सीधे आमदनी सहयोग को जारी रखते हुए  कृषि क्षेत्र के लिए नए सिरे से बनाई जाएं योजनाएं

इस समय जब नीति आयोग भी यह मान चुका है कि गत दो वर्षों में (अर्थात् 2016 के बाद) किसानों की आमदनी में लगभग शून्य के समान ही वृद्धि हुई है और इससे भी ज़रूरी यह है कि 2011-12 और 2015-16 अर्थात् इन पांच वर्षों के दौरान किसानों की आमदनी में आधा प्रतिशत (यदि सही तथ्य लिए जाएं तो 0.44 प्रतिशत) की ही वार्षिक वृद्धि दर्ज की गई है। ‘प्रधानमंत्री किसान योजना’ को लागू किया जाना पुष्टि करता है कि कृषि क्षेत्र इस समय गम्भीर संकट में है और इसको सीधे आमदनी सहयोग की ज़रूरत है। पहली बार ऐसा हुआ है कि सरकार ने थोड़ी सी इच्छाशक्ति दिखाते हुए ‘कीमत योजना’ से ‘आमदनी योजना’ की ओर जाने का संकेत दिया और मेरी समझ के अनुसार आर्थिक विचारधारा में यह बहुत ही बड़ा बदलाव है। किसान योजना को लागू किए जाने के तत्काल बाद ही आम चुनावों को ध्यान में रखते हुए ज़रूरतमंद छोटे किसानों के खातों में पहली किश्त 2000 रुपए डाल दी गई। इसके बाद शीघ्र ही कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने ‘न्यूनतम आय योजना’ (न्याय) का चुनावी वायदा किया। न्याय योजना के तहत गरीबी रेखा से नीचे जीवन व्यतीत कर रहे 20 प्रतिशत लोगों के खातों में 6,000 रुपए प्रति महीना दिए जाने का वायदा किया गया। कांग्रेस ने भी अंतत: यह मान लिया कि गरीबी को हटाने के लिए बेहद गरीबों जिसमें छोटे और मध्यमवर्गीय किसानों को भी कुछ समय तक शामिल किया जाना चाहिए, कोई समय सीधे आमदनी सहयोग की ज़रूरत है।  कृषि अभी भी निचले स्तर पर ही है। लगभग चार दशकों से कृषि क्षेत्र की आमदनी में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई। किसानों को उनकी फसलों का बनता मूल्य नहीं दिया गया। वास्तव में मंडीकरण की व्यवस्था में भी प्रशासन द्वारा तय कीमतों के अनुसार ज्यादातर फसलों की कीमत नहीं दी जाती। हाल ही में की गई खोज के अनुसार 2000 और 2017 के बीच किसानों को उनकी फसलों के कम मूल्य के कारण लगभग 45 लाख करोड़ रुपए का नुक्सान हुआ है और किसान विरोधी माहौल के बावजूद वह किसी तरह जीवन व्यतीत कर रहे हैं। यदि अर्थव्यवस्था का कोई और क्षेत्र होता तो अब तक वह अपना अस्तित्व गंवा चुका होता। इसमें कोई हैरानी नहीं है कि मौजूदा समय ग्रामीण क्षेत्र की निराशा अपनी चरम सीमा पर है, जोकि किसानों द्वारा की जाती आत्महत्याओं का प्रमाण है, जिनके खत्म होने का कोई संकेत नहीं मिल रहा। चाहे कृषि संकट के मुद्दे को छिपाने के लिए पुलवामा हमले के बाद बड़े स्तर पर राष्ट्रवाद की राजनीति की गई, परन्तु मौजूदा सरकारों की सबसे बड़ी चुनौती लम्बे समय से गिरावट की ओर जा रहे ग्रामीण क्षेत्र के पेचीदा मुद्दे को हल करने की है। राजनीतिक पार्टियों द्वारा अपने चुनाव घोषणा-पत्रों में वायदों की झड़ी लगाई गई है। नई सरकार के लिए इन वायदों को लागू करना ही चुनौती होगी। गत कुछ वर्षों के दौरान किसानों के रोष-प्रदर्शनों में भारी वृद्धि हुई है और नये प्रधानमंत्री के लिए इनकी मुश्किलों को नज़रअंदाज़ करना आसान नहीं होगा। सीधे आमदनी सहयोग को जारी रखते हुए कृषि क्षेत्र को छोटे-छोटे लक्ष्यों से संकट से बाहर निकाला जा सकेगा। मेरी समझ के अनुसार यह कुछ आवश्यक नुक्ते हैं, जिन पर प्रधानमंत्री को ध्यान देना चाहिए। 
* कृषि अब उपेक्षित हो गई है, क्योंकि किसानों को हर पड़ाव पर बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। यह प्रशासन की लापरवाही का ज्यादा शिकार है। यदि उद्योग को सुखद माहौल देने के लिए 7,000 कदम उठाये जा सकते हैं, जो मुझे ऐसा कोई कारण दिखाई नहीं देता। क्योंकि कृषि क्षेत्र को इसी प्राथमिकता के आधार पर छूट नहीं दी जा सकती। पूरे देश और राज्यों में भी टीमें स्थापित की जानी चाहिए, जोकि हर पड़ाव पर योजना पर नज़र रखे। ऐसे प्रयास तराशने चाहिए, जो कृषि को किसान पक्षीय बनाने में सहायक हों। 
* किसानी आमदनी और कल्याण आयोग बनाया जाए। यह आयोग फसलों की कीमतें निर्धारित करे और किसानों के आमदनी पैकेज को पक्का करे और अन्य कल्याण प्रयासों के लिए भी कार्यशील रहे। इस आयोग को पहले से ही स्थापित सी.ए.सी.पी. को अपने भीतर समा लेना चाहिए और प्रति किसान परिवार के लिए 18,000 रुपए प्रति महीना निर्धारित किए जाएं। यह सहायता प्रति ज़िला किसान परिवार की आमदनी के आधार पर ही दी जानी चाहिए। यह जानकारी उपलब्ध है और प्रति ज़िला किसानी आमदनी की औसत संबंधी तथ्य एकत्रित करना कोई मुश्किल नहीं। 
* किसान ऋण माफी : किश्तों में की जा रही ऋण माफी की बजाय किसानों का सारा ऋण एक ही बार में माफ किया जाना चाहिए। 2017 के बाद कुछ राज्यों ने कुल 1.9 लाख करोड़ के किसान ऋण माफ कर दिए हैं। माना जा रहा है कि कृषि से संबंधित कुल ऋण 3.5 लाख करोड़ के लगभग हैं, जिनको माफ किये जाने की ज़रूरत है। किसान उतना समय आर्थिक पक्ष से उत्साहित नहीं हो सकते जब तक उनके पिछले बोझ को खत्म नहीं किया जाता। इस कठिन समय में देश को किसानों के साथ खड़े होना होगा। किसान की ऋण माफी राज्य सरकारों पर वित्तीय बोझ नहीं बनेगी। यदि औद्योगिक ऋण खत्म करने की तरह ही बैंकों का रास्ता धारण किया जाए। 
* सार्वजनिक क्षेत्र निवेश : रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार वर्ष 2011-12 और 2016-17 के बीच कुल घरेलू उत्पादन का सिर्फ 0.3 प्रतिशत से 0.4 प्रतिशत ही सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा कृषि में निवेश किया गया। इसके साथ ही निजी क्षेत्र का निवेश भी कृषि क्षेत्र में बहुत कम है। 50 प्रतिशत से ज्यादा आबादी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर कृषि से संबंध रखती है। यह सही समय है कि सार्वजनिक क्षेत्र के निवेश से कृषि को मजबूत करने की ओर ध्यान केन्द्रित किया जाए, जब तक कृषि क्षेत्र में आवश्यक निवेश नहीं किया जाता तब तक किसानों के लाभकारी होने की उम्मीद नहीं की जा सकती। 
* कीमतों और मंडीकरण में शोध : इस समय मंडीकरण में सुधार लाने की बड़ी ज़रूरत है, जोकि मौजूदा इकाई ए.पी.एम.सी. के विस्तार से शुरू होना चाहिए। मौजूदा समय 7600 ए.पी.एम.सी. मंडियां हैं, जबकि प्रति पांच किलोमीटर के हिसाब से 42,000 मंडियों की ज़रूरत है। इस इकाई में सुधार करते हुए फसलों की कीमत तय करने वाले ढांचे को भी तोड़ना होगा। इसी समय ए.पी.एम.सी. की शोध करते हुए किसानों की सारी फसल को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदा जाना सम्भव बनाना चाहिए।