिए न कि वहां के लोगों की संस्कृति और रीति-रिवाजों के बारे में सिनेमा के माध्यम से लोगों को अवगत कराने की कोई जरूरत समझी। कश्मीर वास्तविकता से अधिक प्रतीक बन गया, कश्मीर की सुंदरता को फिल्मों में केवल रोमांस दिखाने तक ही सीमित कर दिया गया, जैसे ‘दो बदन’ (1966), ‘अंदाज’ (1971), ‘बॉबी’ (1973) और ‘कभी-कभी’ (1976)। इन सभी फिल्मों ने इस क्षेत्र को कल्पना तक समेटकर रख दिया, कभी इसकी पहचान के एक लंबे संघर्ष का जरा-सा भी संकेत तक नहीं दिया। जमीनी सच्चाई निश्चित रूप से बहुत भिन्न थी। अस्सी के दशक में मिलिटेंसी शुरू हो गई थी, अनेक जनमत संग्रह व अलगाववादी गुट गठित हो चुके थे। 1989 में जब श्रीनगर में सिनेमा बंद हुए तो शेष भारत का कश्मीर व कश्मीरियों के बारे में दृष्टिकोण नाटकीय रूप से बदल चुका था। पहले बात लैंडस्केप तक ही सीमित थी, अब कश्मीरी सिनेमा में आने लगे, लेकिन भारतीय राष्ट्रवाद के पैमाने पर। सीमा का टकराव बॉलीवुड सिनेमा में सबसे पहले ‘हिना’ (1991) में सामने आया, इस फिल्म को के. ए. अब्बास ने लिखा था। उस साल यह ऑस्कर में भारत की एंट्री थी। हालांकि इसके केंद्र में अराजनीतिक प्रेम कथा थी, लेकिन फिल्म के ट्रैजिक अंत ने युद्ध के बारे में कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े कर दिये। बहरहाल, 1992 में मुख्यधारा का राष्ट्रवाद पूरी तरह से हावी हो गया, जब मणिरत्नम की अति देशभक्ति वाली फिल्म ‘रोजा’ को लगभग चौतरफा तारीफ  मिली। ‘रोजा’ को दूरदर्शन व उसके क्षेत्रीय चैनलों पर प्रसारित किया गया और इसने कश्मीरियों को स्क्रीन पर किस तरह से दिखाना है इसकी नींव रखी। एक सीन में आतंकी लियाकत (पंकज कपूर) ऋषि (अरविंद स्वामी) से कहता है कि वह ‘जिहाद’ के लिए अपनी मां व बहन का कत्ल करने में भी नहीं झिझकेगा। ‘यह धर्म युद्ध है।’ वह कहता है, यानी चपलता से उस समस्या का अति सरलीकरण कर दिया गया है जिसका उस समय जटिल इतिहास था और अब विवादित भविष्य है। कश्मीर की सुंदरता उतर चुकी थी, लेकिन उसकी वास्तविकता को अभी मुखर होना बाकी था। हालांकि फिल्में जैसे कारगिल की फॉलो-अप ‘मिशन कश्मीर’ (2000) और थोड़ी अधिक प्रशंसनीय ‘यहां’ (2005) ने कश्मीर समस्या की जटिलता को सुलझाने का गंभीर प्रयास किया, लेकिन फिर रोमांस का सुरक्षित मार्ग पकड़ लिया। लम्बे समय से घाटी को आवाज नहीं दी गई है। वहां के लोगों के लिए अपनी कहानी खुद बयान करना किसी बोझ से कम नहीं है। कश्मीर की पहली फिल्म, जो उर्दू में बनी थी, ‘मेंज रात’ 1964 में आई थी। दूसरी फिल्म ‘इंकलाब’ कभी रिलीज नहीं हुई। घाटी में सिनेमाघरों के बंद होने से बहुत कम फिल्मों व डाक्यूमेंट्री का वितरण हुआ, जिससे वह अपनी क्षमता तक पहुंच ही न सकीं। कश्मीरी एक्टर आमिर बशीर की ‘हरुद’ (2010) मील का पत्थर थी। इसने कश्मीर समस्या को अंदर से देखा था। यह फिल्म भी देर से और चुपके से रिलीज हुई। इसमें रफीक (शाहनवाज भट्ट) की कहानी है जो हताश स्थानीय फोटोग्राफर है, उन स्थितियों का मारा हुआ जिनमें वह पैदा हुआ है।  अमरीका स्थित निर्देशक मूसा सईद की ‘वेली ऑफ सेंट्स’ (2012) एक शिकारा मालिक गुलजार (सईद ने असल नाविक गुलजार अहमद भट्ट को कास्ट किया) और अमरीका-स्थित शोधकर्ता आसिफा (नीलोफर हामिद) की प्रेम कथा है, जिसमें राजनीति को पिरो दिया गया है। गुलजार को एहसास होता है कि वह हर चीज को छोड़ने के लिए तैयार है, लेकिन उसमें कश्मीर शामिल नहीं है। 2017 में हुसैन खान ने ‘कश्मीर डेली’ और दानिश रेंजू ने ‘हाफ विडो’ बनाई। इन फिल्मों को न पब्लिसिटी मिली और न इनका वितरण हुआ। यह फिल्में घाटी में भी रिलीज नहीं हुईं। पिछले एक दशक के दौरान कश्मीर की छवि टूटी जन्नत बनकर रह गई है, जैसा कि विशाल भारद्वाज की ‘हैदर’ (2014) और साजिद अली की ‘लैला मजनू’ (2018) से जाहिर है। इन दोनों ही फिल्मों में पागलपन कश्मीर की वास्तविकता बन जाता है। यही हाल ‘काफिरों की नमाज’ (2016) का है, जोकि अच्छी फिल्म है लेकिन कम लोग इसके बारे में जानते हैं। इस साल प्रवीण मोर्छाले की ‘विडो ऑफ  साइलेंस’ और एजाज खान की ‘हामिद’ आईं ... और कब गायब हो गईं मालूम ही नहीं चला। सीमा पर बढ़ते तनाव से स्थानीय कथा को तो वनवास ही मिल जायेगा।