चुनौती बन गया है बढ़ती महंगाई का मुकाबला

महंगाई से पूरा देश परेशान है। सबसे बड़ी परेशानी की बात यह है कि महंगाई का सबसे ज्यादा असर खाने-पीने की वस्तुओं पर पड़ा है। फुटकर बाज़ार में अरहर की दाल 70 से 90 रुपए प्रति किलो, चीनी 40 से 50 रुपए प्रति किलो, चना 30 से 40 रुपए प्रति किलो, उड़द की दाल 70 से 80 रुपए प्रति किलो और मूंग की धुली हुई दाल 90 से 100 रुपए प्रति किलो में मिल रही है। खाने के दूसरे सामानों के दाम भी कम नहीं हैं। खाने के सामान के साथ सब्जी, दूध और फलों के दाम आम जनता की पहुंच से दूर हो गए हैं। सबसे बड़ी परेशानी की बात यह है कि महंगाई का लाभ उन किसानों को नहीं मिल सका जो मेहनत करके खाने-पीने की चीज़ों, सब्ज़ियों और फलों का उत्पादन करते हैं। इन चीजों के थोक बाज़ार और फुटकर भाव में भी बहुत अंतर है। इससे पता चलता है कि महंगाई का सबसे बड़ा कारण मुनाफाखोरी है। खाने-पीने की चीज़ों के भाव जब बढ़ते हैं तो फुटकर कारोबारी तत्काल भाव बढ़ा देते हैं। जब इन चीज़ों के भाव कम होते हैं तो उस औसत में चीजों के दाम बाज़ार में नहीं गिरते। मुनाफाखोरी का यह गोरखधंधा फुटकर बाज़ारों में खूब चल रहा है। सरकार ने भी माना है कि महंगाई का सबसे बड़ा कारण मुनाफाखोरी है। इसके लिए कारोबारी सामान खरीदकर गोदाम में रख लेता है और चीज़ों के भाव बढ़ने पर उसको बेचने के लिए बाज़ार में निकालता है। इसको रोकने के लिए सरकार ने धारा 3/7 आवश्यक खाद्य एवं वस्तु अधिनियम को लागू किया। इसके साथ ही सरकार ने स्टाक सीमा निर्धारण और कालाबाज़ारी अधिनियम के तहत कारोबारियों पर कार्रवाई करने के लिए आदेश जारी किए हैं। महंगाई के लिए मुनाफाखोरी से बड़ी वजह कम उत्पादन की है। खाने-पीने की जिन चीजों के दाम तेजी से बाज़ार में बढ़े हैं, उनका उत्पादन किसान ने कम किया। आलू और अरहर की दाल इसके बड़े उदाहरण हैं। 2007 की स्थिति को याद करें। 2007 में आलू का उत्पादन बहुत हुआ था। आलू की भरपूर फसल का प्रभाव यह हुआ कि बाज़ार में आलू की कीमत गिर गई। आलू फुटकर बाज़ार में 5 रुपए प्रति किलो से ऊपर नहीं गया। थोक बाज़ार में आलू की कीमत 2 रुपए किलो से भी कम थी। जिन आलू किसानों ने अपनी फसल कोल्ड स्टोरेज में रखी थी, गिरे हुए भाव के कारण इन किसानों ने अपने आलू कोल्ड स्टोर से नहीं निकाले। किसानों को कोल्ड स्टोरेज से आलू निकालने के लिए 125 रुपए प्रति क्विंटल कोल्ड स्टोरेज को पैसा देना था। इसके बाद बाज़ार तक आलू को लाने की ढुलाई और दूसरे खर्च जोड़कर आलू की कीमत 2 से 3 रुपए प्रति किलो हो रही थी जो किसानों को बाज़ार से नहीं मिल पा रही थी। किसानों ने कोल्ड स्टोरेज से आलू नहीं निकाला। कोल्ड स्टोरेज ने औने-पौने दामों पर इस आलू को बाज़ार में बेच दिया। सरकार ने जल्दी में आलू किसानों की मदद करने की योजना बनाई पर बाद में इस योजना पर कोई अमल नहीं हुआ। इसका असर यह हुआ कि अगले साल 2008 में आलू की खेती घट गई और आलू का भाव सबसे आगे निकल गया।  आलू जैसा ही हाल गन्ने का भी हुआ है। गन्ने की कीमत को लेकर किसान सरकार, चीनी मिल और अदालत के बीच पिसता जा रहा है। इससे गन्ने की बोआई का रकबा घटता जा रहा है। सरकारी आंकड़ों में भले ही यह कहा जाता हो कि गन्ने की बोआई का रकबा कम घटा है पर हकीकत में गन्ने की बोआई बहुत कम हो गई है। एक किसान ने बताया, हमारे गांव में पहले लोग धान व गेहूं की खेती न करके गन्ने की खेती करते थे। चीनी मिलें अक्तूबर से शुरू होकर अप्रैल तक चलती थीं। इसके बाद भी पूरा गन्ना नहीं कट पाता था। इसके अलावा बहुत-सा गन्ना गुड़ बनाने के काम भी आता था। अब ऐसा नहीं है। गन्ने की बोआई कम हो गई है, उसकी जगह पर गेहूं, आलू और सब्ज़ियों की खेती बढ़ गई है। दलहन फसलों के साथ भी ऐसा ही हुआ है। दलहन फसलों की कमी की सबसे बड़ी वजह कम उत्पादन है। इसके अलावा बंदर और नीलगाय जैसे पशुओं से इन फसलों को बचाना बड़ी परेशानी की बात होती है। इसके चलते दलहन फसलों के दाम भी बढ़े। एक तरफ पैदावार कम हो रही है तो दूसरी ओर कारोबारी मुनाफाखोरी में लगे हैं जिससे जनता को चीज़ों के दाम ज्यादा चुकाने पड़ रहे हैं। लोगों की प्रति व्यक्ति आय में भी बढ़ोतरी हुई है। गांव से लेकर शहर तक में मजदूरी बढ़ गई है। महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना के चलते गांव में मजदूरी बढ़ गई है। अब गांव में मजदूर 100 रुपए प्रतिदिन से कम पर नहीं मिलते। इन मजदूरों के शहर में न आने से शहर में मजदूरों की संख्या घट गई है और मजदूरी बढ़ गई है। सरकार ने अपने खर्चे बढ़ा लिए हैं, जिनको पूरा करने के लिए कई तरह के टैक्स भी लगाए गए। बिजली की कमी के कारण लोगों ने डीजल और पेट्रोल से काम चलाया, जिससे खेती की लागत बढ़ गई। डीजल, पेट्रोल के दाम बढ़ने से सामानों की ढुलाई का खर्च बढ़ा और चीज़ों के दाम बढ़ गए। महंगाई बढ़ी तो भी राज्य सरकारों ने करों का शिकंजा मजबूत रखा। यही वजह है कि केंद्र सरकार महंगाई को घटाने के लिए जो भी उपाय कर रही है, उसका प्रभाव कम पड़ रहा है। बढ़ती महंगाई का मुकाबला करने के लिए बढ़ते खर्चों को कम करने का भी एक सिद्धांत है जिसे जनता बिना किसी सरकारी दबाव के कर सकती है। शादी-विवाह, तीज-त्यौहारों में बढ़ती खरीदारी को देखते हुए कहा जा सकता है कि जनता ने अपने खर्चे कम करने की कोई कोशिश नहीं की है। एक बार 26 जनवरी को शहरों में मॉल्स ने 4 दिन की सेल लगाई थी। खरीदारी के लिए लोग इस कदर उमड़े कि मॉल्स में घुसना और बिलिंग कराना तक मुश्किल हो गया। बढ़ती महंगाई का मुकाबला करने के लिए हर तरफ से प्रयास होने चाहिए। कारोबारियों पर जमाखोरी का आरोप लगाकर उनका शोषण करने के लिए सरकारी नौकरों को अधिकार तो दिए जा सकते हैं लेकिन उससे समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता। (अदिति)