शहरों में रहते फुटपाथिओं की भलाई हेतु भी बनाई जाएं योजनाएं

हमारे देश के सभी बड़े शहरों जिन्हें महानगर कहा जाता है और उनकी नकल पर विकसित हो रहे छोटे शहर, स्मार्ट सिटी और बस्तियों की एक खास बात यह है कि इनमें लगभग पांच करोड़ लोग वहां बने फुटपाथों, पटरियों, सड़क के किनारों पर और सड़कों के बीच बनाई गई जगहों, बाज़ारों के नुक्कड़, चौराहों के पास वाले मोड़ और ऐसे अन्य स्थानों पर रहते हैं, जहां भीड़भाड़ हो, लोगों और वाहनों का दिन-रात आना-जाना लगा रहता हो। कहते हैं कि एक अनुमान के मुताबिक मुम्बई की आधी आबादी स्लमों, झुग्गी-झोपड़ी में रहती है तो उसका दस प्रतिशत फुटपाथी है।
कानून ही नहीं तो उसका डर कैसा?
मज़ेदार बात यह है कि अन्य सभी जगहों पर रहने वालों के लिये कानून है, उनके पुनर्वास की योजनाएं हैं, उनके लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार की व्यवस्था करने की कोशिशें भी की जाती हैं ताकि वे नारकीय जीवन से निकलकर सामान्य जीवन जी सकें। फुटपाथिओं के लिये न कोई कानून है और न ही उनके लिये कोई योजना बनाई जाती है, क्योंकि वे बेघरों की श्रेणी में नहीं आते। पता नहीं कि उनकी गिनती जनसंख्या गिनने के समय होती भी है या नहीं, क्योंकि इनका कोई पहचान-पत्र, जैसे आधार कार्ड या वोटर कार्ड नहीं बनाया जाता। इनकी नागरिकता के बारे में कोई सरकारी विभाग ही कुछ बता सकता है। जो भी स्थिति हो, मसला गंभीर है।
यह शायद हमारे देश की राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था के अनेक अजूबों में से एक है कि फुटपाथियों के अस्तित्व को कोई नकार नहीं सकता, लेकिन सरकार और प्रशासन के लिए वे अदृश्य या अनुपस्थिति का साया मात्र हैं।
आप किसी भी स्कूल, अस्पताल, धार्मिक स्थल, शॉपिंग मार्केट, मॉल, बाज़ार और ऐसी ही किसी आवाजाही वाली जगह पर अपने किसी भी काम से चले जाइए, आपको पैदल चलने के लिए बनाई गई पटरियां या फुटपाथ गैर-कानूनी ढंग से दुकानदारों, ठेले-रेहड़ी वालों द्वारा कब्जा किए गए मिलेंगे। यह जगहें अमूमन बिक्री के लिये रखे सामान जिनमें सब्ज़ी, फल, जूस से लेकर घरेलू इस्तेमाल वालीं चीज़ों का ढेरी के हिसाब से सौदा करने वालों, चाट-पकौड़ी और तंदूर से  रोटियाँ निकालने वाले और इसी तरह के तमाम कारोबारियों द्वारा मनमाने तरीके से घेरी हुई मिल जायेंगी।
उल्लेखनीय है कि इन सब की आमदनी इतनी हो सकती है कि अच्छा खासा व्यापारी जिसने लाखों रुपए के निवेश से अपना बिजनेस खड़ा किया है, वह भी जलन कर सकता है। इन लोगों को कोई टैक्स नहीं चुकाना पड़ता, सब कुछ नकद लेन-देन से होता है, सिवाय इसके कि पुलिस चौकी, नगर निगम या नगरपालिका के अधिकारियों और अवैध कब्ज़ों के खिलाफ कार्रवाई करने वाले मुलाज़िमों की मुट्ठी गरम होती रहे।
ये लोग कौन हैं, यह सवाल मन में उठ सकता है तो इसका जवाब है कि रोज़गार की तलाश में बिना किसी सोच-विचार या बंदोबस्त के छोटे शहरों और गांव-देहात से अपना मामूली-सा सामान उठाए ये लोग कहीं से, कभी भी किसी महानगर में आ जाते हैं। पटरी या फुटपाथ को बसेरा बनाते हैं और धीरे-धीरे टीन का कनस्तर, गत्ते के डिब्बे, पालीथीन के थैले में इनकी गृहस्थी समा जाती है।
यहां रहने वालों की अपनी कहानियां हैं, जैसे कि यहीं शादी हुई, बच्चे हुए, उनकी शादी हुई, जीने और मरने का सिलसिला शुरू हुआ और परिवार से लेकर कुटुंब बन गये। ये लोग बहुत खुश होते हैं, ज्यादा की किसी को कोई इच्छा नहीं, किसी घर में सफाई करने, बर्तन धोने से लेकर इमारतों में रहने वाले बुजुर्गों की देखरेख से लेकर बच्चों या पालतू जानवरों को टहलाने का काम मिल जाता है।  ये लोग कोई भी ऐसा काम कर सकते हैं, जिसके लिये ज़रूरत पड़ने पर कोई न मिले। मतलब घर में किसी तरह की मरम्मत का काम, भारी भरकम सामान को उपर नीचे ले जाने का काम, बाज़ार से छोटी-मोटी चीज़ मंगवाने का काम और ऐसे ही दूसरे बहुत-से काम जो आप स्वयं न करना चाहें।
व्यवस्था की कमज़ोरी
अब क्योंकि ये न बेघर हैं, न भिखारी हैं तो इनके लिये कोई योजना भी नहीं बनाई जाती। समाज को इनकी ज़रूरत है, यह एहसास इन्हें हो जाता है और अपनी शर्तें मनवाने की कला इन्हें आती है। मोलभाव करना आता है। इनके हाथों में मोबाइल फोन और गले, नाक कान में गहने देखे जा सकते हैं। किसी को ज़रूरत हो तो पैसा उधार भी देते हैं। अपनी लड़ाई खुद लड़ते हैं और मज़दूरी जमकर करते हैं। हर बस्ती में इनकी आबादी दस-बीस हज़ार से लेकर कई लाख तक हो सकती है। कुछ एनजीओ भी इनके बीच काम करने आ जाती हैं और बच्चों को पढ़ाने और महिलाओं को स्वास्थ्य संबंधी जानकारी, दवाई, खाने-पीने की सामग्री आदि की सुविधा देती हैं।
अगर हम कानून और अदालत के फैसलों की बात करें तो यह जान लीजिए कि अब तक विशेष रूप से इनके लिये कोई कानून नहीं बना है। जहां तक फैसलों की बात है तो न्यायाधीश अपने विवेक के आधार पर इनके पक्ष में यह निर्णय देते पाये गये हैं कि क्योंकि ये लोग गरीब हैं, बदकिस्मत हैं इसलिए इंसानियत के नाते इन्हें अपनी जगह से उखाड़ा न जाए। ये लोग अतिक्रमणकारी नहीं हैं, बल्कि दया और सहानुभूति के पात्र हैं। हाईकोर्ट हो या सुप्रीम कोर्ट, सब ने जीवन और आजीविका के अधिकार के तहत इन्हें हटाये जाने पर रोक लगाई है। किसी को यह अधिकार नहीं कि इन पर कोई दमनकारी कार्यवाही हो सके।
ज़रूरी यह है कि सरकार, प्रशासन और समाज इस बात को समझें कि चाहे हम इन्हें घृणा की नज़र से देखें, कोढ़ या कलंक की संज्ञा दें, इन्होंने हम सब की ज़िन्दगी में अपनी ज़रूरत सिद्ध कर दी है। इसलिए ज़ोर जबरदस्ती से तो काम चलेगा नहीं। कोई ऐसा कानून बनना चाहिए जिससे सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे।
राजनीतिक दल हों या समाजसेवी संस्थाएं, उन्हें मिल बैठकर इस समस्या का समाधान निकालना होगा। इनके रोज़गार से लेकर पुनर्वास तक की योजना बना कर ही इसका हल निकल सकता है। मानवता की बातें करना अच्छा लग सकता है लेकिन इस तबके से हो रही असुविधा के बारे में कोई नीतिगत फैसला लेना होगा। यह भी ध्यान रखना होगा कि शहरों में निर्माण इस तरह से हो कि पैदल चलने वालों के हितों की रक्षा हो और वे बेखौफ  होकर पटरी या फुटपाथ का इस्तेमाल कर सकें।